किसान एवं वैज्ञानिक मिलकर करें काम

Devinder Sharma | May 27, 2017, 15:11 IST
वैज्ञानिक
इस सप्ताह मैं कश्मीर घाटी में वदूरा के कृषि महाविद्यालय बात करने पहुंचा। श्रीनगर से 70 किलोमीटर दूर स्थित इस महाविद्यालय की स्थापना 1962 में हुई थी। यह बारामूल्लाह की सूरम्य घाटी में स्थित है जहां सेब की खेती प्रमुख है इसलिए इस कॉलेज में शोध का केंद्र भी सेब है।

इस दौरान सेब की खेती करने वालों, कृषि वैज्ञानिकों और विद्यार्थियों से आपसी बातचीत के दौरान, ध्यान निश्चित तौर से सेब पर चला गया। जब मैंने किसानों से उनकी मुख्य समस्याओं के बारे में पूछा तो नकली कीटनाशक (पेस्टीसाइड) को ही प्रमुख समस्या बताया। घाटी में सेब की खेती में प्रयोग आने वाला कीटनाशक 40 से 50 प्रतिशत, मिलावटी, घटिया या नकली है। एक किसान ने खुलासा किया, ‘हम कृषि विद्यालय के बताए अनुसार ही कीटनाशक का प्रयोग करते हैं लेकिन सेब की घातक बीमारी को नियंत्रित नहीं कर पाते क्योंकि कीटनाशक ही नकली होता है।’

वैज्ञानिकों ने ये माना कि नकली कीटनाशक बड़ी समस्या है क्योंकि राज्य में केवल दो श्रीनगर और जम्मू में रेफरल टेस्टिंग लैब हैं, टेस्ट की रिपोर्ट आने में इतना लंबा समय लेती है कि तब तक फसल का मौसम निकल जाता है और नुकसान हो चुका होता है। ये समस्या कितनी अधिक फैल चुकी है ये इस बात से समझा जा सकता है कि मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती को ये आदेश देना पड़ा कि नकली कीटनाशक बेचने वालों पर पब्लिक सेफ़्टी एक्ट लगाया जाए। ये आदेश मध्य फ़रवरी में आया था लेकिन समस्या ज्यों की त्यों है।

किसानों के लिए, नकली कीटनाशक के व्यापार को समाप्त करने में असफ़लता का नतीजा न केवल अधिक मात्रा में आर्थिक नुकसान है बल्कि इससे कीट और बीमारियां बढ़ जाती हैं जिससे पैदावार को नुकसान होता है और आमदनी कम आती है। उदाहरण के लिए एक किसान जिसके पास सेब की खेती के लिए 65 कनाल ज़मीन है उसने कीटनाशक छिड़कने में सात लाख रुपए खर्च किए। सोचिए कि उसे कितना आर्थिक नुकसान सहना पड़ा, नकली दवाई छिड़कने के कारण।

किसानों की तकलीफ़ सुनकर मुझे पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में हुई 30 साल पहले की ऐसी ही स्थिति याद आ गई। इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता होने के नाते मैंने उस समय कीटनाशक में मिलावट के फैल रहे चक्र को उजागर किया था। मुझे अभी भी याद है कि एक समाचार रिपोर्ट में बताया गया था कि कैसे पंजाब के कपास क्षेत्र में, नीली स्याही को प्रसिद्ध ब्रांड रोगोर कीटनाशक के रूप में बेचा गया था। जब मैंने ये खास प्रसंग बताया तो धीरे से एक किसान ने खड़े होकर कहा कि अभी भी कश्मीर घाटी में रोगोर ब्रांड की अलग-अलग किस्में, निर्माताओं द्वारा बेची जा रही हैं।

नकली कीटनाशक का निर्माण और बिक्री का व्यापार बहुत अधिक फैला है, जो पिछले कई वर्षों से लगातार बढ़ रहा है। मैं ये समझ पाने में नाकाम हूं कि कीटनाशक कानून में इतने संशोधनों के बावजूद व सरकार के फ़ैसले और घोषणाओं के बाद भी गैरकानूनी व्यापार न केवल चल रहा है बल्कि बढ़ रहा है। ऐसा क्यों है कि आखिरकार कृषि अधिकारी इस संकट से आंखें मूंद लेते हैं? क्या ये, यह नहीं दर्शाता कि कृषि विभाग में भ्रष्टाचार कितना फैल गया है? आखिरकर, नकली कीटनाशक व्यापारी तभी फलते-फूलते हैं जब कृषि अधिकारी उन पर शिकंजा कसने में असफ़ल रहते हैं।

वो राज्य जो देश की लगभग 25 लाख टन सेब की उपज का 75 प्रतिशत पैदावार करता है, नकली कीटनाशकों के कारण कितना ज्यादा नुकसान सहना पड़ता होगा। ये नकली कीटनाशक न केवल पर्यावरण का नुकसान करते हैं बल्कि फसल कीट और बीमारियों को रोकने में अक्षम होते हैं। ऐसी स्थिति में किसान को जो आखिरी आर्थिक नुकसान भोगना पड़ता है वो शायद एक ऐसी रुकावट है जो किसानों की आय बढ़ाने में आड़े आती है। कश्मीर घाटी में सेब की पैदावार साधारणतया 18 टन है और सेब की पैदावार महत्त्वपूर्ण ढंग से बढ़ाने में शायद नकली कीटनाशक रोड़ा बन रहे हैं।

मैंने किसानों से पूछा कि क्या उन्हें आभास है कि जो छिड़काव वो कर रहे हैं वो ज़हर है तुरंत एक उत्तर मिला, ‘हां, हम जानते हैं कि रासायनिक कीटनाशक ज़हर है लेकिन, अगर कृषि वैज्ञानिक हमें कोई सुरक्षित विकल्प दें जो पर्यावरण और इंसान की सेहत के लिए सही हो तो हम वही प्रयोग में लाएंगे।’ दुर्भाग्यवश अधिक विकल्प उपलब्ध नही हैं। कृषि वैज्ञानिकों को रसायन रहित कीटनाशक उपज के अभ्यास की ओर ध्यान देना होगा। अब समय आ गया है कि कृषि महाविद्यालय बेहतर फ़सलों की किस्मों पर पौध प्रजनन अनुसंधान, रसायन की बजाय ऑर्गेनिक तरीकों से करें।

तकनीकी मुद्दों के साथ सेब के सामने विपणन की एक बड़ी समस्या है। कश्मीर में सेब की विपणन प्रणाली व मूल्य वितरण पर नाबार्ड (नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डिवलेपमेंट) की 2013 की रिपोर्ट आंखें खोल देने वाली है, जिसमें सुगठित दलालों द्वारा सेब उत्पादकों और उपभोक्ताओं का शोषण खुल कर सामने आया है। जहां आप सेब की ख़रीद के लिए 150 रुपए से 200 रुपए प्रतिकिलो देते हैं वहीं उत्पादक को तकरीबन 25 रुपए प्रतिकिलो मिलता है जबकि उत्पादन लागत 35 रुपए प्रतिकिलो आती है।

1970 में आज़ादपुर मंडी में 16 किलो की एक पेटी का दाम 50 रुपए था जो 2015 में 500 रुपए से 600 रुपए हो गई है। एक सेब उत्पादक का कहना है, ‘ये कीमत में दस गुना बढ़ोतरी है जो किसान को मिलती है। उगाने की लागत तकरीबन सौ गुना बढ़ चुकी है परंतु हमें 45 वर्षों में इसका अंतिम मूल्य दस गुना ज़्यादा ही मिला है।’ किसान मेरे इस विश्लेषण से सहमत थे कि कीमतों को जानबूझकर कम रखा गया है जिसके कारण किसान बदहाली में है।

एक किसान ने आपसी बातचीत का यह निष्कर्ष निकाला कि सेब की खेती अभी मरी नहीं है लेकिन बीमार ज़रूर है। उम्मीद करते हैं 2017- कश्मीर में सेब का साल- के दौरान सेब की खेती अपना खोया हुआ सम्मान वापस पाएगी। इसके लिए निश्चित रूप से एक लक्ष्य बना कर चलना होगा जिसमें सेब के उत्पादक किसान, विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक, नीति निर्धारण करने वालों को ज़्यादा उत्तरदायित्व लेना होगा।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)

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