विकास की दौड़ में पीछे छूटती भारतीय संस्कृति

Dr SB Misra | Nov 01, 2025, 12:33 IST
आधुनिक भारत में हम भले ही तकनीक और विकास की राह पर आगे बढ़ गए हों, पर हमारी नैतिकता, शिक्षा और संस्कृति पीछे छूटती जा रही है। कैसे औपनिवेशिक मानसिकता, अंधी आधुनिकता और मूल्यों का ह्रास आज के समाज, राजनीति और शिक्षा- सबको प्रभावित कर रहा है।
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एक समय था जब हमारे देश के लोग सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले सीधे-साधे नागरिक हुआ करते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि बाहर से आने वाले क्रूर और निर्दयी आक्रांता इस देश पर आक्रमण करके लूटपाट मचाकर वापस चले जाते थे। फिर आखिर में मुगलों का समय आया। उन्होंने नुकसान तो किया - मंदिरों को तोड़ा, धार्मिक स्थलों और संस्थानों पर आक्रमण किया। यह इसलिए किया क्योंकि यहाँ की संस्कृति उनकी सोच से मेल नहीं खाती थी और वे अपने विचारों को लागू करना चाहते थे। इन सब विध्वंसकारी कार्यों के बावजूद भारतीय संस्कृति मिट्टी में दब नहीं गई। यहाँ की पूजा-पद्धति व्यक्तियों पर निर्भर थी, सामूहिक प्रार्थनाएँ अनिवार्य नहीं थीं, इसलिए इन्हें मिटाना संभव नहीं था और वे मिटा भी नहीं पाए।

मुगलों के शासन का अंत होने के बाद, या उसके चलते रहने के साथ ही, अंग्रेजों ने इस देश में दस्तक दे दी। सच यह है कि मुगल बादशाहों में से एक ने अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी को आमंत्रित किया था, और अंग्रेजों का लालच बढ़ता गया। देश अंग्रेजों का गुलाम हो गया। अंग्रेजों ने यहाँ की सांस्कृतिक परंपरा और सोच को विध्वंस करने के बजाय अपने विचारों को दूसरे ढंग से लागू करना आरंभ किया। उन्होंने अपना शासन चलाने के लिए यहाँ के लोगों को क्लर्क बनाया और कुछ स्तर तक अधिकारी भी नियुक्त किए, जिससे ऐसे तमाम लोग अंग्रेजी सोच, पहनावा और भोजन भी धीरे-धीरे अपनाने लगे।

इसका परिणाम यह हुआ कि एक तरफ तो देश की मूल्यवान धरोहर अंग्रेजी म्यूज़ियम में चली गई और दूसरी ओर भारतीय लोगों को नौकरी के लालच में अंग्रेजी भाषा और परंपराओं के प्रति आकर्षित किया गया। वे भारत के लोगों को वैज्ञानिक या डॉक्टर नहीं बनाना चाहते थे, बल्कि क्लर्क बनाना चाहते थे — और वही बनाया। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अपने प्राणों की आहुति देकर या अनेक प्रकार के कष्ट झेलकर देश से उन्हें विदा किया। कुछ हद तक उस समय की भौगोलिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ भी ऐसी बन गईं कि वे इतने बड़े देश का प्रबंध करने में असमर्थ हो गए। अंततः अंग्रेज चले गए, लेकिन हमारे नए शासकों में अंग्रेजियत छोड़ गए। आज भी हम उन्हीं के बताए रास्ते पर चलते रहे हैं। अब कुछ हद तक स्वतंत्र सोच आरंभ हुई है, और आशा की जानी चाहिए कि भारतीयता फिर से लौटेगी।

भारत के लोगों ने प्राचीन काल में विश्व-बंधुत्व और अस्तित्व जैसे अनेक उद्दात्त विचारों को सामने रखा था। धर्म की स्थापना की थी, धार्मिक स्थलों का निर्माण भी किया था, लेकिन उनके रक्षक पैदा नहीं किए — जिसका परिणाम यह हुआ कि सब कुछ लुटता रहा। ऐसी परंपरा थी कि लोग अपने घरों को बिना ताला लगाए छोड़ जाते थे। बहू-बेटियाँ निश्चिंत रूप से जीवन-यापन करती थीं, उन्हें किसी का डर नहीं रहता था। बैंकों का विकास तब नहीं हुआ था। लोग अपने घरों में गड्ढे खोदकर संपत्ति को दबा देते थे या दीवारों में छिपा देते थे, और वह सब सुरक्षित रहता था।

India Family Faeming Harvesting Crops
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अब तो सब कुछ बदल चुका है, क्योंकि भारतीय लोगों की सोच भी बदल चुकी है। इसमें सुधार कितने समय में आएगा, कहा नहीं जा सकता। आधुनिकता आ चुकी है — अब तो बैंकों में भी धन सुरक्षित नहीं है, और बहन-बेटियों की इज़्ज़त भी सुरक्षित नहीं है।

देश के उच्च शिक्षा संस्थानों के छात्रों में अराजकता बढ़ रही है। आरक्षण के नाम पर तोड़फोड़ और विध्वंसक गतिविधियाँ सामान्य हो गई हैं। और सबसे कष्टकर यह है कि नौजवानों में यौनाचार और यौन उत्पीड़न फैल रहा है। पिछले 40 सालों में टीवी, सिनेमा, इंटरनेट और मोबाइल फ़ोन का तीव्र गति से विकास हुआ है — और उतनी ही तीव्र गति से अपराधों का ग्राफ भी बढ़ा है। लूट, अपहरण, फिरौती, हत्या, बलात्कार, चोरी और यौन उत्पीड़न के मामले अखबारों में छपते रहते हैं। कुछ टीवी चैनल तो कुकृत्यों का विस्तार से विवरण भी दिखाते हैं, जो दर्शकों के दिमाग पर स्थायी प्रभाव डालते हैं।

जब बच्चे सेक्स अपराध, हिंसा और असामाजिक कामों को देखते हैं, तो उनकी पशु-भावनाएँ जागृत हो जाती हैं। वे कठोर भावनाओं के साथ बड़े होते हैं और उनमें अपराध-बोध नहीं पनपता। इससे बचने के लिए बच्चों को बचपन से ही भारतीय संस्कृति का बोध कराना होगा। गुनहगार पैदा करने में इंटरनेट सबसे आगे है। परेशानी यह है कि इंटरनेट के बिना काम भी नहीं चलेगा। इसलिए अभिभावकों की जिम्मेदारी है कि छोटी उम्र में बच्चों पर नज़र रखें और उतने ही उपकरण उपलब्ध कराएँ जिनकी वास्तविक आवश्यकता हो।

इंटरनेट एक माचिस की तरह है — जिसका उपयोग हम जैसे चाहें कर सकते हैं। इससे खाना पकाने की गैस भी जलाई जा सकती है, या किसी का घर भी। जीव-विकास के क्रम में पशु विकसित होकर दो पैरों पर खड़े हुए होंगे, लेकिन फ्री सेक्स और “जिसकी लाठी उसकी भैंस” जैसा व्यवहार करते रहे होंगे। कालांतर में संयम के साथ सभ्य समाज का विकास हुआ। डिजिटल क्रांति हमें वापस पशु-संस्कृति की राह पर ले जा रही है। यह हम पर निर्भर है कि हम डिजिटल जगत में कैसा व्यवहार करें और बच्चों के लिए कितनी सीमा तक क्रांति के द्वार खोलें।
बच्चों में संस्कार डालने की जिम्मेदारी बड़ों की रहेगी — जिन्हें स्वयं संयम बरतना होगा। फिल्मकारों पर कम से कम सेंसर का अंकुश तो है, लेकिन इंटरनेट पर ऐसा कोई नियंत्रण नहीं है। फिल्मकारों का यह तर्क कि “पब्लिक डिमांड” के कारण ऐसे दृश्य डालने पड़ते हैं, वास्तव में कुतर्क है। यदि पब्लिक माँगे भांग, गांजा, अफीम या शराब — तो कितनी, कब और किसे देनी है, यह निर्णय तो समझदार लोगों को करना होगा। ये तर्क लोगों में पशु भावनाएँ उभार कर दौलत कमाने का बहाना मात्र हैं। लोग यह नहीं सोचते कि यौन प्रदर्शन का बच्चों और वयस्कों पर क्या प्रभाव पड़ता है।

देश के नौजवान और नवयुवतियाँ टीवी सीरियल, सिनेमा और विशेषकर इंटरनेट पर यौनाचार और यौन उत्पीड़न देखकर कामांध हो जाते हैं और यौन अपराधों के रास्ते पर चल पड़ते हैं। पश्चिमी देशों में डेटिंग और मेटिंग की आज़ादी समाज ने दे रखी है, इसलिए यौन उत्पीड़न की घटनाएँ वहाँ कम होती हैं। हमारे सामने दो विकल्प हैं — या तो हम अपने जीवन-मूल्यों को बरकरार रखने का प्रयास करें, अथवा पश्चिमी तौर-तरीकों को मान्यता दे दें। दोनों ही स्थितियों में अभिभावकों पर मुख्य जिम्मेदारी है।

कुछ फिल्मकार बेहूदा तर्क देते हैं कि इस देश में तो शिवलिंग की पूजा होती है, खजुराहो, कोणार्क और अजंता में कलाकृतियाँ बनाने की आज़ादी थी। उन्हें कौन बताए कि कलाकृतियाँ मंदिर के अंदर होती थीं, बाहर नहीं। शिवलिंग तो ब्रह्मांड की ऊर्जा का प्रतीक है। धर्म की श्रेष्ठ भावनाओं को समझने के बजाय ये लोग अर्थ का अनर्थ करते रहते हैं। अब ईसाई धर्मावलंबी मानते हैं कि ईसा मसीह का जन्म एक कन्या के गर्भ से हुआ था — फिल्मकारों की चले तो ये सभी कन्याओं को गर्भवती दिखा दें! कुतर्क की भी सीमा होती है।

सामाजिक विकृति को न तो अभिभावक, न सरकारी कानून, न पुलिस और न ही स्कूल-टीचर अकेले ठीक कर पाएंगे। इसके लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होगी।

हम हर साल आज़ादी का जश्न मनाते हैं, लेकिन यदि जनता की जान और माल सुरक्षित नहीं तो किस काम की आज़ादी, विकास और समृद्धि? आज हालत यह है कि जब तक आदमी अपने घर नहीं पहुँचता, वह अपने को सुरक्षित नहीं महसूस करता। अब तो घर में भी सुरक्षा नहीं बची है। सड़कों पर महिलाओं की चेन लूटी जाती है, घरों में बुजुर्गों की लूट और हत्याएँ हो रही हैं, सरेआम बच्चियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं, आए दिन डकैतियाँ हो रही हैं और नक्सलवाद व आतंकवाद की घटनाएँ आम हो गई हैं।

विडंबना यह है कि आम आदमी निहत्था और बेसहारा है, और पुलिस भी संकट की घड़ी में मदद नहीं कर पाती। इसके विपरीत, बहुत से राजनेताओं को ज़ेड प्लस सुरक्षा मिली है, जिसमें 36 सशस्त्र बलों का सुरक्षा कवच रहता है। कुछ अन्य को ज़ेड सुरक्षा (22 जवान) तथा अन्य को वाई या एक्स श्रेणी की सुरक्षा (क्रमशः 11 और 2 जवानों का कवच) प्रदान किया गया है। लाखों सुरक्षाकर्मी, जो देश और समाज की रक्षा में लगे होने चाहिए थे, वे मुट्ठीभर राजनेताओं की सुरक्षा में मुस्तैद हैं। नेताओं की सुरक्षा में लगे ये लोग कोई लाठीधारी सिपाही नहीं, बल्कि स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (SPG), नेशनल सिक्योरिटी गार्ड (NSG), इंडो-तिब्बतन बॉर्डर पुलिस (ITBP) और सेंट्रल रिज़र्व पुलिस फ़ोर्स (CRPF) के प्रशिक्षित जवान हैं।

प्रधानमंत्री और सैकड़ों मंत्रियों की कौन कहे, हजारों सांसद और विधायक भी किसी न किसी प्रकार के सशस्त्र सुरक्षाकर्मियों के साथ चलते हैं। एक बार अटल जी ने कहा था कि “अद्भुत सुरक्षा के कारण हम आम जनता से दूर हो गए हैं।” आखिर नेताओं को किससे और क्यों खतरा पैदा हो गया है? जब भी आम आदमी आतंकवादियों, डकैतों अथवा पुलिस वालों की गोली से मारा जाता है, तो उसे कुछ लाख रुपये का मुआवज़ा दे दिया जाता है। यदि राजनेताओं की जान की कीमत अधिक है, तो उन्हें मुआवज़े के रूप में कुछ करोड़ रुपये दिए जा सकते हैं!
पुराने समय में मैंने देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी को खुली जीप में लखनऊ की सड़कों पर निकलते हुए नज़दीक से देखा था। आज जो लोग स्वयं इतने असुरक्षित और डरे हुए हैं, वे आम आदमी को क्या सुरक्षा देंगे?

आतंकवादी और अराजक तत्व हमारे सिस्टम में घुलमिल गए हैं, और शायद ही कोई बड़ा शहर बचा हो जहाँ आतंकवादी घटनाएँ न हुई हों। ऐसे में राजनेताओं का यह सोचना कि कमांडो उन्हें बचा लेंगे — उनका भ्रम है। आखिर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के पास भी कमांडो मौजूद थे। आवश्यकता है पूरे समाज की सुरक्षा के विषय में गंभीरता से सोचने की, जिससे नेताओं की भी सुरक्षा स्वतः हो जाएगी।

हमारे ध्यान में रहना चाहिए कि जनता अपने जान-माल की सुरक्षा के लिए चिंतित रहती है। जनता पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि नेताओं ने कितनी फिजूलखर्ची की अथवा मंत्रियों की विदेश यात्राओं का क्या औचित्य था — बशर्ते कानून-व्यवस्था मुस्तैद रहे और जनता का जान-माल खतरे में न हो। कांग्रेस पार्टी बड़े गर्व से कहती है कि उन्होंने आज़ादी दिलाई, तो भाजपा वाले कहते हैं कि कांग्रेस ने भारत के खंड-खंड कर दिए। देश का बँटवारा जिन्ना ने किया या नेहरू ने, या शिमला में माउंटबेटन के साथ बैठकर तीनों ने — यह इतिहास बन चुका है। अब केवल इतना ही प्रासंगिक है कि त्याग और बलिदान का दम भरने वाले नेता कितना सच कहते हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रह चुके संजय बारू ने एक पुस्तक लिखी है — “ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर” — जिसमें उन्होंने बताया है कि सोनिया गांधी ने किसी त्याग के कारण प्रधानमंत्री का पद नहीं छोड़ा था, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति के अंतर्गत ऐसा किया था। वैसे पद स्वीकार न करने वालों की कमी नहीं रही है — जयप्रकाश नारायण से लेकर नानाजी देशमुख तक, बहुत लोगों ने पद अस्वीकार किए थे।

यह विडंबना है कि जयप्रकाश नारायण, वीर सावरकर, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, राम मनोहर लोहिया और नानाजी देशमुख जैसे लोग, जो चाहते तो सत्ता-सुख भोग सकते थे, उन्होंने अपनी सेवाओं को भुनाया नहीं और न उसका बखान किया। बलिदान के उदाहरण हैं मंगल पांडे, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला ख़ां, मदन लाल धींगरा, राजेंद्र लाहिड़ी, चाफेकर बंधु और नेताजी सुभाषचंद्र बोस। इन बलिदानियों के घरों को स्मारक नहीं बनाया गया, उनकी हजारों मूर्तियाँ नहीं लगीं, और स्कूल-कॉलेजों में उनका जीवन नहीं पढ़ाया जाता — जिससे देश के नौजवान प्रेरणा लेने से वंचित रह जाते हैं।

देशवासियों को सच्चे त्यागी और बलिदानियों के नाम बताने की ज़रूरत है। साथ ही, विकास और समृद्धि से अधिक ज़रूरी है आम आदमी के जान-माल की सुरक्षा — लेकिन नेताओं की सुरक्षा में ही सारा श्रम और शक्ति लग जाती है। आशा है, आने वाले समय में हालात बदलेंगे।

दुनिया में टेक्नोलॉजी जिस रफ़्तार से विकसित हो रही है, उसी रफ़्तार से नए-नए ठगी के तरीके भी निकलते जा रहे हैं। आगे चलकर जब आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस पूरी तरह आ जाएगी, तो हालात और मुश्किल होंगे। अभी भी हम देखते हैं कि टीवी पर प्रधानमंत्री को डांस करते हुए दिखाया जाता है और प्रतिद्वंद्वियों से संघर्ष करते हुए भी दिखाया जाता है। ऐसी हालत में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वास्तविक और आर्टिफ़िशियल में भेद करना क्राइम डिटेक्टर्स के लिए कठिन हो जाएगा।

अभी देश में पूरे सिस्टम को डिजिटाइज़ करने का अच्छा प्रयास हो रहा है, लेकिन उसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं — इसलिए उस पर भी ध्यान देना होगा। गाँव के लोग बैंकों में पैसा जमा तो कर देते हैं और कई बार डिजिटल तरीकों से निकालते भी हैं, मगर अपने पैसे की रक्षा उनके लिए आसान नहीं होती। बहुत लोग इस परिवर्तन को सहज रूप से स्वीकार भी नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए भविष्य में जो परिवर्तन आते जाएँगे, उनके लिए वातावरण तैयार करना आवश्यक होगा।

अपराधों पर नियंत्रण का जो वर्तमान तरीका है, वह या तो कठोर दंड का है या फिर गवाहों और सबूतों पर निर्भर है। एक समय जेलों को सुधारगृह के रूप में प्रयोग में लाने का प्रयास किया गया था — पर यह नहीं कहा जा सकता कि जेल से छूटने के बाद कितना सुधार होता है।

उत्तर प्रदेश में अपराधों में कुछ सुधार तो हुआ है, लेकिन जब घर गिरा दिए जाते हैं, तो उसका दूसरा पक्ष भी होता है — गुनहगार के छोटे-छोटे बच्चे और महिलाएँ जब छत से वंचित हो जाती हैं, तो सजा उन्हें भी मिलती है। इस्लामी देशों में हाथ काटने या सिर काटने जैसी सजाएँ दी जाती हैं — वे भी बहुत ही क्रूर हैं। इसलिए यदि जेल का प्रयोग सुधारगृह के रूप में हो सके और यौन उत्पीड़न, बैंकों की ठगी, बड़े-बड़े लोगों का अपराध करके बाहर भाग जाना जैसे मामलों पर रोक लग सके, तो यही समाज के लिए बेहतर होगा।

आज हर समय ठगी और बेईमानी का डर बना हुआ है। इससे बचने का उपाय क्या होगा? इनसे बचने का तरीका मनोवैज्ञानिकों को सोचना होगा।

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