आबादी नियंत्रण के साथ बजट की राष्ट्रनीति ज़रूरी

Dr SB Misra | Jul 05, 2019, 16:05 IST

हमारी सरकार बजट पेश करके गदगद हो रही है कि हम 5 ट्रिलियन डॉलर वाले हो जाएंगे, लेकिन यदि आबादी इसी प्रकार बढ़ती रही तो देहाती भाषा में हर भारतीय के पास होगी एक अठन्नी।

हमारी सरकार बजट पेश करके गदगद हो रही है कि हम 5 ट्रिलियन डॉलर वाले हो जाएंगे, लेकिन यदि आबादी इसी प्रकार बढ़ती रही तो देहाती भाषा में हर भारतीय के पास होगी एक अठन्नी।

आबादी नियंत्रण के लिए न कोई प्रयास है न बजट प्रावधान। तेजी से बढ़ने वाली सुदूर ग्रामीण आबादी जो 70 प्रतिशत है, उसके लिए उद्योग लगाने अथवा रोजगार सृजन को बजट में कोई प्रोत्साहन नहीं। हमारा बजट कहने को आम बजट होता है, परन्तु वास्तव में मुट्ठी भर धन्नासेठों के लिए होता है। महत्व सात प्रतिशत बढने वाली जीडीपी का नहीं प्रति व्यक्ति आय का है।

मौजूदा कर प्रणाली में वेतन भोगी कर्मचारियों की आयकर गणना आसान है। परन्तु एक वकील, इंजीनियर, डॉक्टर, सोने-चांदी का व्यापारी, पुलिस अधिकारी अथवा एमपी, एमएलए या मंत्री जब फार्म हाउस बनाकर खेती की कमाई से करोड़ों रुपया दिखाता है तो उसे खेती की आय पर कोई टैक्स नहीं देना होता। जब खेती की आय को कर मुक्त किया गया था तब खेती अलाभकर थी, अब ऐसा नहीं है। इसी प्रकार की व्यवस्था डेयरी, पोल्ट्री, हार्टीकल्चर और मछली पालन में है। इन व्यवसायों में भी धनी लोगों का लाभ है और इनसे होने वाली आय भी टैक्स दायरे से बाहर है।

यह ठीक है कि खेती और अन्य व्यवसायों की आमदनी पर टैक्स लगाने में कुछ कठिनाइयां होंगीं जैसे अनिश्चित मौसम के प्रभाव। यह कठिनाई तो दुकानदारों और अन्य व्यापारियों पर भी लागू हो सकती है परन्तु उनके मामले में टैक्स गणना के तरीके निकाले गए हैं। यह काम सरल हो सकता है यदि खेती आदि पर टैक्स वसूली की व्यवस्था प्रान्तों में आयकर विभाग बनाकर उनके हाथ में दे दी जाए, जिससे प्रान्तों को उनके विकास के लिए धन उपलब्ध होता रहेगा। आज वोट बैंक के जमाने में बजट में राजनीति तो हो रही है, परन्तु बजट की राष्ट्रनीति नहीं है।

यदि उद्योग और खेती तथा शहर और गाँव के हिसाब से बजट में आवंटन हो तो विकास को सेकुलर और वैज्ञानिक आधार मिल सकता है। विविध कामों के लिए धन का आवंटन करते समय यदि इस बात पर विचार हो कि किसानों के बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके, किसानों को समय पर खाद, पानी और बिजली उचित दामों पर मिलती रहे, रोजगार के अवसर मिलें और उनके घर से सही दाम पर पैदावार उठा ली जाए तो किसानों के बैक कर्जे माफ करने, उन्हें मुफ्त में बिजली देने, उनको खैरात बांटने की आवश्यकता नहीं होगी। हालांकि ये सरकारें लागू नहीं करवा पातीं।

इसी प्रकार रेल बजट के किराए की अपेक्षा रेलगाड़ी में बैठने के लिए देश की 70 प्रतिशत आबादी के लिए जगह की चिन्ता पहले होनी चाहिए। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार में 1977 में देश के रेलमंत्री प्रोफेसर मधु दंडवते हुए थे, उन्होंने अपने समय में राष्ट्रनीति के तहत जितनी नई गाड़ियां चलवाईं सब जनता गाड़ियां थीं। उनके बाद के रेल मंत्रियों ने यह आदर्श नीति छोड़ दी और अमीरों की सेवा में लग गए।

बजट प्रावधान ऐसे हों कि उसमें आर्थिक योगदान तो यथाशक्ति हो, परन्तु देश के धन का उपयोग सब के लिए हो, खैरात किसी को नहीं। जीएसटी लागू होने से कुछ समानता तो आएगी, लेकिन उसके बाद भी बहुत असमानताएं और विसंगतियां दूर करनी बचेंगी। समग्र चिन्तन की आवश्यकता है। रेल टिकट पर पहले से सीट नम्बर दर्ज हो और रेलों का आंशिक निजीकरण के बजाय पूरा निजीकरण हो। डीजल और पेट्रोल को जीएसटी के दायरे में लाया जाए।



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