ग्लोबल वॉर्मिंग कहीं कारोबारी साज़िश तो नहीं

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ग्लोबल वॉर्मिंग कहीं कारोबारी साज़िश तो नहीं

पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में लंबी बहस के बाद आख़िरकार सारे देश एक समझौते तक पहुंचे पर मैं इससे बहुत सहमत नहीं हूं। जलवायु परिवर्तन पर हुए समझौते के मामले में भाषा भी बहस और मतभेदों की वजह रही।

शुरू में समझौते के मसौदे में इस बात का जिक्र था कि अमीर देश ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती करने के लिए अर्थव्यवस्था में व्यापक लक्ष्य निर्धारित करेंगे। इसका मतलब कि प्रदूषण की वजह से हरितगृह गैसों में कटौती के लिए नई तकनीक का इस्तेमाल होगा और भारत जैसे देशों में इस नई तकनीक को लगाने में आने वाले खर्च को अमेरिका, कनाडा, जर्मनी जैसे विकसित देश उठाएंगे।

लेकिन अमेरिकी दवाब के बाद इसमें बदलाव कर दिया गया। अब इसे बदल कर इसके शब्द को 'किया जाना चाहिए' कर दिया गया है। यह बदलाव काफी अहम है क्योंकि 'किया जाएगा' के साथ क़ानूनी दायित्व जुड़े हैं। हालांकि समझौते के बाद, पूरी दुनिया की तरह भारत ने भी समझौते का स्वागत किया। अब सारी बहस समझौते के मायने और 'किया जाएगा' और 'किया जाना चाहिए' के विरोधाभास के ईर्द-गिर्द सिमट गई है।

एक बड़ा मुद्दा यह है कार्बन उत्सर्जन, यानी कारखानों से निकलने वाले धुएं से लेकर बिजली बनाने में जले कोयले तक में कटौती का मुद्दा अब अमीर देशों की बाध्यता की जगह अमीर देशों की इच्छा पर निर्भर करेगा। आप चाहे इस समझौते के लिए कितना भी जश्न मना लें। यह मान कर चलें कि विकासशील देशों को साफ-सुथरी ऊर्जा के माध्यम अपनाने के लिए अमीर देश तो बिलियनों डॉलर देंगे ही।

इसी तरह विकासशील और विकसित देशों के अलग-अलग जवाबदेही तय करने की भारत की मांग नहीं मानी गई, तो मान लेना चाहिए कि इससे भारत जैसे देश की महत्वकांक्षा को नु$कसान पहुंचेगा। किसी देश की आर्थिक वृद्धि उसकी ऊर्जा ज़रूरतों के ही मुताबिक तो घटती-बढ़ती है। यह दुनिया के जलवायु परिवर्तन के मद्देनज़र तो ठीक है लेकिन भारत के विकास के नज़रिए के माकूल नहीं है। दूसरी तरफ, आप और पर्यावरण की चिंता में लगातार घुलते रहने वाले लोग मुझ पर लानते भेंजे लेकिन मेरा मानना है कि विकसित देशों ने अपने हिस्से का कार्बन उत्सर्जन तो कर लिया लेकिन अब विकासशील देशों की बारी में वे भांजी मार रहे हैं।

अव्वल तो मुझे ग्लोबल वॉर्मिंग का कॉन्सेप्ट ही विरोधाभासी लगता है। यह सही है कि वातावरण में धुआं और ज़हरीली गैसें उत्सर्जित करके हम आबो-हवा को बिगाड़ रहे हैं पर कुछ वैज्ञानिक और गैर-सरकारी संगठन दूर की कौड़ी लेकर आए हैं कि इससे पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूमने पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। मैंने जितना पढ़ा है उससे सा$फ कह सकता हूं कि यह धारणा भ्रामक है।

तीसरी बात यह कि जलवायु परिवर्तन पृथ्वी पर कोई पहली दफा नहीं हो रहा। धरती के तापमान में हमेशा घटत-बढ़त होती रहती है। पृथ्वी का जलवायुविक इतिहास बताता है कि पृथ्वी के पैदा होने से लेकर अब तक चार बार हिमकाल आ चुके हैं, यानी सारी धरती बर्फ से ढंक गई थी, इनको गुंज, मिंडल, रिस और वुर्म हिमकाल कहते हैं। इसी तरह अपनी विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में आप सबने पढ़ा होगा कि साइबेरिया में हाथी के करोड़ों साल पहले के पुरखे मैमथ का जीवाश्म मिला है जिसकी सूड़ में घास भी मिला है। इसी तरह कुछ और मिसालें दूं, जैसे साइबेरिया और कश्मीर के करगिल में कोयले के भंडार होना। कोयला वहीं बनता है जहां कभी घने जंगल हों।

साइबेरिया और कारगिल में घने जंगल तो तभी रहे होंगे, जब उस इलाके में जलवायु गर्म और नम रही होगी। पृथ्वी में हिमयुगों और गर्म युगों का आना-जाना लगा रहता है। तो धरती के तापमान में बदलने को सिर्फ  प्रदूषण से मत जोडि़ए। हो सकता है कि विकसित देशों की यह कारोबारी नीति हो कि वह अपनी कथित सा$फ-सुथरी तकनीक बेचने के लिए इतने वितंडे कर रहा हो। बस कह रहा हूं, बाकी जो है सो तो हइए है।

(लेखक पेशे से पत्रकार हैं ग्रामीण विकास व विस्थापन जैसे मुद्दों पर लिखते हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

 

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