वैध मुद्रा के अवैध बनने के हासिल?

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वैध मुद्रा के अवैध बनने के हासिल?प्रधानमंत्री की घोषणा से तो यही प्रतीत होता है कि अब ‘आइ प्रॉमिस टू पे....’ का अर्थ स्वयं ही ‘आइ डू नॉट प्रॉमिस टु पे.....’ हो गया है?

डॉ. रहीस सिंह

आइ प्रॉमिस टू पे द बियरर द सम ऑफ फाइव हंड्रेड रुपीज’ यानि मैं धारक को पांच सौ रुपए अदा करने का वचन देता हूं। एक हजार के नोट पर भी यही बचनबद्धता भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर द्वारा हस्ताक्षरित विलेख के रूप में अंकित है। 8 नवम्बर की रात्रि को प्रधानमंत्री ने अकस्मात यह घोषणा कर दी कि 500 और 1000 रुपए के नोट आज रात्रि 12 बजे से ‘लीगल टेंडर’ यानि वैध मुद्रा नहीं रह जाएंगे जबकि नोट पर यह विलेख अभी भी अंकित है कि ‘मैं धारक को हजार रुपए या पांच सौ रुपए अदा करने का वचन देता हूं.....।’ तब यह सवाल उठता है कि यह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर की तरफ की गई वचनबद्धता के उल्लंघन या फिर विलेख को प्रधानमंत्री द्वारा खारिज करना, कानून की दृष्टि में उचित है?

प्रधानमंत्री की घोषणा से तो यही प्रतीत होता है कि अब ‘आइ प्रॉमिस टू पे....’ का अर्थ स्वयं ही ‘आइ डू नॉट प्रॉमिस टु पे.....’ हो गया है? इस परिवर्तन के उद्देश्य अच्छे हो सकते हैं, इसमें संशय नहीं है लेकिन हस्ताक्षरित विलेख को खारिज करना या उससे मुकरना क्या विधिशास्त्र की दृष्टि से गलत नहीं है? हम यह मान लेते हैं कि भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए ऐसे ऑपरेशंस जरूरी हैं, लेकिन यह कैसे मान लिया जाए कि अवैध या काली मुद्रा स्वयं में एक संस्था है? हमारी समझ से इसकी जननी संस्था या तकनीकी शब्दावली में कहें तो बायोलॉजिकल मातृत्व भ्रष्टाचार के पास है जिसका अभ्युदय इस देश की राजनीति और नौकरशाही से हुआ है। तो क्या इस देश का कोई भी राजनीति दल यह दावा करेगा कि उसने वैध मुद्रा के सहारे ही चुनाव लड़ा था? यदि हां तो उसे अपने स्रोत जाहिर कर देने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए और सरकार को भी इसी उद्वेग के साथ यह घोषणा कर देनी चाहिए कि आज रात्रि 12 बजे से सभी दल ‘सूचना के अधिकार कानून’ के दायरे में आ जाएंगे। हम दावे के साथ कह सकते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री यह नहीं कर पाएंगे? फिर आधे सच को पूरा फसाना बताना कहां तक उचित है?

अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए सम्पन्न चुनावों में जब ट्रम्प विजयी घोषित हुए तो शायद अमेरिका का एक बड़ा वर्ग सदमे आ गया। उस समय एक वरिष्ठ स्तम्भकार ने न्यूयॉर्क टाइम्स में की गई अपनी तात्कालिक टिप्पणी का निष्कर्ष कुछ इन शब्दों में दिया, ‘थैंक्स टू ए क्रूड जीनियस दैट आइडेंटिफाइड ऑल द वीक स्पॉट्स...।’ इस प्रकार की विशेषज्ञता हमारे समाज या फिर सम्पूर्ण देश में बहुत तेजी से बढ़ी है। अधकचरा जीनियसपन वास्तव में हमारी मानसिकता, हमारी व्यवस्था, हमारी संभावना के तमाम वीक स्पॉट्स को हमारे सामने ला रही है, जिन्हें हम एक उलटी तस्वीर यानि ‘इंडिया शाइन’ के रूप में देखकर आहलादित हो रहे हैं। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि माननीय प्रधानमंत्री के द्वारा उठाए गए कदम को गलत मानता हूं। उनका कदम अपनी जगह पर बिल्कुल सही है लेकिन उनके इस कदम की जो अधकचरी और अपूर्ण व्याख्याएं हो रही हैं, उनसे सहमत होना मुश्किल हो रहा है।

एक अध्ययन के अनुसार देश में कालेधन की मात्रा करीब 30 लाख करोड़ रुपए है जिसमें से 17 लाख करोड़ का कालाधन कैशमनी के रूप में है और शेष बुलियन अथवा प्रॉपर्टी/रियल स्टेट के रूप में। देश में प्रतिदिन करीब 80 प्रतिशत ट्रांजैक्शन कैशमनी में होता है जिसमें वित्त मंत्री के वक्तव्य के अनुसार 500 और 1000 के लगभग 86 प्रतिशत नोट शामिल हैं। फेक करेंसी में इन्हीं नोटों का बहुत बड़ा या 100 प्रतिशत हिस्सा है इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक झटके में इस 86.4 प्रतिशत कैशमनी को अर्थव्यवस्था से बाहर कर दिया। यानि सरकार की दावेदारी अथवा सरकारी अर्थशास्त्रियों की बात मानें तो उन्होंने इस कैशमनी को बाहर कर अर्थव्यवस्था को साफ-सुथरा बना दिया। अब सिर्फ सफेद मुद्रा शेष रह गई इसलिए अर्थव्यवस्था बिना किसी दबाव के काम करेगी और सरकारें भ्रष्टाचार से मुक्त होकर। कुछ अर्थशास्त्री यह भी मानते हैं कि प्रारम्भिक परेशानी के बाद देश को इस परिवर्तन से बहुत लाभ होगा। भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी। ब्लैकमनी व्हाइट हो जाएगी या फिर बेकार। इसके बाद दाम इतने घट जाएंगे के कि इस देश का सामान्य आदमी भी घर खरीदने में समर्थ हो जाएगा और उसे जिंदगी के वे संसाधन उपलब्ध होने लगेंगे जिन्हें अब धनी लोग प्राप्त कर रहे थे।

प्रधानमंत्री के इस कदम से यह भी संभावना बन रही है कि सरकार को एक लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त टैक्स मिल जाए, लेकिन परिणाम से पहले इस संदर्भ में कुछ कहना उचित नहीं लगता। इसके कुछ स्याह पक्ष हैं जिन्हें देखने की जरूरत होगी। सबसे पहली बात तो यह है कि इस कदम से भ्रष्ट लोगों के पास जो काला धन है, भारत सरकार ने इसके जरिए उसे रिकवर कर देश के लोगों को सौंपा नहीं है बल्कि उसे खत्म करने की कोशिश की है। इसलिए इसका आम जनता को कोई लाभ नहीं होगा। दूसरा यह कि भारत की बाजार अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता बाजार में यह मांग बनाए रखने का काम करता था, जो अब कम होगा जिसका असर छोटे रोजगारों पर पड़ेगा। सरकार ने इस पहलू को बिल्कुल नहीं देखा और न ही उसके विकल्प प्रस्तुत किए। तीसरा यह कि भारतीय छोटा खुदरा व्यापारी अपने कारोबार में बैंकिंग का प्रयोग बेहद कम करता है इसलिए खुदरा व्यापार इससे बहुत अधिक प्रभावित है।

इस देश में गृहणियों या उपयोगितावादी मध्यवर्गीय परिवार के लोगों द्वारा अपनी वैध आय के छोटे-छोटे हिस्सों को नियमित रूप से बचाने की प्रवृत्ति होती है। इन बचतों का एक पक्ष यह है कि अमेरिका में वित्तीय संकट आया और उनकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ाई तब भी भारत उसके झटके को सहने में समर्थ रहा तो सिर्फ इसलिए क्योंकि इस देश में लोगों के पास घरेलू बचतें पर्याप्त मात्रा में थीं। मितव्ययिता और बचत की परम्परावाले इस देश में एक ही झटके में देश के लाखों घरों के पिगीबैंक टूट कर जमीन पर आ गए। एक और बात है कि जिनके बैंक-अकाउंट हैं, जायज पैसा है और कोई परिचय पत्र है वह तो आसानी से बैंक से नई मुद्रा बदल सकेंगे लेकिन समस्या उन गरीब महिलाओं, दिहाड़ी मजदूरों और रोज पेट काटकर पैसे बचाने वालों मजदूरों की है जिनके पास न बैंक अकाउंट है और न ही कोई पहचान पत्र। उनकी जीवन भर की जमा पूंजी कैसे बचेगी?

जो भी हो 1970 के दशक में मोरारजी देसाई की सरकार ने भी बड़े नोटों को बंद करने की प्रक्रिया अपनायी थी। लोग खासी तकलीफ में फंसे भी थे, लेकिन क्या अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था से गंदगी साफ हुयी थी? कुछेक समय के बाद इस प्रकार की दोनों गंदगियां साफ होनी चाहिए लेकिन क्या वास्तव में सरकारें इन्हें साफ करने की ईमानदार मंशा रखती हैं? बल्कि 1980 के बाद से राजनीति में भ्रष्टाचार के मीटर काफी तेज हुए और सरकारों पर भी भ्रष्टाचार में संलिप्त होने के आरोप लगने लगे। राजनीतिक भ्रष्टाचार ने राजनीति का क्रिमनलाइजेशन किया और नौकरशाही का पॉलिटीसाइजेशन। इस (पॉलिटिक्स, ब्यूरोक्रेसी, करप्शन यानि पीबीसी) त्रिकोण ने पूरे सिस्टम को पहले प्रदूषित किया और फिर ध्वंस के करीब पहुंचा दिया। ब्लैक मनी इसी के बाइप्रॉडक्स में से एक है। तो क्या प्रधानमंत्री अब इस त्रिकोण को खत्म करने के लिए मास्टर स्ट्रोक इस्तेमाल भी करेंगे?

(लेखक राजनीतिक व आर्थिक विषयों के जानकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

    

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