विरोध की राजनीति में संवाद की भाषा: अटल जी की विरासत
Dr SB Misra | Dec 24, 2025, 17:19 IST
अटल बिहारी वाजपेयी सिर्फ़ एक प्रधानमंत्री नहीं थे, बल्कि भारतीय राजनीति में संवाद, सहिष्णुता और नैतिक साहस की दुर्लभ मिसाल थे। छात्र जीवन में साम्यवादी संगठन से लेकर संघ, जनसंघ, जनता पार्टी और अंततः भाजपा तक उनका सफ़र विचारधाराओं की जकड़न से ऊपर मानवीय मूल्यों की खोज है।
अटल जी का जन्म 1924 में ग्वालियर में हुआ था। यह वही तारीख है जब ईसा मसीह जी का भी जन्म हुआ था।
हर साल की तरह इस वर्ष भी सारे देश में अटल जी का 100वाँ जन्मदिन 25 दिसम्बर को मनाया जा रहा है। हम सभी उनके संस्कारों और विचारों को अमर बनाने का प्रयत्न करें। संयोग है कि इसी दिन ईसा मसीह का जन्मदिन भी मनाया जाता है, जिन्हें ईसाई लोग ईश्वर का पुत्र मानते हैं और जो हम सबके लिए दया, क्षमा और मानवता की प्रतिमूर्ति थे। जिसे हम ‘बड़ा दिन’ के नाम से मनाते हैं। सचमुच यह बड़ा दिन है।
अटल जी अपने छात्र जीवन में स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के सदस्य रहे थे, जो कम्युनिस्ट पार्टी की छात्र इकाई थी। बाद के दिनों में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने। इस प्रकार उनके जीवन पर सनातन मूल्यों का प्रभाव था और समता तथा समानता का भी असर था। वे एक आदर्श थे तथा उनके पक्षधर और विरोधी-सभी उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते थे।
मुझे याद है वह ज़माना जब 1957 में अटल जी लखनऊ से सांसद का चुनाव लड़ रहे थे। उनका मुकाबला कांग्रेस के पुलिन बिहारी बनर्जी से था। मैं राजकीय जुबिली इंटर कॉलेज में हाईस्कूल का छात्र था और राजा बाज़ार में रहता था। गाँव की पृष्ठभूमि से आने के कारण राजनेताओं की न कोई जानकारी थी और न राजनीति में कोई रुचि। संघर्षमय छात्र जीवन में इसके लिए मेरे पास समय भी नहीं था।
राजा बाज़ार उन दिनों भारतीय जनसंघ का गढ़ था और अटल जी जनसंघ के जाने-माने नेता थे। लोगों का जोश देखते ही बनता था जब वे बुलंद आवाज़ में कहते थे-“अटल हमारा अटल रहेगा, इसलिए तो जीतेगा।”
मैं उन दिनों अपने कॉलेज की तरफ़ से डिबेट प्रतियोगिताओं में भाग लेने जाया करता था। शायद इसीलिए मोहल्ले के एक तिकोने पार्क की तरफ खिंचा चला गया था, जहाँ अटल जी का भाषण हो रहा था। मैंने पहली बार अटल जी का भाषण सुना था और शायद पहली बार ही किसी नेता को। उसके बाद तो जब कभी मौका मिलता था, मैं उन्हें सुनने जाता था।
स्टेज पर ध्यान गया तो देखा- एक सुगठित बदन का ओजस्वी व्यक्ति बोल रहा था। सफ़ेद धोती-कुर्ता, हवा में फड़कता दाहिना हाथ और वाक्यों के बीच में लंबा विराम- यह उनकी चिर-परिचित शैली रही। बाद में चुनाव परिणाम का समाचार मिला कि अटल जी हार गए। मुझे राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं था, फिर भी बुरा लगा था। उनके भाषण की शैली बहुत आकर्षक थी।
मैं अनेक बार अटल जी को प्रत्यक्ष और रेडियो पर सुना करता था और आवाज़ सुनाई पड़ते ही पैर ठिठक जाते थे। एक बार साठ के दशक में गंगा प्रसाद मेमोरियल हॉल में उनकी मीटिंग थी। 1962 में उन्होंने अपनी बुलंद आवाज़ में कहा था कि चीन जो भाषा समझता है, उसी में हमें बात करनी चाहिए थी। इसका आशय यह था कि ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ से हटकर युद्ध के नियमों का पालन करते हुए वायुसेना का प्रयोग करना चाहिए था।
देश के प्रधानमंत्री अटल जी के संसदीय भाषणों से प्रभावित रहते थे और कहते हैं कि उन्होंने एक बार कहा भी था- “एक दिन अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बनेंगे,” भले ही अटल जी सरकार के प्रखर आलोचक रहते थे।
गांधी जी की हत्या के बाद संसद में संघ का पक्ष रखने वाला कोई नहीं था। अटल जी संसद में कभी संघ की अनुचित आलोचना सहन नहीं करते थे, फिर भी अनेक बार उनका सोच संघ से अलग रहता था।
चीन तथा 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध हो चुके थे और दोनों युद्धों के परिणाम सबके सामने थे।
जब 1971 में पाकिस्तान के साथ भारत का तनाव बढ़ा, तब श्रीमती इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं और उन्होंने पश्चिमी देशों के सामने भारतीय पक्ष रखने के लिए अटल जी को भेजा था। यह सरकार का एक विरोधी दल के नेता पर विश्वास का प्रमाण था। लंबे समय के बाद ऐसा ही विश्वास वर्तमान प्रधानमंत्री ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद विपक्षी दलों पर जताया है।
बाद के वर्षों में अटल जी लखनऊ की लोकसभा सीट से आजीवन चुनाव लड़ते और जीतते रहे।
एक लंबे समय बाद अटल जी मेरे खेत की मंड पर आए थे- नब्बे के दशक में, हमारे भारतीय ग्रामीण विद्यालय के ठीक बगल में। तब वे लखनऊ के सांसद थे। पीडब्ल्यूडी और भाजपा के लोगों ने उनके हाथों एक सड़क का उद्घाटन कराया और शिलापट भी लगवाया था। मुझे सूचना देर से मिली, इसलिए उपस्थित नहीं था। लेकिन किसी ने फोन करके पूछा था कि भारतीय ग्रामीण विद्यालय के बच्चों को स्वागत में खड़ा कर दें? मैंने सहर्ष हाँ कहा था और स्कूल के सभी बच्चे व अध्यापक खड़े हुए थे।
मैं नहीं समझता कि अटल जी को नकली भीड़ की दरकार थी, परंतु मुझे आज तक इस बात का मलाल है कि आयोजकों ने गाँव-जवार को सूचित करने का शिष्टाचार भी नहीं दिखाया था, जबकि हमारा स्कूल और सड़क उनके चुनाव क्षेत्र में आते थे।
इसे संयोग ही कहेंगे कि ईसा मसीह को सूली पर चढ़ना पड़ा था और अटल जी अपने अंतिम दिनों में शय्या पर वर्षों लेटे रहे। भले ही इन दोनों की तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन अटल जी में कुछ तो ऐसा था जिसके कारण सारा देश उन्हें निर्विवाद रूप से सम्मान की नज़रों से देखता है। उनकी विशेषता थी- सीधी-सपाट बात और वाणी का ओज, परंतु सबसे विशेष था निष्छल स्वभाव और निर्भीक अभिव्यक्ति।
अटल जी राजनीति-शास्त्र के छात्र थे और कानपुर के डी.ए.वी. कॉलेज में पढ़ते थे। यह बात मैंने साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ में पढ़ी थी, जिसे शायद धर्मवीर भारती ने ‘झाड़े रहो कलेक्टरगंज’ शीर्षक से लिखा था। शायद कलेक्टरगंज में ही पिता-पुत्र छात्र जीवन में रहते थे। गंभीर से गंभीर बात के लिए हाज़िर-जवाब रहते थे।
जब उनसे किसी ने पूछा-आपकी जन्म-कुंडली क्या कहती है? तो उनका उत्तर था-“मैं कर्म-कुंडली में विश्वास करता हूँ।”
एक बार किसी ने पूछा-जब संघ से आपकी नहीं बनती तो छोड़ क्यों नहीं देते? तो उत्तर था- “कंबल नहीं छोड़ता।” शायद विचारधारा की तुलना कंबल से की थी।
जब संसद में अटल जी बोलते थे तो सभी उन्हें ध्यान से सुनते थे। एक बार किसी सांसद ने कहा- अटल जी, आप बोलते समय हाथ बहुत चलाते हैं। जवाब मिला- “मैंने किसी को भाषण में पैर चलाते नहीं देखा।”
एक दिन अटल जी हाथ बाँधकर बोल रहे थे तो इंदिरा गांधी ने कहा- आज आप हाथ नहीं चला रहे हैं। उत्तर था- “जब हाथ चलाता हूँ तो आपको हिटलर नज़र आता हूँ।” सभी हँस पड़े थे।
इंदिरा जी ने अटल जी को प्रतिनिधि बनाकर कई देशों में भेजा था- बांग्लादेश की लड़ाई के समय।
जब उनकी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता बलराज मधोक ने 1970 के दशक में अपनी पुस्तक इंडियनाइज़ेशन ऑफ मुस्लिम्स यानी ‘मुसलमानों का भारतीयकरण’ लिखी, तो अटल जी बहुत अप्रसन्न हुए थे। स्वाभाविक है, बलराज मधोक का नज़रिया अलग था। भले ही अटल जी इस सोच को सहन नहीं कर सके, फिर भी उनके जीवन का मूलमंत्र रहा- “हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा।” अंततः बलराज मधोक को जनसंघ से अलग होना पड़ा।
भारतीय जनसंघ की मूल विचारधारा थी- हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान। लेकिन अटल जी ने इसका तीखापन घटाया और 1967 में परस्पर विरोधी दलों के साथ मिलकर काम करने की संस्कृति विकसित की। नानाजी देशमुख और राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में संयुक्त विधायक दल की सरकार के गठन में अहम भूमिका निभाई। कालांतर में कई दलों को मिलाकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जनता पार्टी के गठन में भी प्रभावी भूमिका निभाई। यह मिलीजुली सरकारें चलाने का पूर्वाभ्यास था, जो उनके प्रधानमंत्री बनने पर 1999 से 2004 तक काम आया, जब उन्होंने 19 दलों की गठबंधन वाली एनडीए सरकार चलाई।
लखनऊ का मुस्लिम समाज उनका प्रशंसक तो था ही, देश और दुनिया ने उनकी सहिष्णुता को हमेशा सराहा। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जब अटल जी विदेश मंत्री बने तो उन्होंने हज यात्रा की सब्सिडी बढ़ाई, पाकिस्तान के लिए पहली बार वीज़ा सुविधा उपलब्ध कराई, लाहौर के लिए बस सेवा आरंभ की और स्वयं भी गए। भारत-पाक रिश्तों की बहुत-सी बर्फ पिघला दी।
अटल जी की पहचान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में ही रही और वे संसद में कभी संघ की आलोचना सहन नहीं करते थे, फिर भी अनेक बार उनका सोच संघ से अलग रहता था। उन्होंने 1977 में एक लेख में लिखा था कि संघ की शाखाओं पर मुसलमानों को आने की अनुमति होनी चाहिए। अपने को सेक्युलर के रूप में कभी पेश नहीं किया, परंतु उनके विरोधी भी उनके सर्वधर्म-समभाव की सोच की सराहना करते हैं।
बांग्लादेश बनने के बाद संसद में अटल जी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा का रूप कहा था या नहीं, यह बहस का विषय हो सकता है, परंतु अपने विरोधियों के अच्छे कार्यों की सराहना और अपनी भूलों को मज़ाकिया अंदाज़ में स्वीकार करना उनकी पहचान रही। जब 1979 में जनता पार्टी बनाने का प्रयोग विफल हुआ तो उनका बेबाक बयान था - “दीप बुझाकर एक मशाल जलाई थी, जिसमें रोशनी कम और धुआँ ज़्यादा है।” दीपक चुनाव-चिह्न था जनसंघ का और मशाल जनता पार्टी की।
जब 1980 में जनता पार्टी टूट गई तो अटल जी ने बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाना चाहा था, लेकिन जनता पार्टी की पराजय हो गई और इंदिरा गांधी फिर से शासन में लौट आईं। तब अटल जी ने कहा था- “शायद हमारा देश पिछड़े वर्ग का प्रधानमंत्री स्वीकार करने को तैयार नहीं है।”
अटल जी ने भारतीय जनसंघ को पुनर्जीवित करने के बजाय नए नाम और नए संविधान के साथ भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। आर्थिक परिकल्पना के रूप में उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के बजाय गांधीवादी समाजवाद को तरजीह दी। बहुतों को आश्चर्य और कष्ट हुआ था और विजय राजे सिंधिया ने खुलकर असहमति जताई थी, क्योंकि वे चाहती थीं कि भारतीय जनसंघ को पुनर्जीवित किया जाए।
वे अपने को पार्टी अनुशासन से बंधा मानते रहे और असहमति को अपने ही अंदाज़ में व्यक्त करते थे। जब कुछ लोगों ने कहा- अब अटल जी थक चुके हैं- तो उन्होंने कहा था, “मैं न तो टायर्ड हूँ और न रिटायर्ड।”
रामजन्मभूमि आंदोलन की आलोचना नहीं की, लेकिन उसमें सक्रिय रूप से काम भी नहीं किया। जनता पार्टी के विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ में दिया गया उनका हिंदी भाषण ऐतिहासिक अवश्य है, परंतु प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने कभी अंग्रेज़ी का विरोध नहीं किया। उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच सामंजस्य बनाया। वे अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने कहा था कि अगला प्रधानमंत्री दक्षिण भारत से होना चाहिए—और संयोग से नरसिंह राव अगले प्रधानमंत्री बने भी।
अटल जी के प्रशंसकों और समर्थकों को कई साल पहले लगा कि अटल जी को भारत रत्न न देकर पिछली सरकारों ने अन्याय किया है। अनावश्यक विवाद भी छिड़ गया। शुभचिंतकों को समझना होगा कि जब किसी उपाधि को लेकर उसे देने वालों और पाने वाले पर तर्क-वितर्क होने लगे, तो अटल जी जैसे व्यक्तित्व को ऐसे सम्मान का मोहताज नहीं दिखना चाहिए। वे कभी दिखे भी नहीं।
अटल जी का व्यक्तित्व ऐसा था जिसने राजनेता के रूप में तात्कालिक लाभ के लिए कभी काम नहीं किया। खैरात नहीं बाँटी, बल्कि देश के लिए दूरगामी परिणामों की चिंता की। प्रधानमंत्री के रूप में सन 2000 में देश का मूल ढाँचा मजबूत करने के लिए कई कार्यक्रम आरंभ कराए- जैसे नदियों को जोड़ने की योजना, राजमार्गों का स्वर्णिम चतुर्भुज, ग्रामीण निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, सर्वशिक्षा अभियान आदि।
वे अपने पड़ोसी देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध चाहते थे। इसके लिए उन्होंने पाकिस्तान के लोगों को वीज़ा देने की स्वीकृति दी, मुस्लिम समाज के लिए हज यात्रियों की संख्या बढ़ाई और किराए में सुविधाएँ दीं, भारत-पाक बस सेवा शुरू कराई और स्वयं बस से लाहौर गए। एक निर्णय देशहित के विपरीत चला गया जब नेपाल से आए विमान में मौजूद आतंकवादियों को छोड़ना पड़ा। संभव है इसमें सरकार के सहयोगियों का योगदान रहा हो। इसके अलावा विदेश नीति के मामले में उन्होंने कभी समझौता नहीं किया।
मोदी सरकार को राजधर्म निभाने की सलाह भी दी थी। कहते हैं, मोदी जी ने कहा था- “वही तो कर रहा हूँ।” परंतु अटल जी ने अपनी सलाह को कभी प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाया। अनेक बार उन्होंने एक अच्छे कवि की तरह समस्या को उभारा, लोगों को उसका एहसास कराया, परंतु कठोर प्रशासक की तरह उसका समाधान नहीं किया। एक बार लखनऊ में विरोध-प्रदर्शन के लिए पार्टीजनों के साथ विधानसभा जा रहे थे और पुलिस ने रोका, तो वहीं धरने पर बैठ गए।
अटल जी को किसी पद से मोह नहीं था और उनका त्यागपत्र हमेशा तैयार रहता था। जयपुर अधिवेशन में उन्होंने त्यागपत्र देकर साहित्य-सेवा की इच्छा प्रकट की थी, जिसे संगठन ने स्वीकार नहीं किया। वास्तव में अटल जी को एक राजनेता या कूटनीतिज्ञ के रूप में देखने के बजाय एक राष्ट्रपुरुष के रूप में देखना चाहिए।
प्रत्येक भारतीय की कामना है कि वे एक बार फिर अपने उसी पुराने अंदाज़ में भाषण दें और हम सुनें। अब यह असंभव है।
हर साल की तरह इस वर्ष भी सारे देश में अटल जी का 100वाँ जन्मदिन 25 दिसम्बर को मनाया जा रहा है। हम सभी उनके संस्कारों और विचारों को अमर बनाने का प्रयत्न करें। संयोग है कि इसी दिन ईसा मसीह का जन्मदिन भी मनाया जाता है, जिन्हें ईसाई लोग ईश्वर का पुत्र मानते हैं और जो हम सबके लिए दया, क्षमा और मानवता की प्रतिमूर्ति थे। जिसे हम ‘बड़ा दिन’ के नाम से मनाते हैं। सचमुच यह बड़ा दिन है।
अटल जी अपने छात्र जीवन में स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के सदस्य रहे थे, जो कम्युनिस्ट पार्टी की छात्र इकाई थी। बाद के दिनों में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने। इस प्रकार उनके जीवन पर सनातन मूल्यों का प्रभाव था और समता तथा समानता का भी असर था। वे एक आदर्श थे तथा उनके पक्षधर और विरोधी-सभी उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते थे।
मुझे याद है वह ज़माना जब 1957 में अटल जी लखनऊ से सांसद का चुनाव लड़ रहे थे। उनका मुकाबला कांग्रेस के पुलिन बिहारी बनर्जी से था। मैं राजकीय जुबिली इंटर कॉलेज में हाईस्कूल का छात्र था और राजा बाज़ार में रहता था। गाँव की पृष्ठभूमि से आने के कारण राजनेताओं की न कोई जानकारी थी और न राजनीति में कोई रुचि। संघर्षमय छात्र जीवन में इसके लिए मेरे पास समय भी नहीं था।
राजा बाज़ार उन दिनों भारतीय जनसंघ का गढ़ था और अटल जी जनसंघ के जाने-माने नेता थे। लोगों का जोश देखते ही बनता था जब वे बुलंद आवाज़ में कहते थे-“अटल हमारा अटल रहेगा, इसलिए तो जीतेगा।”
मैंने पहली बार अटल जी का भाषण सुना था और शायद पहली बार ही किसी नेता को। उसके बाद तो जब कभी मौका मिलता था, मैं उन्हें सुनने जाता था।<br>
मैं उन दिनों अपने कॉलेज की तरफ़ से डिबेट प्रतियोगिताओं में भाग लेने जाया करता था। शायद इसीलिए मोहल्ले के एक तिकोने पार्क की तरफ खिंचा चला गया था, जहाँ अटल जी का भाषण हो रहा था। मैंने पहली बार अटल जी का भाषण सुना था और शायद पहली बार ही किसी नेता को। उसके बाद तो जब कभी मौका मिलता था, मैं उन्हें सुनने जाता था।
स्टेज पर ध्यान गया तो देखा- एक सुगठित बदन का ओजस्वी व्यक्ति बोल रहा था। सफ़ेद धोती-कुर्ता, हवा में फड़कता दाहिना हाथ और वाक्यों के बीच में लंबा विराम- यह उनकी चिर-परिचित शैली रही। बाद में चुनाव परिणाम का समाचार मिला कि अटल जी हार गए। मुझे राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं था, फिर भी बुरा लगा था। उनके भाषण की शैली बहुत आकर्षक थी।
मैं अनेक बार अटल जी को प्रत्यक्ष और रेडियो पर सुना करता था और आवाज़ सुनाई पड़ते ही पैर ठिठक जाते थे। एक बार साठ के दशक में गंगा प्रसाद मेमोरियल हॉल में उनकी मीटिंग थी। 1962 में उन्होंने अपनी बुलंद आवाज़ में कहा था कि चीन जो भाषा समझता है, उसी में हमें बात करनी चाहिए थी। इसका आशय यह था कि ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ से हटकर युद्ध के नियमों का पालन करते हुए वायुसेना का प्रयोग करना चाहिए था।
देश के प्रधानमंत्री अटल जी के संसदीय भाषणों से प्रभावित रहते थे और कहते हैं कि उन्होंने एक बार कहा भी था- “एक दिन अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बनेंगे,” भले ही अटल जी सरकार के प्रखर आलोचक रहते थे।
गांधी जी की हत्या के बाद संसद में संघ का पक्ष रखने वाला कोई नहीं था। अटल जी संसद में कभी संघ की अनुचित आलोचना सहन नहीं करते थे, फिर भी अनेक बार उनका सोच संघ से अलग रहता था।
चीन तथा 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध हो चुके थे और दोनों युद्धों के परिणाम सबके सामने थे।
जब 1971 में पाकिस्तान के साथ भारत का तनाव बढ़ा, तब श्रीमती इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं और उन्होंने पश्चिमी देशों के सामने भारतीय पक्ष रखने के लिए अटल जी को भेजा था। यह सरकार का एक विरोधी दल के नेता पर विश्वास का प्रमाण था। लंबे समय के बाद ऐसा ही विश्वास वर्तमान प्रधानमंत्री ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद विपक्षी दलों पर जताया है।
बाद के वर्षों में अटल जी लखनऊ की लोकसभा सीट से आजीवन चुनाव लड़ते और जीतते रहे।
एक लंबे समय बाद अटल जी मेरे खेत की मंड पर आए थे- नब्बे के दशक में, हमारे भारतीय ग्रामीण विद्यालय के ठीक बगल में। तब वे लखनऊ के सांसद थे। पीडब्ल्यूडी और भाजपा के लोगों ने उनके हाथों एक सड़क का उद्घाटन कराया और शिलापट भी लगवाया था। मुझे सूचना देर से मिली, इसलिए उपस्थित नहीं था। लेकिन किसी ने फोन करके पूछा था कि भारतीय ग्रामीण विद्यालय के बच्चों को स्वागत में खड़ा कर दें? मैंने सहर्ष हाँ कहा था और स्कूल के सभी बच्चे व अध्यापक खड़े हुए थे।
भारतीय जनसंघ की मूल विचारधारा थी- हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान। लेकिन अटल जी ने इसका तीखापन घटाया और 1967 में परस्पर विरोधी दलों के साथ मिलकर काम करने की संस्कृति विकसित की।
मैं नहीं समझता कि अटल जी को नकली भीड़ की दरकार थी, परंतु मुझे आज तक इस बात का मलाल है कि आयोजकों ने गाँव-जवार को सूचित करने का शिष्टाचार भी नहीं दिखाया था, जबकि हमारा स्कूल और सड़क उनके चुनाव क्षेत्र में आते थे।
इसे संयोग ही कहेंगे कि ईसा मसीह को सूली पर चढ़ना पड़ा था और अटल जी अपने अंतिम दिनों में शय्या पर वर्षों लेटे रहे। भले ही इन दोनों की तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन अटल जी में कुछ तो ऐसा था जिसके कारण सारा देश उन्हें निर्विवाद रूप से सम्मान की नज़रों से देखता है। उनकी विशेषता थी- सीधी-सपाट बात और वाणी का ओज, परंतु सबसे विशेष था निष्छल स्वभाव और निर्भीक अभिव्यक्ति।
अटल जी राजनीति-शास्त्र के छात्र थे और कानपुर के डी.ए.वी. कॉलेज में पढ़ते थे। यह बात मैंने साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ में पढ़ी थी, जिसे शायद धर्मवीर भारती ने ‘झाड़े रहो कलेक्टरगंज’ शीर्षक से लिखा था। शायद कलेक्टरगंज में ही पिता-पुत्र छात्र जीवन में रहते थे। गंभीर से गंभीर बात के लिए हाज़िर-जवाब रहते थे।
जब उनसे किसी ने पूछा-आपकी जन्म-कुंडली क्या कहती है? तो उनका उत्तर था-“मैं कर्म-कुंडली में विश्वास करता हूँ।”
एक बार किसी ने पूछा-जब संघ से आपकी नहीं बनती तो छोड़ क्यों नहीं देते? तो उत्तर था- “कंबल नहीं छोड़ता।” शायद विचारधारा की तुलना कंबल से की थी।
जब संसद में अटल जी बोलते थे तो सभी उन्हें ध्यान से सुनते थे। एक बार किसी सांसद ने कहा- अटल जी, आप बोलते समय हाथ बहुत चलाते हैं। जवाब मिला- “मैंने किसी को भाषण में पैर चलाते नहीं देखा।”
एक दिन अटल जी हाथ बाँधकर बोल रहे थे तो इंदिरा गांधी ने कहा- आज आप हाथ नहीं चला रहे हैं। उत्तर था- “जब हाथ चलाता हूँ तो आपको हिटलर नज़र आता हूँ।” सभी हँस पड़े थे।
इंदिरा जी ने अटल जी को प्रतिनिधि बनाकर कई देशों में भेजा था- बांग्लादेश की लड़ाई के समय।
जब उनकी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता बलराज मधोक ने 1970 के दशक में अपनी पुस्तक इंडियनाइज़ेशन ऑफ मुस्लिम्स यानी ‘मुसलमानों का भारतीयकरण’ लिखी, तो अटल जी बहुत अप्रसन्न हुए थे। स्वाभाविक है, बलराज मधोक का नज़रिया अलग था। भले ही अटल जी इस सोच को सहन नहीं कर सके, फिर भी उनके जीवन का मूलमंत्र रहा- “हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा।” अंततः बलराज मधोक को जनसंघ से अलग होना पड़ा।
भारतीय जनसंघ की मूल विचारधारा थी- हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान। लेकिन अटल जी ने इसका तीखापन घटाया और 1967 में परस्पर विरोधी दलों के साथ मिलकर काम करने की संस्कृति विकसित की। नानाजी देशमुख और राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में संयुक्त विधायक दल की सरकार के गठन में अहम भूमिका निभाई। कालांतर में कई दलों को मिलाकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जनता पार्टी के गठन में भी प्रभावी भूमिका निभाई। यह मिलीजुली सरकारें चलाने का पूर्वाभ्यास था, जो उनके प्रधानमंत्री बनने पर 1999 से 2004 तक काम आया, जब उन्होंने 19 दलों की गठबंधन वाली एनडीए सरकार चलाई।
लखनऊ का मुस्लिम समाज उनका प्रशंसक तो था ही, देश और दुनिया ने उनकी सहिष्णुता को हमेशा सराहा। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जब अटल जी विदेश मंत्री बने तो उन्होंने हज यात्रा की सब्सिडी बढ़ाई, पाकिस्तान के लिए पहली बार वीज़ा सुविधा उपलब्ध कराई, लाहौर के लिए बस सेवा आरंभ की और स्वयं भी गए। भारत-पाक रिश्तों की बहुत-सी बर्फ पिघला दी।
अटल जी की पहचान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में ही रही और वे संसद में कभी संघ की आलोचना सहन नहीं करते थे, फिर भी अनेक बार उनका सोच संघ से अलग रहता था। उन्होंने 1977 में एक लेख में लिखा था कि संघ की शाखाओं पर मुसलमानों को आने की अनुमति होनी चाहिए। अपने को सेक्युलर के रूप में कभी पेश नहीं किया, परंतु उनके विरोधी भी उनके सर्वधर्म-समभाव की सोच की सराहना करते हैं।
बांग्लादेश बनने के बाद संसद में अटल जी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा का रूप कहा था या नहीं, यह बहस का विषय हो सकता है, परंतु अपने विरोधियों के अच्छे कार्यों की सराहना और अपनी भूलों को मज़ाकिया अंदाज़ में स्वीकार करना उनकी पहचान रही। जब 1979 में जनता पार्टी बनाने का प्रयोग विफल हुआ तो उनका बेबाक बयान था - “दीप बुझाकर एक मशाल जलाई थी, जिसमें रोशनी कम और धुआँ ज़्यादा है।” दीपक चुनाव-चिह्न था जनसंघ का और मशाल जनता पार्टी की।
जब 1980 में जनता पार्टी टूट गई तो अटल जी ने बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाना चाहा था, लेकिन जनता पार्टी की पराजय हो गई और इंदिरा गांधी फिर से शासन में लौट आईं। तब अटल जी ने कहा था- “शायद हमारा देश पिछड़े वर्ग का प्रधानमंत्री स्वीकार करने को तैयार नहीं है।”
अटल जी ने भारतीय जनसंघ को पुनर्जीवित करने के बजाय नए नाम और नए संविधान के साथ भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। आर्थिक परिकल्पना के रूप में उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के बजाय गांधीवादी समाजवाद को तरजीह दी। बहुतों को आश्चर्य और कष्ट हुआ था और विजय राजे सिंधिया ने खुलकर असहमति जताई थी, क्योंकि वे चाहती थीं कि भारतीय जनसंघ को पुनर्जीवित किया जाए।
वे अपने को पार्टी अनुशासन से बंधा मानते रहे और असहमति को अपने ही अंदाज़ में व्यक्त करते थे। जब कुछ लोगों ने कहा- अब अटल जी थक चुके हैं- तो उन्होंने कहा था, “मैं न तो टायर्ड हूँ और न रिटायर्ड।”
रामजन्मभूमि आंदोलन की आलोचना नहीं की, लेकिन उसमें सक्रिय रूप से काम भी नहीं किया। जनता पार्टी के विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ में दिया गया उनका हिंदी भाषण ऐतिहासिक अवश्य है, परंतु प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने कभी अंग्रेज़ी का विरोध नहीं किया। उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच सामंजस्य बनाया। वे अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने कहा था कि अगला प्रधानमंत्री दक्षिण भारत से होना चाहिए—और संयोग से नरसिंह राव अगले प्रधानमंत्री बने भी।
अटल जी के प्रशंसकों और समर्थकों को कई साल पहले लगा कि अटल जी को भारत रत्न न देकर पिछली सरकारों ने अन्याय किया है। अनावश्यक विवाद भी छिड़ गया। शुभचिंतकों को समझना होगा कि जब किसी उपाधि को लेकर उसे देने वालों और पाने वाले पर तर्क-वितर्क होने लगे, तो अटल जी जैसे व्यक्तित्व को ऐसे सम्मान का मोहताज नहीं दिखना चाहिए। वे कभी दिखे भी नहीं।
अटल जी का व्यक्तित्व ऐसा था जिसने राजनेता के रूप में तात्कालिक लाभ के लिए कभी काम नहीं किया। खैरात नहीं बाँटी, बल्कि देश के लिए दूरगामी परिणामों की चिंता की। प्रधानमंत्री के रूप में सन 2000 में देश का मूल ढाँचा मजबूत करने के लिए कई कार्यक्रम आरंभ कराए- जैसे नदियों को जोड़ने की योजना, राजमार्गों का स्वर्णिम चतुर्भुज, ग्रामीण निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, सर्वशिक्षा अभियान आदि।
वे अपने पड़ोसी देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध चाहते थे। इसके लिए उन्होंने पाकिस्तान के लोगों को वीज़ा देने की स्वीकृति दी, मुस्लिम समाज के लिए हज यात्रियों की संख्या बढ़ाई और किराए में सुविधाएँ दीं, भारत-पाक बस सेवा शुरू कराई और स्वयं बस से लाहौर गए। एक निर्णय देशहित के विपरीत चला गया जब नेपाल से आए विमान में मौजूद आतंकवादियों को छोड़ना पड़ा। संभव है इसमें सरकार के सहयोगियों का योगदान रहा हो। इसके अलावा विदेश नीति के मामले में उन्होंने कभी समझौता नहीं किया।
मोदी सरकार को राजधर्म निभाने की सलाह भी दी थी। कहते हैं, मोदी जी ने कहा था- “वही तो कर रहा हूँ।” परंतु अटल जी ने अपनी सलाह को कभी प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाया। अनेक बार उन्होंने एक अच्छे कवि की तरह समस्या को उभारा, लोगों को उसका एहसास कराया, परंतु कठोर प्रशासक की तरह उसका समाधान नहीं किया। एक बार लखनऊ में विरोध-प्रदर्शन के लिए पार्टीजनों के साथ विधानसभा जा रहे थे और पुलिस ने रोका, तो वहीं धरने पर बैठ गए।
अटल जी को किसी पद से मोह नहीं था और उनका त्यागपत्र हमेशा तैयार रहता था। जयपुर अधिवेशन में उन्होंने त्यागपत्र देकर साहित्य-सेवा की इच्छा प्रकट की थी, जिसे संगठन ने स्वीकार नहीं किया। वास्तव में अटल जी को एक राजनेता या कूटनीतिज्ञ के रूप में देखने के बजाय एक राष्ट्रपुरुष के रूप में देखना चाहिए।
प्रत्येक भारतीय की कामना है कि वे एक बार फिर अपने उसी पुराने अंदाज़ में भाषण दें और हम सुनें। अब यह असंभव है।