बिहार चुनाव को किस नजरिये से देख रहे हैं शेखर गुप्ता

शेखर गुप्ता | Sep 16, 2016, 16:00 IST

जाति और राजनीति के एक-दूसरे पर पडऩे वाले प्रभाव पर भारत और अन्य देशों में अनेक पीएचडी हो चुकी हैं। इस विषय पर जि़ंदगीभर अध्ययन करने वाले विद्वानों ने इसका विश्लेषण किया है। हालांकि मैं राजनीति में जाति के विषय पर बात किसी विद्वान की तरह नहीं बल्कि एक राजनैतिक संवाददाता की तरह करता हूँ। 'राष्ट्रहित' स्तंभ के इस अंक के लिए उत्तरी बिहार के मुजफ्फरपुर से बेहतर कोई और जगह हो ही नहीं सकती। मैं यहां सप्ताह भर की चुनावी यात्रा कर रहा हूं और दीवारों पर छपी लिखाईयों को देख सकता हूं। बिहार में चुनाव कवर करते वक्त आपको 'जाति' शब्द एक घंटे में छह दफा सुनने को मिलता है। अन्य राज्यों में इसकी आवृत्ति कम हो सकती है लेकिन यह आपकी बातचीत से गायब कतई नहीं होता। हां पश्चिम बंगाल और कुछ हद तक असम में यह आपको सुनने को न मिले शायद।

जाति आधारित राजनीति को समझने के लिए चुनाव से बेहतर कोई जगह नहीं। वर्ष 1980 के लोकसभा चुनाव में जब मैं हरियाणा के कुरुक्षेत्र लोकसभा क्षेत्र को कवर कर रहा था तो उस वक्त चकित रह गया था जब अनुसूचित जाति (तब दलित शब्द का चलन नहीं था) के आईपीएस अधिकारी, जिला पुलिस प्रमुख, जो कि भजनलाल के वफादार थे, ने एक नोट पैड पर पाई चार्ट जैसा कुछ बनाया और जातियों का ब्योरा पेश करते हुए बताया कि उनमें से कौन किसे वोट दे सकता है। अंतत उन्होंने कहा कि संतुलन को इधर-उधर करने की क्षमता अनुसूचित जाति के हाथ में रहेगी, जिसमें से दो तिहाई 'हमारी' जाति (उनकी और बाबू जगजीवन राम की) के हैं।


उस वक्त भजनलाल और जगजीवन राम साथ थे, हालांकि बाद में उन्होंने बड़े पैमाने पर दलबदल का अभूतपूर्व कारनामा किया था। मैंने उनसे पूछा कि बाकी अनुसूचित जाति के लोग कौन है? पुलिस प्रमुख ने जवाब दिया, 'ओह! बाकी सब निचली जाति के हैं।' मुझे लगा कि क्या इनका माथा फिर गया है जो जाति के बारे में इस अंदाज में बात कर रहे हैं? इसके बाद आने वाले वाले वर्षों में ऐसे दो और अवसर आए। साल 1983 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में लंबी हड़ताल कवर करते वक्त मुझे एक प्रोफेसर की बातों से पता चला कि कैसे विश्वविद्यालय की राजनीति पूरी तरह जाति के आधार पर तय थी : ब्राह्मïण, ठाकुर, भूमिहर, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बिहार। परंतु जाति का महत्व 80 के दशक के आखिर में राजीव गांधी और कांग्रेस के प्रभाव के साथ स्पष्टï होने लगा। कांशी राम ने अपने अद्र्घराजनैतिक संगठन डीएस-4 को बहुजन समाज पार्टी में बदल दिया और इलाहाबाद के उस अहम चुनाव में वह तीसरे स्थान पर रहे जो विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गांधी मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के बाद संसद में वापसी के लिए लड़ा था।


अमिताभ बच्चन के पीछे हट जाने के बाद कांग्रेस ने लाल बहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री को चुनाव लड़वाया। कांशी राम 'वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगाके नारे के साथ मैदान में उतरे थे। हममें से कुछ चकित हुए कि वह आखिर क्या कह रहे हैं? उनको मिले मतों की संख्या ने चकित भी किया। वह सम्मानजनक तीसरे स्थान पर रहे। अगले तीन सालों में जाति की ताकत उभरकर तब सामने आई जब वीपी सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की। सवर्णों ने इसका विरोध किया और लालू और मुलायम का तीसरे मोर्चे में उदय हुआ। एक तरह से देखा जाए तो मंडल और उसकी वजह से उभरी पिछड़ी जाति की शक्ति ने मंदिर आंदोलन के प्रभाव को थामने का काम भी किया। उसके बाद से हिंदी भाषी क्षेत्र की राजनीति को मंडल बनाम कमंडल के रूप में ही समझा गया।

बिहार में लालू चुनावी राजनीति को इसी धुरी पर ला रहे हैं जबकि सुशील मोदी कह रहे हैं कि मंडल और कमंडल दोनों उनके साथ हैं। चौथाई सदी बाद, मंडल के बच्चे बिहार चुनाव में मुख्य भूमिका में हैं। उनकी (और जातीय राजनीति की भी) जीत इस तथ्य में निहित है कि उनको चुनौती देने वाले यानी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को भी उसी भाषा में बात करनी पड़ रही है। धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के मोर्चे पर मोदी अभी भी अपनी उसी लाइन पर अड़े हैं कि आप किस दुश्मन से लडऩा चाहते हैं, दूसरे धर्म से या गरीबी से? लेकिन अब वह मतदाताओं को लगातार यह भी याद दिला रहे हैं कि वह किस जाति से ताल्लुक रखते हैं। सुशील मोदी जैसे वरिष्ठï नेताओं समेत उनकी पार्टी के नेता तक, उन्हें अत्यंत पिछड़ा वर्ग का नेता बता रहे हैं।


जाति का महत्व इस बात से उजागर होता है कि उसने भाजपा की राजनीतिक और आरएसएस की विचारधारा के विरोधाभासों तक को सबके सामने कर दिया। आरएसएस में वर्ण की मान्यता है, हालांकि वह जाति को एक विभाजक शक्ति मानते हुए समीक्षा करने का भी इच्छुक हैं। जाति आधारित आरक्षण पर सवाल उठाने का उसका मूलभूत प्रश्न यहीं से उपजा है। वह जाति को हिंदू धर्म के भीतर विभाजनकारी शक्ति मानता है। वह सवर्णों को भी नहीं छोडऩा चाहता इसलिए वह मंडल की राजनीति से असहज है जो पुराने राजनीतिक पदानुक्रम को अस्थिर कर रहा है। यही वजह है कि वह आरक्षण की समीक्षा चाहता है भले ही इसकी कीमत भाजपा को बिहार चुनाव में चुकानी पड़े। उसका लक्ष्य पुराना है : जाति जिसे बांटती है उसे आस्था के सहारे एकजुट करना। मंडल की संतानें पुराने द्रमुक की तरह नास्तिक अथवा मूर्ति तोडऩे वाले नहीं हैं। लेकिन वे जाति के जरिए राजनीतिक पदक्रम को ध्वस्त करना चाहते हैं। यही वजह है कि पिछड़े/निम्र वर्ग की राजनीति आरएसएस के लिए इस कदर अभिशाप है, लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह को अपनी राजनीति पता है।


मैं यह कहने का जोखिम उठाता हूं कि आस्था के साथ छिड़ी लड़ाई में जाति की जीत हो रही है। भाजपा केंद्र में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है और वह देश में पहले के मुकाबले सर्वाधिक राज्यों में सत्तासीन है, उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस का निरंतर पराभव जारी है लेकिन इन सभी तथ्यों के बावजूद ऐसा हो रहा है। लेकिन प्रधानमंत्री अत्यंत पिछड़ा वर्ग से आते हैं और उनके लिए इस बात को बार-बार रेखांकित करना अहम है। उसके कुछ प्रमुख नेता जिनमें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शामिल हैं, पिछड़ा वर्ग से आते हैं। वर्ष 2014 में उसने दो बार जाति को धता बताया। पहले महाराष्टï्र में ब्राह्मïण मुख्यमंत्री बनाकर, तो दो बारा हरियाणा में दो दशक में पहली बार गैर जाट मुख्यमंत्री चुनकर। अब निकट भविष्य में यह दोहराये जाने की संभावना नहीं दिखती। बिहार में अगर भाजपा जीत भी जाती है तो भी पार्टी वहां तो जाति को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती, बिहार में तो दलित का नेता बनना तय है।


वर्ष 1989 में मंदिर आंदोलन के वक्त मिली गति के बाद भाजपा का उदय इसलिए हुआ क्योंकि उसने जाति की राजनीति को समझा और बदलती सामाजिक व्यवस्था को कांग्रेस की तुलना में तेजी से अंगीकृत किया। कांग्रेस निचली जाति से कोई बड़ा नेता तैयार करने में नाकाम रही। उत्तर प्रदेश और बिहार में भाजपा के पास कांग्रेस की तुलना में मजबूत पिछड़े नेता हैं। हाल के दशकों में कांग्रेस के सबसे महत्वपूर्ण ओबीसी नेता कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्घरमैया रहे जो देवेगौड़ा की पार्टी से कांग्रेस में आए हैं।


ऐसे में यह कहना सही होगा कि भाजपा नई हकीकतों को समझते हुए विकसित हुई है और उसने सवर्ण नेताओं को मजबूर किया है कि वे नए पिछड़े नेताओं के लिए रास्ता बनाएं। जबकि कांग्रेस ऐसा न कर पाने के कारण विफल रही। बिहार का चुनाव अभियान कुछ बदलावों की ओर इंगित करता है। इसने पहली बार हमें इस मुद्दे पर आरएसएस के भीतर मौजूद उतावलेपन का संकेत दिया। इसी तरह हमने इस चुनाव में कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष गठबंधन में तीसरा स्थान स्वीकार करते देखा। भाजपा की आंतरिक संदेहों से निपटने की शक्ति और कांग्रेस किस हद तक जाति आधारित वोट बैंक वाले दलों के साथ समायोजन करती है, यही हिंदी प्रदेश में राजनीति की दिशा तय करेगा। संघर्ष अभी भी सशक्तीकरण और हिंदुत्व की राजनीति के बीच तथा इस बात पर होगा कि कौन लोगों को बेहतर जोड़ अथवा बांट सकता है, आस्था या फिर जाति।


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