ट्रंप से तलैय्या तक: जो सभ्यता प्रकृति से प्रेम करेगी, बचेगी

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अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस समझौते से अमेरिका को अलग करके साबित कर दिया है कि एक व्यक्ति में शक्तियों का केन्द्रित होना खतरनाक है। जलवायु संबंधी यह वही समझौता है जिसे अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने दो साल पहले स्वीकार किया था और अमेरिकी जनता आज भी उसे सही मानती है। ऐसा कम ही होता है जब विकसित और विकासशील देश किसी मुद्दे पर एक मत हों जैसा कार्बनडाइऑक्साइड के उत्सर्जन पर हुए। भारत और चीन इस विषय पर एक खेमें में आ गए हैं।

भारतीय संस्कृति हजारों वर्षों से इसीलिए जीवित है कि भारत ने मानव कल्याण के लिए हमेशा त्याग किया है। अतीत में अनेक सभ्यताएं जैसे ग्वाटेमाला की टिकाल सभ्यता, पीरू की चैन-चैन सभ्यता, मेक्सिको की माया सभ्यता और मध्य पूर्व की बेबिलोन सभ्यता नहीं बची। प्राचीन सभ्यताओं के विलुप्त होने का वर्णन करते समय उनके मिट्टी, वन, जल प्रबन्धन, सिंचाई, मृदा क्षय आदि विषयों के साथ शासन व्यवस्था को न तो जोड़ने का प्रयास किया गया और न इनकी भूमिका का उल्लेख हुआ है ।

जो सभ्यताएं प्रकृति प्रेमी रहीं, वो ही समय के साथ फूलीं फलीं। भारतीय मान्यता रही है कि पंचतत्व से बना हुआ यह शरीर तभी तक स्वस्थ रह सकता है जब तक इन तत्वों का बाहरी जगत में संतुलन है। जैसे प्राणवायु ऑक्सीजन और कार्बन डाइआक्साइड के बीच का सन्तुलन तभी रहेगा, जब प्रकृति संरक्षित होगी। प्राणवायु तभी तक है, जब तक वन और वनस्पति हैं।

पराबैंगनी किरणों से मनुष्य मात्र की रक्षा करने वाली ओजोन परत को क्षति पहुंचाने वाली गैसों से बचाव के लिए भी वनस्पति जरूरी है। पेरिस समझौते में कार्बन डाइआक्साइड का मुद्दा इसलिए तूल पकड़ गया कि विकासशील देश थर्मल पावर के लिए कार्बनडाइ ऑक्साइड छोड़ते हैं, इसके बावजूद आज भी उनका हिस्सा अमेरिका जैसे देशों से बहुत कम है।

वायु की ही तरह जल भी बहुत महत्वपूर्ण है जो अनेक रूपों में पाया जाता है, पर्वतों पर बर्फ के रुप में, मैदानी भागों में नदी, झील, तालाब, समुद्र में द्रव रूप में और वायुमंडल में वाष्प के रूप में। समुद्र की सतह से पानी वाष्प बनकर वायुमंडल में जाता है, वहां से घनीभूत होकर वर्षा जल के रूप में पृथ्वी पर गिरता है, जिसका कुछ भाग पर्वतों पर बर्फ के रूप में जमा रहता है, कुछ भाग प्रतिवर्ष पृथ्वी के अन्दर समावेश करके भूजल के रूप में संचित हो जाता है, जैसे किसान अपनी फसल का कुछ भाग भंडारित करता है और वर्षा जल का शेष भाग नदियों के माध्यम से पुनः समुद्र तक पहुंच जाता है।

हमारे देश के प्रत्येक गाँव में एक या दो तालाब, कुएं और बावली आदि अवश्य हुआ करते थे। तालाबों का पानी सिंचाई तथा पशुओं के लिए और कुओं का पानी मनुष्य के पीने के काम आता था। आज पृथ्वी की सतह पर जल भंडारण की परम्परा समाप्त सी हो गई है और सारी आवश्यकताएं भूजल पर निर्भर हैं। परिणाम यह हुआ है कि भूजल का स्तर नीचे गिर रहा है। यदि इस संकट से बचना है तो पृथ्वी की सतह पर जल भंडारण और जल प्रबंधन की अपनी पुरानी परम्पराओं को पुनर्जीवित करना होगा और भूजल पर से दबाव घटाना होगा।

हमारे पूर्वज वनों के महत्व को जानते थे और वाणप्रस्थ आश्रम में पहुंच कर वनों में निवास करते थे। सुन्दर पर्यावरण की महत्ता को समझाते हुए हमारे मनीषियों ने अथर्वेद में कहा है- समुद्र, नदियों और जल से सम्पन्न पृथ्वी जिसमें कृषि और अन्न होता है, जिससे यह प्राणवान संसार तृप्त होता है, वह पृथ्वी हमको फल उपलब्ध होने वाले प्रदेश में प्रतिष्ठित करे।

यह भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि जब कोई भारतीय किसी पशु, पक्षी अथवा वृक्ष को देखता है तो उसे सहजीवी प्राणी के रूप में देखता है, जबकि अन्य लोग भेड़, बकरी, ऊंट, मुर्गा, भैंसा सभी को परमेश्वर की दी हुई नेमत समझते हैं और उन सब को अपना भोजन मानते हैं। ऐसे नहीं होगा प्रकृति के साथ मानव का तादात्म्य। इसके उदाहरण तो भारतीय संस्कृति में खोजने से मिलेंगे। डोनाल्ड ट्रम्प यदि चाहें तो स्वार्थ त्याग कर अपने देश द्वारा उत्सर्जित गैसों को कम करके विकासशील देशों के स्तर पर ला सकते हैं, लेकिन वह ऐसा कभी नहीं करेंगे।

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