किसान दिवस विशेष: अपने हक के लिए किसानों को सत्ता को ललकारना होगा

Devinder SharmaDevinder Sharma   23 Dec 2016 3:40 PM GMT

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किसान दिवस विशेष: अपने हक के लिए किसानों को सत्ता को ललकारना होगादेवेंद्र शर्मा का लेख “ज़मीनी हकीकत”।

अब बात बर्दाश्त से बाहर हो गई है। किसानों को अगर खेती-किसानी को देश की अर्थव्यवस्था के राडार पर लाना है तो उन्हें खुद ही प्रयास शुरू करना होगा। 70 साल से सियासी दल किसानों और खेती को सिर्फ दो मकसदों-वोट बैंक और लैंड बैंक के लिए ही इस्तेमाल करते आ रहे हैं।

क्या यह संभव है? खेती-किसानी को जितनी तवज्जो पहले मिलती थी क्या उतनी महत्ता फिर से मिल पाना संभव है? क्या खेती-किसानी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार फिर से बनेगी, जैसा कि इसे आम तौर पर अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार माना जाता रहा है?

मुझे कभी संदेह नहीं रहा लेकिन ऐसा तभी होगा जब किसान खुद सवाल करें। किसान ऐसे संगठित हों ताकि राजनीति की धारा को मोड़ा जा सके। राजनेता (और राजनीतिक दल) उन्हें गंभीरता से लें। पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले बुधवार को जब भारतीय किसान यूनियन के राजेवाल धड़े ने चंडीगढ़ में किसान संसद लगाई तो मुझे अहसास हुआ कि किसान अब राजनेताओं तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए तैयार हैं। मुझे पक्का भरोसा है कि सैकड़ों की संख्या में किसान संसद की कार्यवाही देखने के लिए जुटे किसानों, जो देश में शायद पहली बार हुई है, को सशक्त करेगी। उन्हें अहसास दिला गई होगी कि वे भी बदलाव ला सकते हैं।

इस प्रबल राजनीतिक संवाद के दौर में सबसे अच्छा तरीका यही है कि सीधे हस्तक्षेप किया जाए और यह तभी संभव हो पाएगा जब सभी किसान एकसाथ उठ खड़े हों और राजनेताओं के सम्मुख अपनी बात रखें और उन्हें बता दें कि उन्हें दरवाजे का पांव दान न समझा जाए जैसा अब तक राजनीतिक दल करते आए हैं।

जैसा लोकसभा में होता है, मुझे बतौर किसान संसद अध्यक्ष न सिर्फ पद की गरिमा को ध्यान में रखते हुए शालीनता और शिष्टाचार को कायम रखना था बल्कि नेताओं को असल मुद्दों को छोड़कर बकवास करने से भी रोकना था जैसा आम तौर पर वे मुद्दे से हटकर राज्य विधानसभाओं में करने लगते हैं। राजनीतिक बहस के दौरान जब लोग मुद्दे से भटके तो मुझे उन्हें रोकना पड़ा लेकिन इससे मुझे उन्हें सवालों को और बेहतर ढंग से रखने का ज्ञान देने का अवसर भी मिला ताकि वहां इकट्ठा दर्शक उस बहस का तात्पर्य ढंग से समझ सकें और कोई भी प्रश्न पूछ सकें। बीकेयू अध्यक्ष बलबीर सिंह राजेवाल किसानों की ओर से सवाल कर रहे थे।

इस संसद का उद्देश्य चुनाव (पंजाब में फरवरी में चुनाव होने की संभावना है) में मुद्दा देने का था, क्योंकि राजनीतिक दलों ने बीते विधानसभा चुनाव किसानों से किए गए झूठे वादों के आधार पर लड़ा। जब चुनाव खत्म हो जाता है तो किसानों को भुला दिया जाता है और यही हाल उनसे किए वादों का होता है। किसान संसद का उद्देश्य यह भी मूल्यांकन करना था कि राजनीतिक दल पंजाब के किसानों की उम्मीदों और मांगों को कितनी तवज्जो देते हैं। वह वक्त जब किसानों के लिए माना जाता था कि वह राजनीतिक नेतृत्व को अपनी मांगों का ज्ञापन ही सौंपेगा, लेकिन अब किसानों को अपनी मांगों पर सीधे नेताओं से जवाब मांगते और उसके लिए क्या कार्ययोजना और उसे पूरा होने में कितना समय लगेगा से संबंधित बातचीत करते देखकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।

इस बार चुनाव में तीन बड़े दल आमने-सामने हैं-भाजपा, आप और कांग्रेस। इनका प्रतिनिधित्व क्रमश: हरजीत सिंह ग्रेवाल, कंवर संधू और कुलजीत सिंह नागरा कर रहे हैं। सत्तारूढ़ दल शिअद प्रत्यक्ष तौर पर सीन से गायब है। संभवत: वह नाराज किसान का सामना नहीं कर चाहता, जो उसके बीते 10 साल के शासनकाल में बनी नीतियों से हाशिए पर चला गया है।

ज्यादातर सवाल किसानी की बदहाली और संकट पर थे जो देश की खेती पर छाया हुआ है। ये सवाल वर्षों से किसान को नज़रअंदाज़ किए जाने और उसके मुद्दों के प्रति उदासीनता की स्थिति बनाए रखने के कारण उपजे थे। अगर देश के अन्न के कटोरे माने जाने वाले पंजाब जैसे राज्य में किसानों की ये स्थिति है तो देश के अन्य हिस्सों के किसानों का हाल सोचा जा सकता है। गेहूं और धान की सबसे ज्यादा उत्पादकता शायद विश्व में सबसे ज्यादा होने के बाद भी पंजाब किसानों की आत्महत्याओं का गढ़ बनता जा रहा है। ऐसा शायद ही कोई दिन होता है जब अख़बार राज्य के किसी हिस्से में किसान आत्महत्या की ख़बर न छापें।

हालांकि जब मुद्दा राजनैतिक दलों द्वारा किसानों के लिए 18,000 रुपए की मासिक आय सुनिश्चित किए जाने का उठा तो मंचासीन सभी ने इसका समर्थन किया। उन्होंने ये भी भरोसा दिलाया कि किसान की अनाज खरीद की प्रक्रिया और उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिलने में यदि कोई भी बाधा उत्पन्न की जाती है तो वे लोग उसे सफल नहीं होने देंगे। मंच पर मौजूद आप पार्टी के प्रतिनिधि ने तो यह तक कहा कि उनका दल किसान को एमएसपी और फसल की लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफे के बीच जो भी अंतर होगा, उसे अपने संसाधनों से पूरा करेगी, जैसा कि स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट में सुझाया गया था।

किसानों पर बढ़ते कर्ज़ को माफ करने का मुद्दा भी काफी ज़ोर-शोर से उठा। इस पर मंच पर मौजूद सभी दल के प्रतिनिधि एक दूसरे पर आरोप मढ़ने लगे। इस बीच बीजेपी, जो कि शिरोमणि अकाली दल के साथ पंजाब में सत्ता में है, के प्रतिनिधि ने कहा कि शिरोमणि अकाली दल ये बहुत बार साफ कर चुका है कि किसानों का कर्ज़ माफ करना संभव नहीं। हालांकि कांग्रेस और आप पार्टी के प्रतिनिधियों ने उनकी सरकार आने पर ऐसा करने का दावा किया। इन पार्टियों से जब ये पूछा गया कि कर्ज़ माफ करना सिर्फ सहकारी बैंकों तक सीमित है या ये सभी के लिए है, तो आप और कांग्रेस ने सभी राष्ट्रीय बैंकों से लिए गए कर्ज को माफ करने का वादा किया। इन प्रतिनिधियों न समय-सीमा भी बताई और आप पार्टी के प्रतिनिधि ने यह भी साफ किया कि कर्ज़ माफ करने से पहले ये ज़रूर जांचा जाएगा कि कर्ज़ खेती के जिस काम के लिए लिया गया, उसी में लगा या नहीं, अगर ऐसा नहीं हुआ तो उन कर्जों को रोका जाएगा।

तीन घंटों तक चले इस सवाल-जवाब ने राजनैतिक दलों को कम से कम ये तो समझा ही दिया कि किसानों का गुस्सा ढल रही कृषि अर्थव्यवस्था पर केंद्रित है। किसान आर्थिक सुरक्षा चाहता है और अगर सत्ता में आने के बाद किसी भी पार्टी ने उसके इस मुद्दे को नज़रअंदाज किया तो ये उस पार्टी के लिए कतई अच्छा नहीं होगा।

आयोजन के दौरान ही भाकियू ने ऐसे कार्यक्रमों को हर राजनैतिक क्षेत्र में वहां के राजनैतिक प्रतिनिधियों के साथ आयोजित कराने की घोषणा की, जो कि राजनेताओं को किसानों की समस्याओं के लिए जिम्मेदार बनाने के लिए अच्छा कदम है और बहुत सफल रहेगा। ये लोग ऐसी भी व्यवस्था करने की सोच रहे हैं, जिसके तहत वे हर गाँव के बाहर किसानों की मांगों के साथ एक बोर्ड टांगेंगे। भाकियू पंजाब में जो कर रहा है, ऐसे प्रयास हर किसान संगठन को करने चाहिए।

पंजाब के साथ ही उत्तर प्रदेश में भी चुनाव होने जा रहे हैं, किसान संगठनों को एक ऐसा तरीका निकालने की ज़रूरत है जिसके ज़रिए वे राजनैतिक दलों से सीधे संवाद कर सकें। अब समय आ गया है कि किसान राजनैतिक विमर्श तय करने में भागीदारी करने को केंद्र में आएं। केंद्र का मतलब यह नहीं कि किसान चुनाव लड़कर विधानसभा या लोकसभा पहुंचे बल्कि चुनावी प्रक्रिया में प्रभाव छोड़ने के काबिल बने। यह तभी संभव है जब किसानों को नेतृत्व करने वाले संगठन मेमोरैंडम देने के लिए राजनेताओं के दफ्तरों का चक्कर लगाना छोड़कर ऐसा तरीका निकालें जिससे वे उन्हीं नेताओं से सीधे संवाद कर उन्हें अपनी मांग बता सकें और मांगे पूरी होने का आश्वासन पा सकें। अब समय आ गया है कि किसान अपनी एकता के बल को दिखाकर राजनीतिक दल को उसकी ओर देखने के लिए मजबूर करें। आखिरकार किसान ही तो सबसे बड़ा राजनैतिक क्षेत्र हैं।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

      

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