आजादी के बाद अच्छे दिन आए, बहुत धीमी गति से

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अच्छे दिनों की कल्पना कोई नई नहीं है, शब्दावली नई है। गाँव के जीवन में सुधार बहुत ही धीमी गति से आया है उस गति को तेज होना है। जब 1948 में मैंने गाँव से पांच किलोमीटर दूर अमानीगंज को कक्षा तीन की पढ़ाई के लिए जाना शुरू किया तो बरसात में कीचड़ पार करके, गर्मियों में धूल में होते हुए और जाड़े में ठिठुरन भरी राहों पर जाना होता था। घर से जल्दी ही निकलना और निकलने के पहले खेतों में जाकर शौच करना, कुएं पर नहाना और जो कुछ मिल गया नाश्ता करना फिर किताबों का झोला कंधे पर डालकर जाना होता था।


जब हम खूब सवेरे स्कूल जा रहे होते थे तो चारों ओर खेतों में बैलों की जोड़ियां और उनके पीछे हल जोत रहे किसान दिखाई पड़ते थे। वे बैलों को नह-नह या फिर बह-बह कहते रहते थे मानो बैल उनकी भाषा समझते हों। नह का मतलब था दाहिने मुड़ो और बह का अर्थ था बाएं घूमो। तब तक गाँवों में मशीनों का युग नहीं आया था। सही अर्थों में गाय किसान की माता थी।

अपने बचपन में हम लोग रात को बोरा बिछाकर कुप्पी जलाते और होमवर्क पूरा करते थे जबकि फुर्सत के समय कबड्डी, खो-खो, कोंडरा खेलते थे। पहले रेशेदार अनाज जैसे चना, जौ, छिलके वाली दालें और सब्जियां खूब प्रयोग में आती थीं। तब दालें पॉलिश करने की मशीनें ही नहीं थीं। संघर्ष भरा जीवन था लेकिन बीमारियां नहीं थीं और अब आरामदेह जीवन है परन्तु अनेक बीमारियां हैं। अब छोटे से छोटा किसान भी खेतों की जुताई, फसल की मड़ाई और सामान की ढुलाई किराए के ट्रैक्टर से करता है। पहले ये सभी काम बिना खर्चा किए बैलों से होते थे। तब ऊर्जा डीजल, पेट्रोल और बिजली की मोहताज नहीं थी।

अब पगडंडियों की जगह रास्ते और गलियारों की जगह पक्की सड़कें बन गई हैं। जहां रोशनी के लिए सरसों के तेल के दिए या मिट्टी तेल की कुप्पी जलाते थे वहां बिजली के बल्ब चमक रहे हैं। सिंचाई के लिए जहां कुओं और तालाबों से पानी निकालना पड़ता था वहां आज नहरें और नलकूप बने हैं। हमारे गाँव में भी बीस साल पहले प्राइमरी स्कूल बन गया था और कुछ ही दूर पर दवाई इलाज की सुविधा है। पहले जहां पंद्रह दिन में चिट्ठी पहुंचती थी वहां गाँवों से एक मिनट में मोबाइल फोन से बात हो जाती है, जहां 12 किलोमीटर पर रेल या बस मिलती थी अब वह दूरी घटी है।

मनोरंजन के उनके अपने तरीके थे। मैं भी जाता था देखने लोकनृत्य, नौटंकी, धोबिहा नाच और हुड़ुक की थाप पर बधावा या फिर नटों और बाजीगरों के करतब। यह सब बिना पैसे के उपलब्ध थे बस घरों से कुछ अनाज दिया जाता था। समय बदला और मनोरंजन के अनेक साधन उपलब्ध हो गए। पहले शहरों में और बाद में गाँवों में भी रेडियो आया और अब टीवी चौपाल की शोभा बढ़ा रहे हैं।

गाँवों के नौजवानों को गाँवों की खूबियां पता ही नहीं और वे शहरों की चकाचौंध को गाँवों में ढूंढ रहे हैं। गाँवों की सरलता, सौम्यता, सभी में प्रेम भाव और सहयोग की भावनाएं घट रही हैं। तब किसी का छप्पर तैयार होता था तो उसे सब लोग मिलकर मिनटों में चढ़ा देते थे, सिंचाई का समय आता था तो सब मिलकर नाली बना लेते थे, किसी की लड़की की शादी हुई तो पड़ोस के बाग में बारात टिकाई जाती थी, चारपाइयां, बिस्तर और बर्तन सब बिना कहे आ जाते थे और सब लोग बारात विदा होने तक लगे रहते थे। अब तो हम गाँव की विशेषताएं खो रहे हैं और शहर की सुविधाएं हासिल नहीं कर पा रहे हैं।

इतना ही नहीं, स्वास्थ्य के विषय में घड़ी की सुई उल्टी दिशा में चली है। पुराने ज़माने में गाँव के किसान दूध, घी, मट्ठा का पर्याप्त मात्रा में सेवन करते थे, सूर्योदय के पहले उठते और गाय, बैल, भैंस की सेवा करते थे, खेतों में हल लेकर जाना और दिन भर मेहनत करना होता था। खेतों में गोबर की खाद डालते थे, खेतों के लिए यूरिया और खाने के लिए रिफ़ाइंड तेल की जरूरत नहीं थी। अब गाँवों का सारा दूध शहरों को चला जाता है और गाँवों के बच्चे चाय पीते हैं।

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