गाँवों की बेरोज़गारी मिटाने के लिए कुटीर उद्योगों की जरूरत है

Dr SB Misra | Dec 15, 2016, 21:12 IST
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डिजिटल इंडिया और कैशलेस भारत की कल्पना एक बहुत बड़ी छलांग होगी लेकिन इसे इतने कम समय में हासिल करने के लिए उससे कई गुना अधिक कठिनाइयां आएंगी जितनी नोटबन्दी में आ रही हैं। मेक इन इंडिया और मेड इन इंडिया के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कृषिप्रधान भारत को उद्योग प्रधान देश बनना होगा और उसके लिए गाँवों में स्किल एक दिन या एक महीने में विकसित नहीं हो पाएगी, शहर और गाँव की खाई एक दिन में नहीं पट जाएगी। यदि साइंस और टेक्नोलॉजी के लिए नेहरू जैसा प्रयास हुआ तो कटोरा लेकर पीएल 480 का गेहूं खोजना होगा। जवान और किसान केवल नारों तक सिमट कर न रह जाएं।

गाँवों में भारी उद्योग नहीं लगाए जा सकते क्योंकि मूलभूत सुविधाएं जुटाने में बहुत समय लगेगा और यदि उद्योग शहरों में ही लगते रहे तो ग्रामीणों का शहर की ओर पलायन यथावत रहेगा और औद्योगीकरण से गाँव का कोई लाभ नहीं होगा इसलिए गाँववालों को वहीं रोजगार देने के लिए जरूरी है स्थानीय कच्चे माल का उपयोग करके गाँवों में ऐसे उद्योग लगाए जाएं जिसके लिए वहां मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हों और कम समय में ही स्किल विकसित की जा सके।

यदि सफेद चीनी ने सैकड़ों साल से चले आ रहे गुड़ और खांडसारी उद्योग को पंगु न बना दिया होता तो आज भारत डायबिटीज की दुनिया की राजधानी न होता। किसान तो सरकार और मिल मालिकों की रस्साकशी में पिसता रहता है उसका अपना विकल्प समाप्त हो गया। समर्थन मूल्य की समस्या तो है ही साथ में समय पर पैसा मिलने की भी समस्या है। गन्ना किसान पूरी तरह से चीनी मिलों पर निर्भर हो गया है। शायद इसी निर्भरता के कारण कभी-कभी किसानों को खेतों में ही गन्ना जला देना पड़ता है। स्थानीय स्तर पर इस उद्योग को वैज्ञानिक ढंग से विकसित करके रोजगार के बड़े अवसर निकल सकते हैं। खादी ग्रामोद्योग के सहयोग से कुछ लोगों ने गुड़ का उत्पादन आरम्भ किया परन्तु सफल नहीं हुए। गुड़ पर उतनी भी रिसर्च नहीं हुई है जितनी बैलगाड़ी और हल पर हुई है।

चीनी की अपेक्षा गुड़ अधिक स्वास्थ्यवर्धक है, उत्पादन सरल और सस्ता है। इसमें अनेक खनिज पदार्थ जैसे लौह, मैगनीशियम, पोटाश, फास्फोरस और कैल्शियम होते हैं जो चीनी में नगण्य हैं। इसमें अनेक विटामिन होते हैं जो चीनी में नहीं होते। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि मधुमेह की जननी चीनी को इतना महत्व मिला है और मधुमेह के लिए अपेक्षाकृत कहीं कम हानिकारक होते हुए भी गुड़ को नजरअंदाज़ किया गया। आयुर्वेद में गुड़ को अनेक लाभों वाला माना गया है जैसे गन्ने का रस लीवर के लिए लाभदायक है, गुड़ पाचक होता है, फेफड़ों के लिए हितकर है और थकान मिटाने वाला है। इसमें पोटाश होने के कारण दिल के लिए लाभदायक हैं और वजन को घटाने वाला है। परन्तु गाँवों में गुड़ बनाने का चलन ही समाप्त हो रहा है तो पीने के लिए रस कहां से मिलेगा।

केवल गुड़ ही नहीं गाँवों की अनेक चीजें अतीत की गुफा में जा रही हैं। दूध से पनीर और मावा मिलावट के शिकार हो चुके हैं, कम ताप पर पिसा हुआ आटा अधिक पौष्टिक होता है, बिना पॉलिश की दालें बेहतर होती हैं। रेशे वाले खाद्य पदार्थ अच्छे माने जाते हैं और यही सब गाँव की विशेषता थी, परन्तु अब पारम्परिक ढंग से बनने वाली इन चीजों का चलन नहीं रहा। इन पर ना तो कोई रिसर्च हुई और ना ही सरकारों का प्रोत्साहन मिला। इनका कुटीर ढंग से बनना ही बन्द हो गया। अब तो गाँवों में भी पॉलिश की गई दालें और चावल, मैदा जैसा महीन आटा मिलता है और इनसे निकले पौष्टिक पदार्थों से शहरों के व्यापारी टॉनिक बनाते हैं। सच कहा जाए तो चीनी के दुर्गुणों को उसी प्रकार प्रचारित किया जाना चाहिए जैसे तम्बाकू की बुराइयों को बताया जाता है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि निर्यात योग्य बनाने के लिए इनकी हाइजीन यानी साफ-सफाई पर विशेष ध्यान देना होगा।

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