मुद्रा के संक्रमण काल को न्यूनतम करने का प्रयास हो

Dr SB Misra | Nov 12, 2016, 17:43 IST
prime minister narendra modi
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने करेंसी नोटों में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया तो समाज के विभिन्न वर्गों पर इसका अलग-अलग प्रभाव पड़ा। जहां पार्टियों और उनके नेता तिलमिला गए वहीं समझदार लोग तकलीफ़ को झेलने को तैयार हैं। गाँवों के गरीब, मजदूर और छोटे किसान वास्तविक कठिनाई का सामना कर रहे हैं।

यह सच है कि दूरस्थ गाँवों तक बैंक पहुंचे हैं और उन पर उसी प्रकार लम्बी कतारें लगी हुई दिखीं जैसे शहरों में लगी थीं लेकिन शहर वालों के पास कैशलेस विकल्प मौजूद हैं लेकिन गाँवों में नहीं। उन्हें पैसा चाहिए तुरन्त क्योंकि रबी की बुवाई में खेत को पानी, बीज और खाद के लिए एक-एक दिन की देर हो रही है। समय पर न मिला तो भुखमरी की नौबत आ सकती है।

एक व्यावहारिक समस्या देखने को मिली। नन्हे नाम का एक ड्राइवर है उसकी पत्नी और दो छोटे बच्चे गाँव में रहते हैं। वह घर में कुछ पैसा छोड़ आया था जो बड़े नोट थे। नन्हे के पास पत्नी का फोन आया कि पैसों के बिना कठिनाई बहुत है और गाँव में उधार भी नहीं मिल रहा। उसने बताया केवल 50 रुपया उधार मिला है सब्जी खरीद ली है। ऐसे अनेक मजदूर जो शहर जाते हैं मजदूरी करने लेकिन वहां भी पैसा नहीं मिला और जो चिल्लर था वह किराए में चला गया। गाँवों को शहरी व्यवस्था पर इतना निर्भर नहीं करना चाहिए।

गांधी जी का विचार था कि ग्राम स्वराज के अन्तर्गत सभी गाँव स्वावलम्बी होने चाहिए और प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग में ग्रामीणों का निर्णय ही नहीं ग्रामीणों का स्वामित्व भी होना चाहिए। उत्तर प्रदेश में विभिन्न नामों से आदर्श गाँवों की योजनाएं चली हैं लेकिन इन्हें आदर्श गाँव नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनके जीवन की डोर शहरों के हाथ में है। यदि गाँवों में साहूकार की दुकान पर अनाज देकर नमक, तेल, मसाला ले पाते या साहूकार उधार दे देता तो नन्हे का परिवार भूखा नहीं रहता। नन्हे अपने गाँव गया है कुछ व्यवस्था करने।

गाँव को आदर्श और स्वावलम्बी तभी कहा जाएगा जब वहां के लोगों को मजदूरी करने के लिए शहरों को पलायन ना करना पड़े, स्थानीय सामग्री का उपयोग करके भवन निर्माण होता हो, अपने उपयोग लायक कपड़े बनते हों, शुद्ध जल और प्राणवायु उपलब्ध हो, वृक्षों की हरियाली हो, दूध घी की बहुतायत हो और फसल और पशुओं के लिए पर्याप्त जल संचय होता हो।

जब हम सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और बायोगैस का गाँवों में भरपूर उत्पादन और उपयोग कर सकते हैं तो मुफ्त बिजली देकर ग्रामीणों का ईमान खराब करने की आवश्यकता नहीं है और न खैरात देकर उन्हें भिखारी बनाने की जरूरत है। शहरी मानसिकता के चलते ग्रामीण नौजवानों में अपने पारम्परिक व्यवसायों के प्रति हीनभाव पैदा हो गया है और वे डेयरी, मुर्गी पालन, मछली पालन जैसे कामों से दूर भागते हैं क्योंकि इन कामों को साफ सुथरा बनाने के लिए रिसर्च नहीं हुई। ग्रामीण व्यवसायों के रहने से जिन्दगी पूरी तरह करेंसी पर निर्भर नहीं होगी।

ग्रामीण लोग फल और सब्जी उगाते हैं और सड़ने के डर से किसी भाव बेच देते हैं, उद्योगपति उन्हें डब्बों में बन्द करके अथवा जैम जेली बनाकर पूरा लाभ कमाते हैं। यह सभी काम गाँव में उचित प्रशिक्षण देकर गाँव वालों के द्वारा हो सकते है, गाँवों को कुपोषण से मुक्त कराकर स्वावलम्बी बनाया जा सकता है। करेंसी का कम से कम उपयोग होगा तो महंगाई पर स्वतः नियंत्रण रहेगा।

गाँवों के लोग अपने को कम्प्यूटर की गति से बदल नहीं पाते, उन्हें समय लगता है इसलिए वे नई व्यवस्था को स्वीकार करेंगे लेकिन उसमें स्पष्टता जल्दी आनी चाहिए, संक्रमण काल बहुत छोटा होना चाहिए। यदि गाँवों में ऑर्गेनिक खेती होने लगे और रसायनिक खादों से मुक्ति मिल सके तो मुद्रा और मंडी का रिश्ता आसान हो जाएगा दूध दही छोड़कर ग्रामीण नौजवान चाय की राह नहीं पकड़ेंगे। आदर्श गाँव छोटा शहर नहीं होगा, पर प्रकृति की गोद में फलता फूलता शिशु होगा। हजारों साल के अनुभव का लाभ लेकर पुरानी नींव पर नया महल होगा। पुरातन को युगानुकूल बनाकर हरियाली भरे वातावरण में परिवार भाव से रहता हुआ जन समूह होगा। ऐसा स्थान जिसके लिए शहर के लोग कहेंगे चलो गाँव की ओर चलें।

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