सरकारी आश्वासनों के बाद भी सड़कों पर प्रवासी मजदूरों की पैदल यात्रा जारी है

संकट के इस दौर में इन प्रवासी मजदूरों ने जो कष्ट झेला है उसका प्रतिकूल परिणाम आगे आने वाले लम्बे समय तक दिखाई देगा। अब वापस उन्हें शहरों की तरफ ले जा पाना बहुत मुश्किल होगा और गाँव में ही उनके लिए सम्मानजनक रोजगार की व्यवस्था कर पाना शायद उससे भी मुश्किल।

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सरकारी आश्वासनों के बाद भी सड़कों पर प्रवासी मजदूरों की पैदल यात्रा जारी है

वल्लभाचार्य पाण्डेय

तमाम सरकारी आश्वासनों और घोषणाओं के बावजूद सड़कों पर प्रवासी मजदूरों का पैदल, साईकिल से आवागमन रुकता नहीं दिखाई दे रहा है। पिछले दिनों महाराष्ट्र में ट्रेन की पटरी पर सोये हुए 14 मजदूरों की दर्दनाक मौत के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जी ने घोषणा की कि प्रदेश में कोई भी प्रवासी मजदूर पैदल चलता न दिखे उसे घर पहुंचाने की व्यवस्था सरकार द्वारा की जायेगी। लेकिन उक्त घोषणा का कोई विशेष जमीनी असर दिखाई नहीं दे रहा।

अभी भी शहर से निकलने वाली सड़कों पर मजदूरों का चलना जारी है। कोई पंजाब से बलिया जाने को निकला है तो कोई रेनुकोट से सिवान के लिए। लॉक डाउन (एक) के समय जब इस प्रकार का काफिला अचानक सड़क पर निकल पड़ा था तो तमाम जन संगठन, धार्मिक सस्थाएं और प्रशासन की तरफ से इन मजदूरों के लिए राहत शिविर संचालित किये गये थे, कोई चायपान और विश्राम करवा रहा था तो कोई खाने का पैकिट वितरित कर रहा था लेकिन अब ऐसा कुछ भी नही हो रहा है, कुछ संवेदनशील संस्थाओं को छोड़ कर कोई इन प्रवासी मजदूरों से सहानुभूति नहीं दिखा रहा है बल्कि नफरत की नजरों से देख रहा है जिससे इनका कष्ट और बढ़ जा रहा है। पैसा देने पर भी इन्हें खाने पीने की चीजें मुश्किल से मिल पा रही हैं। ऊपर से हिकारत और नफरत अलग से मिल रही है।

वाराणसी के चौबेपुर क्षेत्र से गुजरने वाले वाराणसी गाजीपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर पिछले रविवार से ही प्रवासी मजदूरों की बड़ी संख्या दिख रही है, बुधवार को इसमें कुछ कमी आयी फिर भी अभी बहुत से लोग अपनी मंजिल की तरफ चल रहे हैं। मैंने पिछले 2-3 दिनों में अपने घर के सामने से गुजरने वाले कुछ लोगों से बातचीत करके उनकी समस्या और परिस्थिति को समझने की कोशिश की। कुछ कहानियां तो विचलित कर देने वाली हैं।

राजेश, दिनेश, रामसागर और धर्मेन्द्र मुंबई से विगत 2 मई को पैदल निकल पड़े। उससे पहले उन्होंने तमाम सरकारी कार्यालयों का चक्कर लगाया, फोन किया, वेबसाईट पर पंजीकरण किया, उनके गाँव वाले अपने पैत्रिक जगह से भी अधिकारियों को सम्पर्क करते रहे और गुहार लगाते रहे कि हमे घर वापस भेजने की व्यवस्था की जाए। लेकिन कोरे आश्वासन के सिवा कुछ हासिल नही हुआ तो हार मान कर पैदल ही निकलने का निर्णय लिया रास्ते में कभी कोई गैस सिलिंडर की गाड़ी मिली तो कभी कोई दरियादिल ट्रक वाला जिसने इनकी मदद की। बड़ी मुश्किलों से रास्ते भर लोगों की नफरत और गालियां खाते-खाते 10 दिन में वाराणसी पहुंचे अभी आगे बलिया के रसड़ा तक की पदयात्रा करनी है।

ऐसी मिलती जुलती कहानी गंगा प्रसाद, अमरदेव, पिंटू, साहिल और अनवर की भी है। दिसम्बर महीने में पहली बार गाँव से कमाने के लिए बाहर निकले, गुजरात के सूरत में एक कारखाने पर ठेकेदारी व्यवस्था के मजदूर के रूप में। लॉक डाउन के पहले सप्ताह में ही ठेकेदार गायब हो गया। किसी तरह गुहार लगाकर कम्पनी के अधिकारियों से मिन्नत करके प्रति व्यक्ति 12 हजार रुपया मिला उसमे से आधे से अधिक एक महीने के खाने रहने में खर्च हो गया। आगे कुछ मिलने की गुंजाइश नहीं रही। घर वापस पहुंचने की लगातार कोशिशें नाकाम होने पर 4 मई को पैदल चल पड़े, 2-3 दिन चलने के बाद हिम्मत छूटने लगी तो एक छोटे बाजार में दूकान खुलवा कर सबने एक एक साइकिल खरीद ली जो 4300 रुपए की मिली, इससे आगे का सफर थोड़ा आसान हुआ, रास्ते में कई बार कोई लोडर गाड़ी वाले ने मदद की तो साइकिल उस पर रख कर कुछ किलोमीटर का सफर कटा। अभी गोपालगंज तक की यात्रा करनी है। रास्ते में कभी कभार कोई पानी चाय आदि के लिए पूछ देता है तो मानवता पर विश्वास बढ़ जाता है नहीं तो बस निराशा की हाथ लिए मायूस चेहरे के साथ घर वापसी हो रही है।


मेहसाणा गुजरात से दो सप्ताह पहले पैदल निकले सोनू, अरविन्द और केशव गाजीपुर के शेरपुर के पास के हैं। वहां गन्ने का जूस बेचने की मशीन पर मजदूरी का काम करते हैं। पिछले 4-5 वर्ष से हर साल जाते हैं, 4-5 महीने में 20 हजार से ऊपर रुपए बचा कर लाते थे। इस बार सीजन मारा गया। खाने के लाले पड़ गये। सरकारी शेल्टर होम में एक टाइम खिचड़ी मिल जाती थी तो कभी किसी भंडारे में पूड़ी सब्जी। कभी कभार फांका भी हो जाता था। अखबार, सोशल मीडिया आदि से अपने गाँव वापस जाने के लिए ट्रेन, बस चलने की सूचना मिलती थी तो कुछ उम्मीद जगती थी। सरकारी दफ्तर तक पहुंचना आसान नहीं था क्योंकि बहुत दूरी भी थी और कोई साधन भी नहीं मिलता था। फिर भी कई बार कोशिश की, कागजात दिए फार्म भरा। यहां गाँव में रहने वाले उनके पारिवारिक सदस्य भी सम्बन्धित अधिकारियों के यहां सम्पर्क करते रहते थे लेकिन जवाब में केवल आश्वासन ही मिलता था। जब सब्र टूट गया तो पैदल ही निकल पड़े। फिर पता चला बाद में कुछ ट्रेन चली थी अब पछतावा होता है कि काश रुक गये होते तो ट्रेन से आ जाते खैर अब दो दिन में घर पहुंचने की उम्मीद से आंखों में संतोष दिख रहा है।

पटियाला (पंजाब) से 16 दिन पैदल चल रहे मुहम्मदाबाद गाजीपुर के विनोद और ओम प्रकाश का साथ बीच रास्ते में कहीं हुआ, अब दोनों बोलते बतियाते एक दूसरे की हिम्मत बढ़ाते मंजिल की और आगे बढ़ रहे हैं, चन्द्रावती बाजार में एक दुकान से पैसे देकर केला खरीदना चाहे तो दुकानदार ने बुरी तरह डांट कर भगा दिया 'तुमको कुछ नहीं देंगे, आगे बढ़ो करोना वाले'। इस व्यवहार ने दोनों के अंतर्मन को बुरी तरह छलनी कर दिया।

रेनुकूट (सोनभद्र) से साइकिल से 4 दिन पहले चले हुए राजकुमार की कहानी तो और मार्मिक है। एक साल पहले से एक प्राइवेट ठेकेदार के साथ टेक्निकल काम करते थे, रेनुकूट शहर में ही किराये के कमरे में पत्नी और 2 बच्चों सहित रहते थे, लॉक डाउन में किसी तरह पहला महीना तो कटा लेकिन अब मुश्किल होने लगी अन्त में कोई रास्ता न सूझने पर साइकिल से ही गाँव निकलने का विकल्प चुना। हैंडल में एक बैग, पीछे बगल में दूसरा बैग, बड़े बच्चे को आगे की रॉड पर बैठा दिया, उसकी उम्र 3 साल होगी। कैरियर पर पत्नी दूसरे बच्चे जिसकी उम्र 10 माह होगी को लेकर बैठी हैं। 4-5 किलोमीटर साइकिल खींचने के बाद जब सांस उखड़ने लगती है तो थोड़ी देर विश्राम कर लेते हैं। 30 वर्षीय राजकुमार के चेहरे पर थकान का भाव है लेकिन इस बात का संतोष भी कि 2-3 दिन में सिवान अपने गाँव पहुंच जाऊंगा। मारकुंडी की पहाड़ियों पर चढ़ाई सबसे कठिन लगी। पूछने पर तपाक से बोलते हैं अब फिर कभी नहीं लौटना है रेनुकूट, गाँव में ही रह कर कोई काम खोजूंगा भले ही कम पैसा मिले।

एक रिक्शा ट्रॉली पर कई बैग, बोरा, गठरी और दूसरी ट्रॉली पर 2 महिलाएं 3 बच्चे और तीसरी पर 2-3 युवा। ये लोग बलिया में बैरिया के पास के एक ही परिवार के सदस्य हैं। दिल्ली में विगत तीन वर्ष से मजदूरी, पल्लेदारी आदि काम करते हैं। रिक्शा ट्रॉली इनकी खुद की है। कठिनाई के कुछ दिन काटने के बाद 12 दिन पहले सब कुछ लाद कर वापस गाँव की तरफ चल पड़े, रास्ते में कई जगह रोक टोक, पूछ ताछ भी हुई लेकिन किसी तरह आगे बढ़ते रहे। अब दो दिन में अपने गाँव पहुँचने वाले हैं। टीम के एक सदस्य मुकेश कुमार बताते हैं कि मोबाइल, बर्तन, साइकिल आदि दिल्ली में बेच दिया, रास्ते में भी कुछ सामान बेचना पड़ा। कई बार आंधी तूफ़ान भी मिला। खाने का सामान कुछ लेकर चले थे कुछ रास्ते में लोगों ने दिया भी। आगे से बड़े शहर में कभी नहीं जाएंगे। गाँव में ही मेहनत मजूरी करेंगे।

ये कुछ कहानियां ऐसे लोगों की हैं जो रास्ते में चलते समय कुछ विश्राम करने और बात करने की स्थिति में थे ऐसे बहुत से लोग हैं जो अब किसी से भी बात करना ही नहीं चाहते जैसे उनका इन बातों से मन ही भर गया हो। वे बताते हैं कि रास्ते में कुछ लोग मिलते हैं एक पैकेट बिस्कुट हाथ में पकड़ा कर बीस फोटो खींचते हैं। हम भिखारी नहीं हैं साहब बस मुसीबत के मारे लोग हैं। इनसे बातचीत करते हुए कोई मोबाइल फोन या कैमरा साथ न रखने का मेरा निर्णय मुझे बहुत सही लगा। इनसे बातचीत करके मैंने पाया कि इनमे से अधिकांश लोग पंजीकृत श्रमिक नहीं हैं, कम्पनियों से जुड़े ठेकेदार इन्हें काम के लिए ले जाते हैं। इनका कोई संगठन नहीं है इस वजह से कोई सरकारी लाभ इनके तक नहीं पहुंच पाता।

लेकिन इस निराशा भरी स्थिति में कुछ एक संस्थाएं और संवेदनशील लोग इनके लिए मसीहा भी बन रहे हैं और इनकी मुश्किलें कम करने में बहुत सहायक हो रहे हैं। इन्हीं सब सद्प्रयासों से इन प्रवासी मजदूरों की हिम्मत अभी बनी हुई है और वे तमाम शारीरिक और मानसिक कष्ट के बावजूद अपनी मंजिल की तरफ धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन सरकार और व्यवस्था के प्रति उनका असंतोष उनके चेहरे पर स्पष्ट दिख रहा है।

संकट के इस दौर में इन प्रवासी मजदूरों ने जो कष्ट झेला है उसका प्रतिकूल परिणाम आगे आने वाले लम्बे समय तक दिखाई देगा। अब वापस उन्हें शहरों की तरफ ले जा पाना बहुत मुश्किल होगा और गाँव में ही उनके लिए सम्मानजनक रोजगार की व्यवस्था कर पाना शायद उससे भी मुश्किल।

(लेखक वल्लभाचार्य पाण्डेय वाराणसी में सामाजिक कार्यकर्ता हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)

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