नोटबंदी: मियाद ख़त्म, करिश्मे की बारी

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नोटबंदी: मियाद ख़त्म, करिश्मे की बारीअमेरिका में ट्रंप की जीत से लोग जितना भौंचक हुए, उससे कहीं ज्यादा नोटबंदी और बाद की जनप्रतिक्रियाओं से राजनीतिज्ञ अर्थशास्त्री भौंचक हैं।

ऋतुपर्ण दवे

कालाधन, राजनैतिक रसूख, डिजिटल लेन-देन और अपने ही सीमित पैसों के लिए कतार में छटपटाता 90 फीसदी बैंक खाताधारी आम भारतीय। शायद यही भारत की राजनीति का एक नया रंग है जो ‘नोटबंदी’ के रूप में एकाएक, आठ नवंबर रात की आठ बजे अवतरित हुआ और सम्मोहन जैसा, चुटकी बजाते देशभर में छा गया।

अमेरिका में ट्रंप की जीत से लोग जितना भौंचक हुए, उससे कहीं ज्यादा नोटबंदी और बाद की जनप्रतिक्रियाओं से राजनीतिज्ञ अर्थशास्त्री भौंचक हैं। कतार में घंटों खड़े, लुटे-पिटे लोग भले ही नोटबंदी की बारीकियों को न समझें, लेकिन इतना कहने से गुरेज भी नहीं करते कि ‘आज की परेशानी कल फायदेमंद’ होगी। किसको फायदा? कैसा फायदा? शायद इस तर्क में आम आदमी जाना भी नहीं चाहता। लेकिन ‘मुंगेरीलाल के हसीन सपने देख रहे लोगों’ के मर्म को समझना होगा। सवाल यह नहीं है कि नोटबंदी से फायदे और नुकसान क्या होंगे, सवाल यह भी नहीं है कि कैशलेस या लेसकैश इकोनॉमी का नया दांव चलकर राह बदली जा रही है। अगर सवाल है तो केवल इतना कि भारत में, भ्रष्टाचार की जड़ें कितनी गहरी और मजबूत हैं तथा इससे अजीज आम हिंदुस्तानी कुछ भी करने, सहने को तैयार है। इतना तक कि अगर नोटबंदी से कुव्यवस्थाएं खत्म हों तो देश अगले और 50 दिन कतार में खुशी-खुशी लग सकता है।

भ्रष्टाचार के चरम और लालफीताशाही के ऑक्टोपस में जकड़ा आम भारतीय नोटबंदी में एक नए साफ, सुथरे भारत के भविष्य का सपना देख रहा है। काश यह सच हो पाता! निश्चित रूप से प्रधानमंत्री की मंशा कुछ भी रही हो, लेकिन आम हिंदुस्तानियों की मंशा क्या है? जगजाहिर है।

दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पौने तीन वर्ष के कार्यकाल में देश-विदेश में बड़ी-बड़ी बातें कहीं, खूब सपने दिखाए, जबरदस्त वाहवाही लूटी। विदेशों में मेगा इवेंट से मंच लूटने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री भी बने। लेकिन उन्हें पता है कि बातों से कुछ नहीं होने वाला, कुछ नया करना होगा।

उन्होंने जादुई अंदाज में नोटबंदी का बड़ा और अप्रत्याशित दांव चला और लोग सम्मोहित हो गए। शायद उन्हें पता था कि भ्रष्टाचार की छांव तले, दबा-कुचला आम भारतीय अपने हक और भविष्य के लिए कितना चिंतित है, परेशान है। प्रधानमंत्री ने लोगों की इसी दुखती रग को समझा और नासूर बन चुके कालाधन और भ्रष्टाचार का वो पासा फेंका, जिससे देश में एक नई सनसनी कहें या क्रांति फैल गई।

ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल की बीती रिपोर्ट जरूर उत्साह से भरी रही। भारत भ्रष्टाचारियों की सूची में 85 से नीचे खिसककर 76वें पायदान पर आ गया है। यह एक शुभ संकेत है। हो सकता है, इसी संकेत से मोदीजी ने भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे देशवासियों को एक झटके में मुक्ति दिलाने के लिए कुछ अजूबा करने की फिराक में नोटबंदी जैसा कथित दूरगामी परिणाम का फैसला कर लिया हो।

यह प्रधानमंत्री का बिरला साहस है जो बिना नफा-नुकसान की चिंता किए, निर्णय लिया। राजनीति में दांव ही सब कुछ है, बशर्ते उल्टा न पड़े। लेकिन भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में, जहां राय बदलते देर नहीं लगती, नोटबंदी पर लोग लगातार प्रधानमंत्री के साथ हैं, ये क्या कम है। कतार में लगे या नोट की जुगाड़ में जुटे एक सैकड़ा से ज्यादा कथित मौतों को अगर भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए कुर्बानी कहें तो ये कुर्बानियां बेकार नहीं जानी चाहिए। उल्टा गर्व ही होगा, क्योंकि इतनी बड़ी जंग और इतना ही बलिदान।

पूर्ववर्ती सरकारों ने डिजिटल तकनीक और संचार क्रांति जैसी कई सौगातें देश को दीं। लेकिन मोबाइल नेटवर्क, लिंक और डेटा की पहुंच हर पल, हर किसी तक पहुंचाने में अक्षम भी रही। इसके उपयोग और समझ संबंधी जागरूकता भी नहीं फैलाई। इसी आधे-अधूरे संचार तंत्र के साथ, प्रगतिशील भारत में नोटबंदी बनाम डिजिटल करेंसी बनाम प्लास्टिक मनी एक झटके में कैसे स्वीकार्य और फलीभूत होगी, यह नहीं पता। अलबत्ता, देश में गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, आतंकवाद की गहरी जड़ों के बीच नोटबंदी जैसा साहसिक फैसला देश को किस अंजाम तक पहुंचाएगा, इसके लिए इंतजार करना होगा। यक्ष-प्रश्न अब समक्ष है कि आगे क्या होगा? नोटबंदी से क्या कालाधन वापस आया? कालाधन कब वापस आएगा? भविष्य में निरंकुश नौकरशाही पर शिकंजा कसा जा सकेगा? गरीबों, मजदूरों, किसानों, लाचारों के साथ समानता का व्यवहार हो पाएगा?

लुभावनी सी लगती और कागजों पर सुंदर दिखती योजनाएं-परियोजनाएं हकीकत में अमली जामा पहन पाएंगी? विकास और निर्माण कार्यो में कमीशनखोरी, भ्रष्टाचार रुकेगा? राजनीतिक दलों के छल-प्रपंच से देशवासी बचेंगे? क्या संसद में यूं ही विपक्ष यानी हंगामा दल और सत्तासीनों के मौन आडंबर का खेल चलता रहेगा?

बहरहाल, लगभग पूरा देश नोटबंदी के सम्मोहन से सम्मोहित है और बाकी सारी बातें बेमानी। 50 दिनों की सीमा भी चुक गई, फिर भी पूरा समर्थन साथ है। बस इंतजार है कि कोई करिश्मा हो जाए, लेकिन कब? इसकी न कोई तारीख है न ही योजना, फिर भी लोग बड़ी उत्सुकता और धीरज से उस करिश्मे के इंतजार में हैं, जो उनकी जिंदगी बदलने वाला है। देखना है, पहले करिश्मा होता है या फिर सम्मोहन टूटता है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

    

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