मेरे अज़ीज़ दर्शकों-पाठकों, कुछ तो समझो इस खेल को

रवीश कुमाररवीश कुमार   8 Nov 2016 5:49 PM GMT

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मेरे अज़ीज़ दर्शकों-पाठकों, कुछ तो समझो इस खेल कोप्रतीकात्मक फोटो।

आए दिन कोई न कोई नेता या संवैधानिक प्रमुख, अपने ठोंगे से मूंगफली की तरह उलट कर ये सुझाव बांटने लगता है कि ऐसे मामलों में राजनीति नहीं होनी चाहिए। हम कंफ्यूज़ हैं कि वो कौन से ‘ऐसे मामले’ हैं जिनपर राजनीति नहीं हो सकती है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ये बात कही है। खुद संवैधानिक पद पर रहते हुए आरोपी को क्रूर आतंकवादी बता कर ट्वीट कर रहे हैं, क्या ये राजनीति नहीं है? क्या ये उन्हीं ‘ऐसे मामलों’ में राजनीति नहीं है, जिन पर राजनीति न करने की सलाह बाकियों को दे रहे हैं? क्या मुख्यमंत्री को इतना तो पता होगा कि जब तक आरोप साबित नहीं होते तब तक किसी को आतंकवादी नहीं कहना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं कि मारे गए लोग निर्दोष हैं पर सज़ा अदालत देगी या मुख्यमंत्री ट्विटर पर देंगे।

एनकाउंटर अदालत की निगाह में एक संदिग्ध गतिविधि है। एक नहीं, सैंकड़ों उदाहरण दे सकता हूं। वैसे भी इस मामले में किसी राज्य का मुख्यमंत्री कैसे बिना साबित हुए क्रूर आतंकवादी लिख सकता है। क्या हमारे राजनेता अपने ऊपर लगे आरोपों को बिना फैसले या जांच के स्वीकार कर लेते हैं? जब हमारे नेताओं ने अपने लिए कोई आदर्श मानदंड नहीं बनाए तो दूसरों के लिए कैसे तय कर सकते हैं।

मध्य प्रदेश के एंटी टेरर स्कॉड का प्रमुख कह रहा है कि भागे कैदियों के पास बंदूक नहीं थी। तो फिर तस्वीर में कट्टे कहां से दिख रहे हैं। फिर आईजी पुलिस तीन दिन से किस आधार पर कह रहे हैं कि कैदियों ने जवाबी फायरिंग की। सरपंच का बयान है कि वे पत्थर चला रहे थे। दो आईपीएस अफसरों के बयान में इतना अंतर है। क्या इनमें से कोई एक आईपीएस इन क़ैदियों से सहानुभूति रखता है?

यह बात सबसे ख़तरनाक राजनीति है कि राजनीति नहीं होनी चाहिए। दिल्ली में एक पूर्व सैनिक ने आत्महत्या की। फिर वही बात कि राजनीति नहीं होनी चाहिए। इसे लेकर आप पाठक बिल्कुल भ्रम में न रहे कि यह बात शिवराज सिंह चौहान या बीजेपी के ही नेता मंत्री कहते हैं। आप गूगल करेंगे तो आपको सरकार में रहते हुए कांग्रेस के मंत्रियों का भी यही बयान मिलेगा। मौजूदा ग़ैर बीजेपी सरकारों के मंत्रियों का भी यही बयान मिलेगा। सवाल यही है कि तब उनके और अब इनके बीच क्या बदला? क्या बदलाव सिर्फ सत्ता पर कब्ज़े के लिए होता है? उस कब्ज़े को बनाए रखने के लिए होता है? शहीद हेमराज के घर कितना तांता लगा था। क्या वहां ये नेता तीर्थ करने गए थे? क्या वो राजनीति नहीं थी। आज भी शहीद हेमराज के परिवार की तमाम शिकायतें हैं। वहां जाने वाले नेताओं में कोई दोबारा गया? तो फिर रामकिशन ग्रेवाल के परिवारों से मिलने की बात राजनीति कैसी है? क्या ये इतना बड़ा अपराध है कि एक उपमुख्यमंत्री को आठ घंटे हिरासत में ले लिया जाए। राहुल गांधी को थाने-थाने घुमाया जाए। ऊपर से ग्रेवाल के बेटों के साथ जो पुलिस ने किया वो क्या था। क्या नेताओं को बेटों से न मिलने देना, राजनीति नहीं है?

दरअसल, आप पाठकों को यह खेल समझना होगा। हर राजनीतिक दल के भीतर राजनीति समाप्त हो गई है। किसी दल में आंतरिक लोकतंत्र नहीं रहा। दलों के भीतर लोकतंत्र ख़त्म करने के बाद अब उनकी नज़र देश के भीतर लोकतंत्र को समाप्त करने की है इसीलिए राजनीति नहीं करने का लेक्चर झाड़ने वाले नेताओं की बाढ़ आ गई है। उत्तर प्रदेश में आतंक के झूठे केसों में फंसाए गए नागरिकों के अधिकारों की मांग को लेकर रिहाई मंच ने प्रदर्शन किया। आप पता कीजिए कि रिहाई मंच के राजीव यादव को पुलिस ने किस कदर मारा है। यूपी हो या दिल्ली या मध्य प्रदेश कहीं भी सवाल करने वालों की ख़ैर नहीं है। अलग अलग संस्थानों के पत्रकारों से मिलता रहता हूं। सभी डरे हुए लगते हैं। नहीं सर, लाइन के ख़िलाफ़ नहीं लिख सकते मगर असली कहानी ये है। सही बात है, कितने पत्रकार इस्तीफा दे सकते हैं, इस्तीफा तो अंतिम हल नहीं है। क्या हमारा लोकतंत्र इतना खोखला हो गया है कि वो दस पचास ऐसे पत्रकारों का सामना नहीं कर सकता जो सवाल करते हैं। क्यों मुझसे आधी उम्र का नौजवान पत्रकार सलाह देता है कि आपकी चिन्ता होती है। कोई नौकरी नहीं देगा। क्यों वो अपनी नौकरी की चिंता में डूबा हुआ है कि कुछ लिख देंगे तो नौकरी जाएगी।

आप पाठक और दर्शक इतना तो समझिये कि किसी भी नेता या दल को पसंद करना आपकी अपनी राजनीतिक समझ का मामला है। आप बिल्कुल पसंद कीजिए लेकिन किसी नेता का फैन मत बनियेगा। जनता और फैन में अंतर होता है। फैन अपने स्टार की बकवास फिल्म भी अपने पैसे से देखता है। जनता वो होती है जो नेताओं का बकवास नहीं झेलती। सवालों से ही आपका अपने राजनीतिक निर्णय के प्रति भरोसा बढ़ता है। यह तभी होगा जब आम पत्रकार डरा हुआ नहीं होगा। अगर नेता इस तरह सवाल करने पर हमला करेंगे तो मेरी एक बात लिखकर पर्स में रख लीजिए। यही नेता एक दिन आप पर लाठी बरसायेंगे और कहेंगे कि देखो, हमने सवाल पूछने वाले दो कौड़ी के पत्रकारों को सेट कर दिया, अब तुम ज्यादा उछलो कूदो मत।

ऐसा होगा नहीं। ऐसा कभी नहीं हो सकता। निराश होने की ज़रूरत भी नहीं है। फिर भी पत्रकारों के भीतर भय के इस माहौल को दूर करने की ज़िम्मेदारी जनता की भी है। जब वो सत्ता बदल सकती है तो प्रेस के भीतर घुस रही सत्ता को भी ठीक कर सकती है इसलिए आप किसी के समर्थक हों, सवाल कीजिए कि ये क्या अखबार है, ये क्या चैनल है, इसमें ख़बरों की जगह गुणगान क्यों है। हर ख़बर गुणगान की चाशनी में क्यों पेश की जा रही है? आप पाठक और दर्शक जो महीने से लेकर अब तो घंटे-घंटे डेटा के पैसे दे रहे हैं, पता तो कीजिए कि वास्तविकता क्या है? हमारी आज़ादी आपकी आज़ादी की पहली शर्त है।

तीन दिन से इंटरनेशनल कॉल के ज़रिए कई लोग फोन कर भद्दी गालियां दे रहे हैं, अगर आपने अपनी राजनीतिक आस्था के चलते इनका बचाव किया तो ऐसे लोगों के पास आपका भी फोन नंबर होगा। आपकी भी बारी आएगी। रामनाथ गोयनका पुरस्कार वितरण के समापन भाषण में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक राजकमल झा ने प्रधानमंत्री के सामने ही एक किस्सा सुना दिया। एक बार अखबार के संस्थापक और स्वतंत्रता सेनानी रामनाथ गोयनका जी से किसी मुख्यमंत्री ने कह दिया कि आपका रिपोर्टर अच्छा काम कर रहा है। गोयनका जी ने उसे नौकरी से निकाल दिया। आज ऐसे पत्रकारों को सरकार इनाम देती है। सुरक्षा देती है। आप पाठकों को सोचना चाहिए। कल सुबह जब अख़बार देखिएगा, चैनल की हेडलाइन देखिएगा, तो सोचिएगा। और हां, कहिएगा कि ऐसे सभी मामलों में राजनीति होनी चाहिए क्योंकि राजनीति लोकतंत्र की आत्मा है। लोकतंत्र का शत्रु नहीं है। हमारी आवाज़ चली गई तो आपके हलक से पानी भी नहीं उतरेगा।

(लेखक एनडीटीवी में सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

    

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