मानव अस्तित्व और धर्म: जनहित में कैसा हो हमारा आध्यात्मिक स्वरूप?

Dr SB Misra | Nov 22, 2025, 11:56 IST
मन में एक सवाल आना स्वाभाविक है कि आखिर धर्म मनुष्य के अस्तित्व के लिए कितना जरूरी है? आखिर मनुष्य कोई धर्म लेकर तो पैदा नहीं होता; उसे जिस परिवार में वह पैदा हुआ, उसके बड़े-बूढ़ों से धर्मज्ञान मिलता है।
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दुनिया के सभी देशों में कभी न कभी धर्म की अवधारणा प्रस्तुत हुई है और उसके अनुसार अनुयायी अपना जीवन चलते हैं। लेकिन मानव अस्तित्व के लिए धर्म की अवधारणा कैसी होनी चाहिए कि मानव अस्तित्व खतरे में न पड़े? जब जीव 84 लाख योनियों में होता हुआ चौपाया से दो पैरों पर खड़ा हो गया तो यह जीव विकास का बहुत बड़ा कदम था। इस जीव में सोचने की शक्ति और विवेक-बुद्धि पैदा हुई और वह सह-अस्तित्व तथा सहिष्णुता को समझने लगा, जबकि चौपाया केवल अपने बारे में सोचते हैं। लेकिन दो पैरों पर चलने वाला यह मनुष्य धीरे-धीरे दूसरे सहजीवियों के साथ एक भाव उत्पन्न करने लगा। शायद इसी प्रकार की सोच से वसुधैव कुटुम्बकम, विश्व बंधुत्व जैसे विचारों का जन्म हुआ होगा और धर्म का विचार आने लगा होगा।

पशुओं और मनुष्य में एक ही अंतर है ज्ञान का। और ज्ञान होने के बाद ही धर्म आदि विचारों का उदय हुआ होगा। कुछ धर्मों में एक धार्मिक पुस्तक है, चाहे उसे मनुष्य ने लिखा हो अथवा ईश्वर द्वारा बताया हुआ रास्ता माना गया हो। वैसे भारत में धर्म के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि इनके न तो कोई प्रवर्तक हैं और न ही कोई एक पुस्तक। जो भी हो, धर्म का विचार एक विकसित सोच रहा होगा जो बिगड़कर धर्मांधता और धर्मयुद्ध के रूप में सामने आता गया।

हिन्दू धर्म बहुत ही व्यापक है। इसमें एक ईश्वर को मानने वाले अद्वैत या एकेश्वरवादी, अनेक ईश्वरों को मानने वाले द्वैत या अनेकेश्वरवादी, साकार या निराकार ईश्वर को मानने वाले अथवा ईश्वर को न मानने वाले नास्तिक भी शामिल हो सकते हैं। भगवान को नहीं मानने से कोई व्यक्ति हिन्दू धर्म से बाहर नहीं होगा। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम और दशरथ-नन्दन मानने वालों की कमी नहीं है और वे हिन्दू हैं। मूर्तिपूजा भी अनिवार्य नहीं है। आर्य समाज और ब्रह्म समाज के लोग मूर्तिपूजा नहीं करते, फिर भी वे हिन्दू हैं। ऐसी आज़ादी देने वाला दूसरा धर्म शायद नहीं होगा। कौन हिन्दू है, कौन नहीं—इसका निर्णय हिन्दू धर्माचार्य नहीं करते; यह व्यक्ति स्वयं करता है, हिन्दू जीवन मूल्यों को स्वीकार करके। कोई व्यक्ति हिन्दू तन से नहीं, मन से होता है।

उच्चतम न्यायालय ने बहुत पहले माना था कि हिन्दू धर्म एक जीवन-शैली है। हिन्दू धर्म किसी एक पुस्तक अथवा किसी एक धर्मगुरु तक सीमित नहीं है। हिन्दू धर्म कभी खतरे में नहीं पड़ सकता; वह सनातन है, शाश्वत है। मंदिर और मूर्तियां तोड़ने से भी नहीं मिटा क्योंकि यह सही अर्थों में व्यक्ति-केन्द्रित है। 14 सितम्बर 1893 को अमेरिका के शहर शिकागो में होने वाली विश्व धर्म संसद में हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में हिन्दू धर्माचार्यों ने किसी गांधी को नहीं, बल्कि स्वामी विवेकानंद को राजा साहब खेतड़ी ने स्वतंत्र संन्यासी के रूप में भेजा था। स्वामी विवेकानंद ने उस दिन के अंतिम वक्ता के रूप में अपना संबोधन आरम्भ किया यह कहकर-“ब्रदर्स एंड सिस्टर्स ऑफ़ अमेरिका, आई स्पीक टू यू ऑन द नेम ऑफ़ हिन्दुइज्म, द मदर ऑफ़ ऑल रिलिजन्स।” अमेरिका के लोगों ने ऐसा संबोधन पहले नहीं सुना था और सभी श्रोता हाल में खड़े हो गए थे, प्रशंसा और सराहना के भाव के साथ। उन्होंने हिन्दू जीवन-दर्शन को बड़े ही सशक्त ढंग से प्रस्तुत किया और हिन्दू धर्म की पताका फहराकर स्वदेश लौट आए।

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गाँव का अनपढ़ किसान एक चबूतरे पर थोड़े से पत्थर रखता है, शंकर मानकर उन पर जल चढ़ाता है और पूजा आरंभ कर देता है। यह उसकी आस्था का विषय है। वह अनपढ़ यह कहता है—“घट-घट में राम बसे हैं,” और तुलसीदास ने कहा—“जड़-चेतन जग जीव यत, सकल राममय जानि।” हिन्दू धर्म का मूल तत्व है—सत्य, अहिंसा और परमार्थ। भगवान के अस्तित्व पर सवाल उठाने और प्रकृति-पूजा की आज़ादी केवल हिन्दू धर्म में है।

हिन्दू धर्म ने मछली (मत्स्यावतार) और सूअर (वाराहावतार) में भी भगवान को देखा है। मेरे गांव के पास एक गांव में आज भी वाराह मंदिर बना हुआ है और पूजा होती है। इसलिए आस्था के विषय पर भी विज्ञान की तरह तर्क और शास्त्रार्थ की आज़ादी देता है हिन्दू धर्म। यह सब महापुरुषों ने ही बताया है। हिन्दू धर्म की विशेषता रही है- हर नए विचार को स्वीकार करना और सम्मान देना। हिन्दू धर्म के विषय में महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक My Religion में लिखा है—“Hinduism is immortal.”

हिन्दू धर्म की जीवन-शैली को कोई भी, कभी भी, कहीं भी अपना सकता है। उसे किसी उपदेश अथवा आदेश की आवश्यकता नहीं होती। रहीम, रसखान, कबीर और साई बाबा ने सत्य की खोज के लिए हिन्दू विचारों को स्वीकार किया। हिन्दुत्व का यह विराट रूप बना रहना चाहिए।

समय और परिस्थिति के अनुसार अपने को परिष्कृत करने की अनुमति केवल हिन्दू धर्म देता है, इसीलिए इसमें झंझावातों को झेलने की शक्ति है। लेकिन सहिष्णुता, सहृदयता और विश्वबंधुत्व के उदात्त विचारों के साथ ही इन विचारों को आगे बढ़ाने वालों की रक्षा भी जरूरी है। ज्ञान के साथ ही शक्ति भी चाहिए, जिससे कोई गौरी, गजनवी और चंगेज़ खां आए तो विनाश न कर सके।

मन में एक सवाल आना स्वाभाविक है कि आखिर धर्म मनुष्य के अस्तित्व के लिए कितना जरूरी है? आखिर मनुष्य कोई धर्म लेकर तो पैदा नहीं होता; उसे जिस परिवार में वह पैदा हुआ, उसके बड़े-बूढ़ों से धर्मज्ञान मिलता है। एक बार स्वामी विवेकानंद से किसी ने पूछा कि क्या मूर्तिपूजा अनिवार्य है? तो उनका उत्तर था—“बिल्कुल नहीं। यदि ज्ञान इतना हो जाए कि मनुष्य ईश्वर को या ब्रह्म को या कहें—कॉस्मिक एनर्जी को समझ सके, तो मूर्तिपूजा की कोई आवश्यकता नहीं है।”

faith different religions spirituality (1)
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प्रत्येक व्यक्ति अपनी बौद्धिक क्षमता के हिसाब से ईश्वर की कल्पना करता है और उसे अपने जीवन का सहारा मानकर चलता है। मुझे याद है, मैं बस्तर की पहाड़ियों पर भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण कर रहा था। दो सहायक और एक स्थानीय गाइड साथ था। एक दिन बहुत से आदिवासियों ने रास्ते में कड़क आवाज में पूछा—“क्या कर रहे हो?” मैंने कहा—“पत्थरों की जांच कर रहा हूं।” उन्होंने कहा—“पहाड़ के ऊपर ‘ट्रिन-ट्रिन’ हथौड़ी चलाते हो; उनमें हमारा देवता रहता है। और तुमने न तो मुर्गा चढ़ाया, न बकरा चढ़ाया, रोज पहाड़ों पर ‘ट्रिन-ट्रिन’ करते घूमते हो।” मैंने कुछ देर समझाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने समझा नहीं। तभी मेरी नजर एक पेड़ पर पड़ी—एक आदिवासी धनुष पर बाण चढ़ाए बैठा था। मैंने साथियों से कहा—चलो, और हम कैंप में लौट आए। निष्कर्ष यह था कि वे जंगलों और पहाड़ों पर अपने इष्टदेव को मानते थे और उन्हें लगता था कि बिना अर्पण किए छेड़ना पाप है।

उन्हीं दिनों मेरे गाँव में एक चबूतरे पर, नीम के पेड़ के नीचे कुछ पत्थर रखे गए थे, जिन पर रोज बड़े-बूढ़े जल चढ़ाते थे और वे कल्पना करते थे कि उन पत्थरों में शंकर जी विराजमान हैं। आज मेरे गाँव में चार मंदिर हैं; उस समय एक भी नहीं था। लेकिन तब के लोगों में आस्तिक भावना आज की अपेक्षा कहीं अधिक थी। इसके विपरीत इस्लाम धर्म के लोग मस्जिदों में और ईसाई लोग गिरजाघर में अपने ढंग से पूजा करते हैं और अदृश्य खुदा या ईश्वर एवं उनके पुत्र ईसा मसीह को याद करते हैं, जबकि हिन्दू धर्मावलंबियों का दृष्टिकोण बहुत व्यापक है।

अपने-अपने धर्म का प्रचार करते हुए अनेक बार खूनी संघर्ष हो जाता है और तब धर्म मानव जाति के कल्याण के लिए न होकर वर्चस्व की लड़ाई में बदल जाता है। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं- इस्लाम मानने वालों के संघर्ष और भारत में हिन्दू–मुस्लिम दंगों के। इससे मानव जाति का कोई लाभ नहीं हुआ। कई बार लगता है कि यदि धर्म न हो, तो धर्मयुद्ध भी नहीं होंगे। इसलिए धर्म की सनातन परिभाषा पर ध्यान देना होगा। गाँवों में कहा जाता है कि जीव-रक्षा हमारा धर्म है; सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलना हमारा धर्म है। यहां धर्म का अर्थ कर्तव्य है। यदि धर्म मानव-कल्याण के लिए कर्तव्य निभाने वाला सिद्ध हो, तो धर्म आवश्यक है। इसके विपरीत यदि यह धर्मांध लोगों द्वारा वर्चस्व की लड़ाई में बदल जाए, तो अवांछनीय है।

आवश्यकता इस बात की है कि सनातन धर्म में निहित वसुधैव कुटुम्बकम या विश्व बंधुत्व की भावना को यदि सभी स्वीकार कर लें, तो विश्व-धर्म की प्राप्ति हो सकती है। धर्म यदि जीवन-शैली को सुधारने के काम आ सके, तब यह मानव जाति के लिए अनिवार्य हो सकता है। शायद यह कठिन काम है। मनुष्य का अहंकार, अपना वर्चस्व बताने का स्वभाव—विश्वबंधुत्व के मार्ग पर चलने नहीं देगा। तब दूसरे उपाय सोचे जाएंगे—यदि विश्वबंधुत्व लक्ष्य न बन सके, तो जियो और जीने दो का सिद्धांत लागू किया जा सकता है। लेकिन यह भी धर्माचार्य सुझाएंगे और मनुष्य स्वयं अपनी अंतरात्मा से निर्णय करेगा।

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