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कुर्सी तोड़ने से नहीं क़ाबिल बनने से ही संभव है अच्छी नौकरी मिलना

बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण है दिशाहीन शिक्षा, जिसमें बच्चों को यह नहीं पता कि किस मंजिल तक जाने के लिए पढ़ रहे हैं और और उसे पाने का रास्ता क्या है? घर वालों को भी यह नहीं मालूम कि वह अपने बच्चों को किस लिए पढ़ा रहे हैं।

आजकल जो नेता लोग बेरोजगारी की दुहाई दे रहे हैं अगर उनके बारे में सोचा जाए यदि वे मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुए होते और जो योग्यता उन्होंने हासिल की है उसके आधार पर नौकरी की तलाश में मार्केट में आ जाते तो उन्हें कौन सी नौकरी मिलती। हो सकता है बाबूगीरी की नौकरी मिल जाती और कुछ को तो द्वारपाल की नौकरी भी मिलनी मुश्किल हो जाती। यह सब इसलिए कि उन्होंने एक बड़े परिवार में बिना कुछ किए धरे ही पार्टी के मुखिया बनने का अधिकार प्राप्त कर लिया। लेकिन जब कोई एंपलॉयर एक एंप्लॉय को रखेगा तो उसकी योग्यता, क्षमता, अनुभव आदि के बारे में विचार करेगा और तब उसे रोजगार देगा। मान कर चलिए कि जो लोग बेरोजगार हैं और पढ़े-लिखे भी है उन्होंने डिप्लोमा कर-कर के डिग्रियाँ बटोर-बटोर कर अपने पास रख ली हैं, लेकिन किसी कंपटीशन में भाग लिया हो तो हैसियत का पता चले। मुख्य रूप से समस्या इस बात की नहीं है कि देश में काम नहीं है समस्या इस बात की है कि लोग बिना काम किया पैसा बटोरना चाहते हैं।

आइए और देखिए गाँव में जो सरकार ने सरकारी रेट मजदूरी का निर्धारण किया है उस रेट पर आदमी नहीं मिल रहे हैं काम पड़ा है, यह सब समस्याएं इसलिए हैं कि जो लोग बेरोजगारी के लिए हो हल्ला करते और सड़कों पर शोर मचाते हैं, उन्हें व्हाइट कॉलर जॉब चाहिए, जिनकी एक सीमा है, कोई भी सरकार उस सीमा से अधिक व्हाइट कॉलर जॉब नहीं दे सकती। हमारे देश के कर्णधारों ने नेतागिरी के लिए कोई योग्यता नहीं रखी, क्योंकि यह प्रजातांत्रिक सिद्धांत के विरुद्ध जाता था, लेकिन देश चलाने के लिए पदाधिकारी बनने के लिए अंगूठा टेक लोगों को या अर्ध शिक्षित लोगों को अधिकार नहीं होना चाहिए था।

बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण है दिशाहीन शिक्षा, जिसमें बच्चों को यह नहीं पता कि किस मंजिल तक जाने के लिए पढ़ रहे हैं और और उसे पाने का रास्ता क्या है? घर वालों को भी यह नहीं मालूम कि वह अपने बच्चों को किस लिए पढ़ा रहे हैं। मुझे लगता है सरकार स्कूल दर स्कूल खोलती जा रही है और वह यह नहीं जानती कि यह स्कूल हम किस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए खोल रहे हैं। 70  साल से योजना आयोग बना था लेकिन मैं समझता हूँ  शिक्षा के अलावा बाकी सब चीजों की प्लानिंग होती थी। अब तो नीति आयोग आ गया है और पुरानी व्यवस्था समाप्त हो चुकी है। स्कूलों में बच्चे अंग्रेजी पढ़ेंगे, अंग्रेजी माध्यम से पढ़ेंगे शायद यह नहीं जानते कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर वह सेल्समैन से अधिक क्या बन पाएंगे? या फिर इतनी अंग्रेजी पढ़े कि विदेश चले जाएं।

हमारे देश में ऐसा कोई विभाग नहीं जो अंग्रेजी पढ़े लोगों को हाथ फैला कर नौकरी देता हो और क्षेत्रीय भाषा वालों को नौकरी न मिलती हो। जिन लोगों को काम की आवश्यकता होती है और भले ही किसी काम के लिए ओवर क्वालिफाइड होते हैं, तब भी वह काम को स्वीकार करने में संकोच नहीं करते। हमें ध्यान रखना चाहिए कि हमारे देश के बहुत ही महान गणितज्ञ श्री रामानुजन जो बाद में सारी दुनिया में मैथमेटिशियन के रूप में विख्यात हुए उन्होंने प्रारंभिक दिनों में रेलवे में क्लर्क की नौकरी स्वीकार कर ली थी, शायद आर्थिक दशा ने मजबूर किया होगा। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने दैनिक जीवन में आते हैं जब योग्यता अधिक होते हुए भी क्षमता और योग्यता के अनुरूप काम नहीं मिल पाता। ऐसे लोगों को यदि चाहे तो बेरोजगार कह सकते हैं लेकिन वे लोग कभी भी सड़कों पर हो हल्ला नहीं मचाते। सड़कों पर हो हल्ला मचाने के लिए बेरोजगार लोगों को इकट्ठा करके कुछ राजनेता जिनके पास काम नहीं है और जो स्वयं बेरोजगार हैं वह इन लोगों का मार्गदर्शन करते हैं।

केवल बेरोजगारों का नहीं बल्कि बात-बात में कभी किसानों को, कभी पहलवानों को बरगलाकर देश का कीमती समय बर्बाद करते हैं। बेरोजगारी बढ़ाने में कुछ नियम कानून भी बाधक होते हैं जैसे हजारों लोगों की भर्ती हो जाने के बाद यदि आरक्षण कम हुआ है तो सारी भर्तियाँ निरस्त कर दी जाती हैं। ऐसा एक बार नहीं अनेक बार किसी न किसी कारण से हो चुका है और इसका कोई पक्का निदान सामने दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि अनेक बार आरक्षण कोटा को भरने के लिए पर्याप्त कैंडिडेट नहीं मिल पाते और आरक्षण के नियम को पूरी तरह लागू नहीं किया जाता। अध्यापकों की भर्ती में अनेक बार करीब 60000 तो कभी और ज्यादा चयनित लोगों की भर्ती को निरस्त कर दिया जाता है, माननीय अदालत के द्वारा। अब यह है कि आरक्षण का सवाल और भी जटिल होने वाला है जब देश की 3000 जातियाँ गिन-गिन कर लामबंद की जाएँगी और प्रत्येक जाति अपनी आबादी के हिसाब से आरक्षण माँगेगी। ऐसी हालत में एक अन्य तरफ दफ्तरों, कारखानों और उद्यम के प्रतिष्ठानों में जगह खाली रहेगी, तो दूसरी तरफ कितने ही लोग बेरोजगार पड़े रहेंगे। ऐसी विषम परिस्थिति मैंने पश्चिमी देशों में कभी नहीं देखी और मैं समझता हूँ कि समाजवादी और साम्यवादी देशों में भी यह स्थिति नहीं आती है।

बात सिर्फ रोजगार की नहीं बल्कि विशेषज्ञता, स्वदेशी व्यवसाय और देश की प्रगति का भी हुआ करता है। जब देश आजाद नहीं हुआ था तो हमारे तब के भारत में ढाका की मलमल से एक से एक अच्छे कपड़े बनाए जाते थे। लेकिन मैनचेस्टर से आने वाले कपड़ों ने हमारे जुलाहों द्वारा बनाए गए कपड़ों को दबा दिया और देश में न केवल विशेष प्रकार के वस्त्र बल्कि सामान्य कपड़े भी नहीं बन पाते थे। गांधी जी ने इस समस्या को हल करने के लिए स्वदेशी खादी और विविध प्रकार के अन्य अवसर पैदा करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया। कुछ ही समय में खादी के वस्त्र प्रतिष्ठा का चिन्ह बन गए और न केवल राजनेता बल्कि अन्य लोग भी इसका उपयोग करने लगे। आजाद भारत में खादी फिर से बढ़ गई और बाहर से आने वाले कपड़े बाजार से हट गए।

अब सवाल है कि उन विशेष कार्यक्रमों का क्या हुआ? उनके वंशज उस उद्योग को क्यों नहीं चला पाए। हमारे देश में तब अलग से कौशल विकास के केन्द्र तो नहीं थे और ना प्रशिक्षण की संस्थाएं थी लेकिन सारा समाज व्यवसायिक ग्रुपों में बंटा हुआ था जिन्हें कालांतर में जाति कहा गया। जब बच्चा पैदा होता था तभी से घर में विविध प्रकार की चीजें बनती हुई देखता रहता था और बड़ा होकर वह एक अच्छा कारीगर बन जाता था, लेकिन आजादी के बाद इन व्यवसायिक ग्रुपों को कोई सहयोग या समर्थन नहीं मिला और इन्हें समाप्त करने का पूरा प्रयास किया गया। पहले गाँवों में किसान का बेटा किसी लोहार, बढ़ई, जुलाहा या अन्य कौशल को जानने वाले परिवार में पैदा होता था, तो वह प्रशिक्षण के लिए कहीं नहीं जाता था, लेकिन आज यदि वह फर्नीचर की दुकान खोलना चाहता है या लोहे के यन्त्रों का व्यवसाय करना चाहता है अथवा कपड़े का व्यापारी बनना चाहता है तो उसे अपने को मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से उसके लिए ढालना होता है। हम चाहे तो जातियों के विनाश को बल्कि व्यावसायिक वर्गों को समाप्त करने में अपना गौरवशाली इतिहास मान लें लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत का सनातन कौशल चाहे जिस क्षेत्र में हो समाप्त हो चुका है और विदेशी ज्ञान देश की गली-गली में प्रचलित है। हम किसी क्षेत्र में महारत हासिल करने की स्थिति में नहीं है और पहले जब काम नहीं होता था किसी आदमी के पास तब वह अपना पारिवारिक व्यवसाय अपने आप आरम्भ कर देता था और वह बेरोजगार नहीं होता था।

रोजगार और शिक्षा का सीधा घनिष्ठ सम्बन्ध है और परिवार जो प्रारंभिक पाठशाला हुआ करता था वह अब नहीं रहा। स्कूलों में उद्योग से सम्बन्धित आर्ट और क्राफ्ट का कुछ ज्ञान दिया जाता था जिससे बच्चों का रुझान क्रिएटिव दिशा में बढ़ सके। इसके पहले अंग्रेजों को ना तो उद्यमी चाहिए थे और ना चाहिए थे वैज्ञानिक और ना शिक्षक, उन्हें तो चाहिए थे क्लर्क जैसा मैकाले ने स्वयं कहा था। उन्होंने अपनी आवश्यकता अनुसार शिक्षा का प्रबन्धन किया और सचमुच देश से असंख्य क्लर्क निकले जिन्होंने ब्रिटिश राजतन्त्र को आगे बढ़ाया। मैं नहीं जानता की मुगल काल में शिक्षा व्यवस्था कैसी थी और भारत वासियों को किस प्रकार सनातन ज्ञान दिया जाता था लेकिन कम से कम स्वतन्त्र भारत में शिक्षा व्यवस्था का राष्ट्रहित में नियोजन होना चाहिए था। अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि शिक्षा या तो साम्यवादियों द्वारा स्वतन्त्र भारत में अथवा विदेशों में पले-बढ़े लोगों द्वारा जिन्हें भारतीय परिस्थितियों और आवश्यकताओं का ज्ञान ही नहीं था, उनके द्वारा शिक्षा व्यवस्था चलाई गई।

कहने को देश में योजना आयोग बनाया गया, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में  कौन सी योजना थी जिसके तहत भारत के आवश्यकताओं की पूर्ति हो पाई हो? कम से कम अब तो नीति आयोग का गठन हुआ है लेकिन अभी भी कौन उच्च शिक्षा और कौन प्राविधिक शिक्षा का पात्र होगा? यह फैसला समाज के कर्ता-धर्ता नहीं करते। मैंने दूसरे देशों में देखा कि बच्चे जब कक्षा 10 पास कर लेते हैं, तो उनके रुझान को देखते हुए उनके मन के विषयों में प्रवेश दिया जाता है और वह कहीं न कहीं अपने लिए स्थान बना लेते हैं, चाहे सरकारी प्रतिष्ठानों में अथवा व्यापारिक संस्थानों में या नहीं तो खुद के व्यवसाय में। उसके बाद अंडर ग्रेजुएट छात्रों को उनके रुचि, रुझान और क्षमता के अनुसार सुविधा उपलब्ध है, जहाँ वे प्रवेश ले सकते हैं और समय से अपना जीवन आरम्भ कर सकते हैं। मैंने देखा कि विदेशों में एमए, एमएससी और पीएचडी की कक्षाओं में गिने चुने स्थानीय छात्र-छात्राएं होते हैं, बाकी बाहरी देशों से वहाँ पढ़ने के लिए जाते हैं।

हमारे यहाँ कोई छात्र हाई स्कूल पास करके जब उसकी कुछ समझ में नहीं आता तो वह इंटरमीडिएट में अपना नाम लिखा लेता है और इंटर के बाद बीए, बीएससी, बीकॉम में और तब भी कुछ रास्ता नहीं दिखाई पड़ा तो एमए, एमएससी और एमकॉम में नाम लिखा लेता है। इन कक्षाओं में जाने के लिए ना तो कोई एप्टीट्यूड टेस्ट होता है ना उनकी क्षमता, योग्यता और रुझान पर ध्यान दिया जाता है, इसलिए नतीजा यह होता है कि हमारे विश्वविद्यालय से निकले हुए लाखों-लाखों छात्र- छात्राएं घर में बैठ जाते हैं और चाहते हैं कि उन्हें सरकारी नौकरी मिल जाए, क्योंकि अपना काम शुरू करने के लिए जो आवश्यकता है उनके पास है नहीं, व्यापारिक संस्थान और कम्पनियाँ कितने लोगों को रखेंगे? आज के कम्प्यूटर के जमाने में। सरकार बहुत सी नौकरियाँ देती भी है लेकिन उनमें कोई ना कोई खामियाँ निकल आती हैं और वह नियुक्तियाँ निरस्त हो जाती हैं, जगहें खाली पड़ी हैं, अभ्यर्थी बेरोजगार घूम रहे हैं, यह बीच की दूरी कैसे समाप्त होगी? यह इसका उत्तर सरकारों को, समाजसेवियों को, बुद्धिजीवियों को या शिक्षा संस्थानों को तो खोजना ही होगा ।

हमारे लिए अमेरिका और यूरोप के आर्थिक मॉडल प्रासंगिक नहीं हो सकते थे लेकिन उन्हें ही स्वीकारा गया, घनी आबादी वाले चीन और जापान में भी शायद बेरोजगारों का इतना प्रतिशत नहीं होगा जितना हमारे देश में है। इसका एक कारण टेक्नोलॉजी का चयन ही नहीं बल्कि दिशाहीन शिक्षा भी है। शायद सरकार को भी अपने नागरिकों की मंजिल का पता नहीं है, अन्यथा योजना आयोग का जब गठन किया गया 50 के दशक में तो उसमें यह सोचा जाना चाहिए था कि मैंकाले का युग बीत चुका है जिसे केवल क्लर्क पैदा करने थे अब तो परिश्रम करने वाले पढ़े लिखे लोग चाहिए, कुर्सी तोड़ने वाले नहीं। यह प्रमुख कारण है कि नौकरी की तलाश में ऐसे अक्षम और अयोग्य लोग आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं, पैसे या सिफारिश की ताकत पर जो अन्यथा श्रमजीवी बनने के लायक भी नहीं है और वह `एन केन प्रकारेण नौकरी के ठेकेदारों के चक्कर में आ जाते हैं और यह समस्या एक दिन में नहीं दशाब्दियों में बनकर तैयार हुई है। इससे निपटने का एक ही समाधान है, शिक्षा को समय और आवश्यकता के अनुसार नियोजित करना, योग्यता और क्षमता के आधार पर उच्च शिक्षा के लिए आगे बढ़ने देना, फिर चाहे प्रजातन्त्र आगे आए या फिर प्रबुद्ध वर्ग संघर्ष के लिए आकर खड़ा हो।

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