चीन और पाकिस्तान समझ जाएंगे तब और अब में अंतर

अक्साई चिन और नेफा का बड़ा भाग चीन भी दबाए है, क्या मोदी सरकार इन भारतीय भूभागों को मुक्त करा सकेगी, यह प्रमुख विषय है। भारत ने चीन को सुरक्षा परिषद में वीटो सहित सदस्यता दिलाई थी, क्या चीन उस दोस्ती का रिटर्न गिफ्ट देगा?, यही होगी चीनी मित्रता की परख।

Dr SB MisraDr SB Misra   25 Oct 2019 11:29 AM GMT

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चीन और पाकिस्तान समझ जाएंगे तब और अब में अंतर

जकल पाक अधिकृत कश्मीर में पाकिस्तानी धींगामुश्ती तेज हो गई है और अरुणाचल की सरहद पर चीनी चहल कदमी भी चल रही है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने दुनिया के देशों से गुहार नहीं लगाई बल्कि कहा कि हम आपस में निपट लेंगे। याद आता है नेहरू का जमाना जब कबाइली बनकर पाकिस्तानी सेना कश्मीर में घुसी थी और हमारी सेनाएं उन्हें गाजर मूली की तरह काटती हुई उन्हें खदेड़ रही थी तो नेहरू जी फ़रियादी बनकर यूएनओ चले गए थे और जनमत संग्रह का वचन भी दे दिया था। ऐसा किस प्रकार सम्भव हुआ।

पचास के दशक में तब के सेनाप्रमुख केएम करियप्पा ने चीन की चाल समझ ली थी और उसके पहले वल्लभ भाई पटेल ने भी आगाह किया था लेकिन नेहरू जी चाउ एन लाई के साथ 'हिन्दी चीनी भाई-भाई का नारा' बुलन्द करते रहे। यही अक्टूबर का महीना था जब नेहरू जी श्रीलंका के दौरे पर जा रहे थे तो चीनी सेनाएं हमारी सीमा पर युद्ध के लिए तैयार खड़ी थीं। फिर भी नेहरू ने उस देश के साथ अहिंसा पर आधारित पंचशील पर हस्ताक्षर किए।

चीन ने अंग्रेजों की बनाई भारत-चीन सीमा रेखा मैकमोहन लाइन को मान्यता नहीं दी, उसने तिब्बत पर सशस्त्र कब्जा करके तिब्बतियों पर बर्बर अत्याचार का परिचय दिया, दुनिया देखती रही, किसी ने भारत का साथ नहीं दिया। नेहरू ने उन्हें शरण देकर उन्हें भारत में बसा लिया।

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आज बदलाव यह है कि भारत का साथ देने के लिए अमेरिका, फ्रांस, इजराइल, जापान सहित अनेक देश तत्पर हैं जब कि पचास के दशक में भारत अकेला था। चीन इस बात को जानता है इसलिए सरहद पर कुश्ती और धींगामुश्ती चाहे जो करे अभी तक प्रत्यक्ष युद्ध का साहस नहीं जुटा पाया है।

हमने पाकिस्तान के मामले में अब और वियतनाम के मसले पर पहले देखा है कि चीन अपने स्वार्थ के आगे दोस्तों की कद्र नहीं करता। इसलिए हमें चीन की दोस्ती के लिए लालायित नहीं होना चाहिए और न बैर लेना चाहिए। तुलसीदास ने 500 साल पहले कहा था 'काटे चाटे स्वान के दुहू भांति विपरीत।'

ब्रिगेडियर डल्वी की किताब 'हिमालयन ब्लन्डर' जिसमें भारत चीन युद्ध का चश्मदीद विवरण मिलेगा, हमें पढ़ना चाहिए। कांग्रेसी सरकारों ने इस किताब का प्रकाशन, विमोचन और बिक्री बन्द करा दिया था इसलिए आसानी से उपलब्ध नहीं होगी। उस लड़ाई में भाग लेने वाले बहादुर जवानों ने समय-समय पर अपना आंखों देखा हाल बताया है जो मीडिया में प्रचलित रहा। जैसे सड़कों और संसाधनों की कमी, शस्त्रास्त्रों का अभाव, अक्षम नेतृत्व, पर्वतीय युद्ध के प्रतिरक्षण की कमी थी अब परिस्थितियां बदली हैं लेकिन चीन की विस्तारवादी नीयत नहीं बदली है। इसलिए शी जिन पिंग की मुस्कराहट को शंका से देखना चाहिए।

एक दूसरा श्रोत है हेंडरसन ब्रुक्स की वह रिपोर्ट जिसे सरकार ने तैयार कराई थी और जो लोकसभा की अल्मारियों में धूल चाट रही है। हेंडरसन ब्रुक्स की रिपोर्ट को भारत सरकार ने बड़ी जतन से पचास साल से दबाकर रखा था। छिपाने के अनेक कारण बताए जाते रहे जैसे गोपनीयता भंग होगी, भारतीय जन मानस का मनोबल गिरेगा आदि।

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यह देशहित में होगा कि पराजय के कारणों को उजागर करती हुई इस रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए जिससे भविष्य में वही गलतियां दुहराई न जाए। चीन की समझ में आ रहा होगा कि नेहरू का हिन्दी चीनी भाई-भाई का नारा जितनी गर्मजोशी से लगा था उतनी ही रफ्तार से ठंडा हो गया था।


जनरल करियप्पा के कमेन्ट याद करें तो लगता है नेहरू को अपनी सेना की तैयारी में कमियों का अन्दाज़ नहीं था। पचास के दशक में जनरल केएम करियप्पा ने अनेक बार कहा था कि हमारी सरहद तक रसद और रक्षा उपकरण भेजने के लिए सड़कें नहीं हैं। इस बात को ना तो रक्षा मंत्री मेनन ने और न ही प्रधानमंत्री नेहरू ने गम्भीरता से लिया था। हद तो तब हो गई जब अखबारों में छपा कि ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियों में काफ़ी परकोलेटर बन रहे थे। इस सब के होते हुए सेना की कमान जनरल कौल को सौंपी गई जिन्हें युद्धक्षेत्र का अनुभव हीं नहीं था।

चीन के साथ हमारे सम्बन्धों के दो पक्ष हैं, एक तो हम आर्थिक रूप से चीन से पिछड़ क्यों गए और दूसरा हम 1962 के युद्ध में चीन से हार क्यों गए। पहले का उत्तर आसान है। हमने महात्मा गांधी का रास्ता छोड़ कर ग्राम स्वराज को भुला दिया और चीन ने माओ का रास्ता पकड़ कर गाँवों को समृद्ध बनाया। विकास का नेहरू मॉडल फेल हो गया जिसे त्यागने में भी बहुत देर की गई। विकास के मोदी मॉडल का परिणाम तो बाद में पता चलेगा लेकिन कश्मीर के परिप्रेक्ष में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध बेहतर लग रहे हैं।

कश्मीर का बड़ा भाग पाकिस्तान ने दबा रखा है जिसमें चीन भी बन्दर बांट करना चाहता है। अक्साई चिन और नेफा का बड़ा भाग चीन भी दबाए है, क्या मोदी सरकार इन भारतीय भूभागों को मुक्त करा सकेगी, यह प्रमुख विषय है। भारत ने चीन को सुरक्षा परिषद में वीटो सहित सदस्यता दिलाई थी, क्या चीन उस दोस्ती का रिटर्न गिफ्ट देगा?, यही होगी चीनी मित्रता की परख।

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