आमिर के बयान को तूल देकर पत्रकारों ने अपनी ही पोल खोल दी

अनु सिंह चौधरी | Sep 16, 2016, 16:01 IST
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नवंबर 23 की शाम देश के गणमान्य लोग, नेता-राजनेता, जाने-माने पत्रकार, मीडियाकर्मी और बड़ी संख्या में दर्शक 'जर्नलिज़्म ऑफ़ करेज' यानी साहस की पत्रकारिता के जज्बे को सलाम करने के लिए जमा हुए थे। मौक़ा था साल 2013 और 2014 के लिए उन पत्रकारों को रामनाथ गोयनका अवॉर्ड से सम्मानित करने का, जिन्होंने अपने कर्तव्य क्षेत्र के दायरे में रहते हुए भी अपनी पत्रकारिता और अपनी ख़बरों के ज़रिए लीक से हटकर कुछ कहने और करने

का साहस दिखाया था। किसी पत्रकार ने आंध्र प्रदेश की नई राजधानी के निर्माण से बर्बाद होने वाले राज्य के सबसे ऊपजाऊ ज़िलेके किसानों की मुश्किलों के बारे में लिखा था तो किसी ने अपनी ख़बरों में कर्नाटक में माइनिंग और राजनीति की साठ-गांठ पर सीरिज़ करने की हिम्मत दिखाई थी। किसी ने देश में स्किल्ड लेबर की ज़रूरत और उससे जु़ड़ी नीतियों की कमी पर अपनी रिपोर्ट के ज़रिए बहस छेड़ी तो किसी ने रियल एस्टेट गुंडों की मनमानी और पुणे जैसे शहर में अवैध निर्माण के बारे में लिखा।

गोयनका अवॉर्ड के बहाने देश भर के अलग-अलग कोनों से आए पत्रकारों के उसी जज्बे को सलाम करने की शाम थी वो, जब मीडिया पर निष्पक्ष न होने और सनसनीखेज़ ख़बरें छापने और दिखाने के बावजूद भरोसा करने की वजहें दिखाई देती हैं। लेकिन उस एक शाम को आमिर खान के एक बयान ने पूरी तरह हाइजैक कर लिया। जिस समारोह की गरिमा कुलदीप नैयर जैसे पत्रकारों की महज़ उपस्थिति से थी, उस समारोह की आमिर के एक विवादास्पद बयान ने सोशल मीडिया पर, टीवी पर, अख़बारों में धज्जियां उड़ाकर रख दी। जिस समारोह को पत्रकारिता के जज्बे, मीडिया की ज़िम्मेदारियों और तमाम निराशाओं के बीच बंधी हुई आस पर चर्चा को समर्पित किया जाना चाहिए था, वो समारोह सिर्फ और सिर्फ आमिर खान के बयान के लिए याद किया जाएगा। विडंबना ये है कि ये किया-धरा भी उसी मीडिया का है। उन्हीं मीडियाकर्मियों का है जिनके लिए ख़बर और पत्रकारिता एक सनसनीखेज़ हेडलाइन और बाइट से ज़्यादा कुछ नहीं। रामनाथ गोयनका अवॉर्ड की उस शाम के बहाने एक बार फिर पत्रकारों ने अपनी ही पोल खोल दी।

अवॉर्ड दरअसल कुछ होता नहीं, सिवाय इसके, कि अवॉर्ड के बहाने हम अपने दौर, अपने वक्त के दस्तावेज़ों को एक बार खंगालने का काम करते हैं। अवॉर्ड का एक समारोह की चमक-दमक से भी कोई वास्ता नहीं होता। अवॉर्ड के बहाने हम ये देखते हैं कि जो लिखा जा रहा है, रिपोर्ट किया जा रहा है, और जिन विचारों के चलते पब्लिक ओपिनयन का रुख़ मोड़ा जा रहा है उसकी दशा और दिशा क्या है। वैसे भी पत्रकारिता का अवॉर्ड महज़ एक सम्मान नहीं होता, एक बड़ी ज़िम्मेदारी होती है - पाठकों और दर्शकों के भरोसे की ज़िम्मेदारी होती है। इस बात का जश्न और यकीन होता है कि देश-दुनिया और समाज में हालात कुछ भी हों, पत्रकारिता नक्कारखाने की तूती अभी भी नहीं है और न कभी होगी।

एक ही शाम अवॉर्ड के बहाने अलग-अलग किस्म की पत्रकारिता के साक्षात सबूत एक बार फिर सामने आ गए। अगर सनसनीखेज़ बयानों में अपनी ख़बर ढूंढने वाली मीडिया का असली रूप सामने आया तो ये भी साबित हुआ कि कम ही सही, उंगलियों पर गिने जाने लायक ही सही, लेकिन अभी भी कुछ वैसे पत्रकार और वैसे पत्रकारिता के संस्थान हैं जो बेहद सीमित संसाधनों में ज़मीन से जुड़ी ईमानदार पत्रकारिता कर रहे हैं। ये भी साबित हो गया कि अगर कहीं उम्मीद है तो पत्रकारिता के उन स्वंतत्र संस्थानों से ही हैं जिनकी जेबें तो खाली हैं, लेकिन जुनून की दौलत अफ़रात है। ये वो अख़बार, वो पब्लिकेशन हैं जो विज्ञापनदाताओं और बाज़ार से बिना डरे अभी भी अपना वजूद बचाए हुए हैं, और इसलिए ख़बर उनके लिए एक बातचीत के क्रम में दे दिया गया किसी सुपरस्टार का बयान भर नहीं है। उनके लिए ख़बरें देश के गांवों, गलियों, चौबारों में बसती हैं, या फिर उन किलाबंद सरकारी इमारतों में है जहां से ख़बरों को खींचकर बाहर निकाल लाने की हिम्मत भी उनमें है। उनके लिए ख़बरें वो हैं जिनसे देश में नीतियां बदल सकती हैं, सरकारों की नींव हिल सकती है, लोगों की ज़िन्दगियां थोड़ी-सी बदल सकती है। शुक्र है कि एक बयान पर हंगामा खड़ाकर घंटों अपनी दुकान चलाने वाले मीडिया संस्थानों के बीच मुट्ठीभर मीडियाकर्मी ऐसे हैं जो इस वक़्त वाकई पूरी ईमानदारी के साथ आपके लिए आपके मतलब की ख़बरें जुटाने में जुटे हैं! गांव कनेक्शन को मिला रामनाथ गोयनका अवॉर्ड कुछ और नहीं है, बस उसी ईमानदारी को और मज़बूती देने की एक और वजह है।

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