‘चीनी मीडिया की ही तरह हमारा मीडिया भी लड़ाई के लिए तैयार, दोनों को खुला छोड़ देना चाहिए’

शेखर गुप्ता | Jul 25, 2017, 11:09 IST
भारत
पिछले तीन हफ्तों में हम एक ऐसी रणनीतिक हकीकत और खतरे से रूबरू हुए हैं जिसके वजूद के बारे में हमें अंदाजा नहीं था। वह है चीन का मीडिया। डोकलाम में भारत के साथ तनातनी के बीच चीनी मीडिया खतरे का स्तर लगातार बढ़ाता रहा है। ‘ग्लोबल टाइम्स’ में शुक्रवार को प्रकाशित संपादकीय तो बेलगाम होने की हद तक है जिसमें विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को झूठा बताने के साथ ही सीमा पर कई जगह युद्ध छेड़ने की भी धमकी दी गई है।

इस संपादकीय के मुताबिक डोकलाम और कुछ अन्य जगहों पर भारत भले ही कितना ही तैयार क्यों न हो लेकिन आखिर में उसे हार का सामना करना पड़ेगा क्योंकि वह रक्षा पर चार गुना खर्च करता है और उसकी अर्थव्यवस्था भारत से पांच गुना है।

इन धमकियों और अमर्यादित भाषा को सुनकर भारत में कोई भी थरथरा नहीं रहा है। यह कुछ उसी तरह हास्यास्पद है जिस तरह जंग पर उतारू हमारे कमांडो-कॉमिक टीवी चैनल हैं। इन चैनलों पर अक्सर गुस्सैल एंकर और सेवानिवृत्त फौजी अफसर नजर आते हैं। आखिर भारत सरकार ने क्यों अभी तक अपने ‘उत्तर कोरियाई चैनलों’ (अरुण शौरी के शब्दों में) को बैरक में संभाल रखा हुआ है?

चीनी मीडिया की ही तरह हमारा मीडिया भी लड़ाई के लिए तैयार है लिहाजा दोनों को खुला छोड़ देना चाहिए। हमें तो उनसे ही काफी कुछ हासिल हो चुका होता। ऐसा न करने की वजह साधारण और वास्तविक है। हमारा जंग पर उतारु मीडिया निजी हाथों में है और सत्ता प्रतिष्ठानों से मिले संकेतों के आधार पर घरेलू या बाहरी दुश्मनों पर बनावटी और राजनीतिक हमले बोल देता है।

इसकी वजह यह है कि शोरशराबे वाली देशभक्ति से उसे दर्शक मिलते हैं। शक्तिशाली सरकार का साथ भी मिल जाता है जिससे आपकी पहुंच बढ़ जाती है। मीडिया सरकार के सामने अपनी बात नहीं रखता है क्योंकि नीतिगत मामलों में पैंतरेबाजी की काफी गुंजाइश होती है। दूसरी तरफ चीन का मीडिया सरकार के नियंत्रण में है और सरकार उसके माध्यम से अपनी बात रखती है। साम्यवादी क्रांति के बाद से ही ऐसा होता रहा है।

इसीलिए चीनी मीडिया में आ रही बातों को गंभीरता से लेना पड़ता है। आप इन खबरों और लेखों को देखकर भले ही आक्रोशित न हों लेकिन इन्हें महज हंसी-मजाक समझकर चैनल नहीं बदल सकते। दशकों तक चीन पर नजर रखने वाले लोग चीनी मीडिया की टिप्पणियों का गहराई से विश्लेषण करते रहे हैं। अगर आप ग्लोबल टाइम्स के शुक्रवार के संपादकीय को पढ़ें और सारगर्भित तत्वों पर ध्यान केंद्रित करें तो कुछ बातें काफी साफ हो जाती हैं।

पहली, डोकलाम महज प्रतीक है लेकिन चीन का शाब्दिक प्रस्फुटन कहीं अधिक बड़े और सामरिक मुद्दे को लेकर है। चीन खफा है कि भारत लगातार खुद को एशियाई ताकत बता रहा है और वह दुनिया का इकलौता बड़ा देश भी है जिसने खुलकर चीन के वन बेल्ट वन रोड प्रोजेक्ट का विरोध किया था। भारत के सहयोगी देशों अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने भी उस सम्मेलन में शिरकत की थी लेकिन भारत ने बहिष्कार किया था।

दूसरी, भले ही दोनों देश खुलकर यह न कहे लेकिन पाकिस्तान को लेकर वे आमने-सामने आने लगे हैं। तीसरी और सबसे अहम बात, चीन एक व्यापक और अधिक अहंकारी संदेश दे रहा है कि आपने कुछ जल्दी ही खुद को बड़ी शक्ति घोषित कर दिया है। चीन का मानना है कि हम उसकी बिरादरी का हिस्सा ही नहीं हैं।

चीन के मुताबिक भारत न केवल आर्थिक और सैन्य नजरिये से उससे छोटा है बल्कि कई गंभीर समस्याओं को भी दूर कर पाने में नाकाम रहा है। जापान-अमेरिका-भारत के बीच बनती धुरी के मजबूत होने से चीन की झुंझलाहट को समझा जा सकता है। तीनों देशों की सेनाओं का मालाबार युद्धाभ्यास इसकी बानगी है।

हालांकि भारत किसी संघर्ष की स्थिति में अमेरिका और जापान से मदद मिलने को लेकर संदेह की स्थिति में है क्योंकि यह सहयोग ‘मायावी’ है। लेकिन मेरे हिसाब से सबसे अहम बात इस बयान में निहित है, ‘अगर भारत हिंद महासागर में सामरिक भूमिका की सोच लेकर चलता है तो इससे अधिक भोलापन कुछ नहीं हो सकता है। चीन के पास कई तुरुप के इक्के हैं और भारत की कमजोर नस पर वार कर सकता है। वहीं भारत को चीन के खिलाफ सामरिक प्रदर्शन में उलझने से कोई लाभ नहीं होने वाला है।’

चीनी मीडिया खुद को गंभीरता से लिए जाने की वजह से अपने शब्दों के इस्तेमाल में खासी सावधानी बरतता है लेकिन अहंकार के चलते जुबान फिसलना लाजिमी है और आप अपने दिमाग में चल रही बातें भी बोल जाते हैं। भारत की कमजोर नस का जिक्र करना इसी का एक उदाहरण है। यह एक तरह से भारत को चेतावनी है कि वह सतर्क हो जाए। क्या इसका यह मतलब है कि चीन पाकिस्तान से नियंत्रण रेखा पर तनाव बढ़ाने और कश्मीर घाटी में हिंसा बढ़ाने को कहने की धमकी दे रहा है? इनमें से कुछ हरकतें तो शुरू भी हो चुकी हैं।

क्या इससे भारत की नेपाल से लगती सीमा पर भी तनाव बढ़ने के संकेत हैं? भारत की मौजूदा नेपाल नीति को देखें तो चीन अपनी मर्जी से ऐसा कर सकता है। क्या पूर्व-मध्य भारत में माओवादी और पूर्वोत्तर राज्यों खासकर नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश में एक बार फिर उग्रवादी फिर से सक्रिय हो सकते हैं। या फिर ये सारी स्थितियां पैदा हो सकती हैं? ये सारे हालात हमें आत्म-विश्लेषण और भूल-सुधार के लिए मजबूर करते हैं। मध्य भारत के माओवादी चीन के मददगार बन सकते हैं लेकिन वे पहले ही काफी कमजोर हो चुके हैं।

हालांकि पाकिस्तानी सहयोगी कश्मीर में हिंसा जारी रख सकते हैं लेकिन वह हमारी कमजोर नस नहीं बन सकते हैं। यह नस डोकलाम के नजदीक है और सिलिगुड़ी कॉरिडोर से होते हुए बंगाल भीतरी जिलों तक पहुंचती है। वहीं पूर्वोत्तर राज्यों में भी यह नस जाती है। आप उस स्थिति को किस तरह बयां करेंगे जहां आपकी कमजोर नस आपकी गर्दन में छिपी है। यह सामरिक दु:स्वप्न है और चीनी मीडिया इसी पक्ष पर ध्यान दिला रहा है।

कश्मीर और एलओसी पर शांति के लिए तुंरत भारत क्या कर सकता है, इसकी साफ तौर पर सीमाएं हैं। भारतीय सैन्य बलों का एक बड़ा हिस्सा पाक सीमा पर तैनात रहेगा। इस समय आदिवासी माओवादी केवल परेशानी बढ़ा सकते हैं और इन्हें तुरंत खत्म कर पाना भी संभव नहीं है। पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर अलग मामले हैं। अधिकांश समस्याओं की मुख्य वजह मानव-निर्मित है और अपना आधार नहीं रखने वाले इलाके को जल्द पाले में करने के लिए भाजपा की जल्दबाजी का भी नतीजा है।

यह टोंटी भाजपा ने खोली है और वही इसे बंद कर सकती है। नरेंद्र मोदी जैसा ताकतवर नेता इन अंदरूनी मोर्चों पर सख्त कदम उठाने का आदेश दे सकते हैं। उन्हें अपने दखलंदाज राज्यपालों, आरएसएस प्रचारकों और विशेष बलों को फिलहाल वापस लौटने के लिए कहना होगा। एक अधिक ताकतवर दुश्मन हमारे दरवाजे पर खड़ा है। वह हमें आगाह भी कर चुका है कि हम अपनी ही बनाई इन कमजोरियों पर गौर करें। हमें गुस्से में कही गई इस अविवेकी बात का फायदा उठाना चाहिए और अपना घर दुरुस्त कर लेना चाहिए। भाजपा पूर्वोत्तर की विजय को बाद के लिए भी टाल सकती है।

(लेखक अंतराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं यह उनके निजी विचार हैं।)

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