उच्च शिक्षा का असली लक्ष्य - विशेषज्ञता, न कि भीड़ बढ़ाना

Dr SB Misra | Oct 27, 2025, 10:24 IST
आजकल दिन-प्रतिदिन उच्च शिक्षा की आवश्यकता पड़ती जा रही है — फिर चाहे कंप्यूटर, एयरोनॉटिक्स अथवा अन्य क्षेत्रों की बात हो। अब तो ए.आई. अर्थात आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का युग आने वाला है और उसके लिए उच्च शिक्षा का महत्व और भी बढ़ गया है।
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हमारे देश में उच्च कोटि के शिक्षा संस्थान हुआ करते थे और इसीलिए यह देश जगतगुरु के नाम से जाना जाता था। कालांतर में उच्च शिक्षा के नए संस्थान या तो बने नहीं अथवा आक्रांताओं द्वारा नष्ट कर दिए गए। तक्षशिला और नालंदा जैसे शिक्षण संस्थान उच्च शिक्षा के केंद्र हुआ करते थे, जब दुनिया के कुछ ही देशों में ऐसे संस्थान बने थे। यहाँ पर ज्ञानार्जन के लिए पूर्व में चीन जैसे देशों से और पश्चिम में मध्य पूर्व जैसे देशों से छात्र ज्ञान अर्जन के लिए आया करते थे। यही कारण है कि जहाँ पश्चिम देशों की सभ्यता का इतिहास सैकड़ों वर्षों का है, वहीं भारत के इतिहास का रिकॉर्ड हजारों साल पुराना है।

उच्च शिक्षा के लिए आवश्यक होता है माध्यमिक शिक्षा का मजबूत आधार और छात्र-छात्राओं का मेधावी होना। इसके बिना वैज्ञानिक और शोधकर्ता उपलब्ध नहीं हो पाएँगे, विभिन्न क्षेत्रों में न नई विधाओं का विकास हो पाएगा। जिन देशों के पास उच्च शिक्षा संस्थान और विश्वविद्यालय उपलब्ध नहीं हैं, उनके छात्र विदेशों में ज्ञानार्जन के लिए जाने पर मजबूर होते हैं। उच्च शिक्षा केवल विज्ञान के छात्रों के लिए आवश्यक नहीं, बल्कि दूसरे अन्य क्षेत्र जैसे कला, वाणिज्य आदि में भी जरूरी होती है। लेकिन प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की भाँति उच्च शिक्षा के द्वार सबके लिए नहीं खोले जा सकते; न तो इतने संसाधन उपलब्ध हैं और न बहुत बड़ी संख्या में आवश्यकता ही पड़ती है।

आजकल दिन-प्रतिदिन उच्च शिक्षा की आवश्यकता पड़ती जा रही है — फिर चाहे कंप्यूटर, एयरोनॉटिक्स अथवा अन्य क्षेत्रों की बात हो। अब तो ए.आई. अर्थात आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का युग आने वाला है और उसके लिए उच्च शिक्षा का महत्व और भी बढ़ गया है।

जिस प्रकार प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य साक्षरता है और माध्यमिक शिक्षा का लक्ष्य रोजगार चयन और करियर का मार्ग ढूँढना होता है, उसी प्रकार उच्च शिक्षा का उद्देश्य विशेषज्ञता होना चाहिए। यदि इस लक्ष्य को मानकर चलें तो इसमें तृतीय श्रेणी वाले छात्र-छात्राओं को प्रवेश देने से उद्देश्य पूरा नहीं होगा। बल्कि इसके लिए जो प्रवेश के मानक हों, वे उच्च स्तर के होने चाहिए। यदि हम यह मानकर चलेंगे कि उच्च शिक्षा पर सभी का बराबर का अधिकार है, तो हम विशेषज्ञता की शर्त को पूरा नहीं कर पाएँगे। वर्तमान में जो विश्वविद्यालयों और डिग्री कॉलेजों में भीड़ लगी रहती है और जो बाद में बेरोजगारों की जमात में जाकर शामिल होती है, वह सिलसिला बंद नहीं होगा।

यदि तृतीय श्रेणी के छात्र-छात्राओं को आरक्षण के नाम पर, सिफारिश के आधार पर अथवा पैसे के बल पर विशेषज्ञता वाले क्षेत्रों में भर्ती किया जाता रहा, तब हम कल्पना कर सकते हैं कि कैसा राष्ट्र बनकर तैयार होगा।

उच्च शिक्षा संस्थानों में भीड़ का प्रमुख कारण यह है कि माध्यमिक शिक्षा हमारे देश में अपने उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाती। यदि माध्यमिक शिक्षा के बाद सामान्य नौकरियाँ जैसे लेखपाल, लैब असिस्टेंट, कंपाउंडर, ऑफिस क्लर्क, कंप्यूटर ऑपरेटर आदि की नौकरी के लिए प्रशिक्षण मिल पाए, तो छात्र उच्च शिक्षा की तरफ निरुद्देश्य आगे नहीं बढ़ेंगे। साथ ही यदि उन्हें अपना प्राइवेट व्यवसाय करने के लिए तैयार किया जा सके, तब उस क्षेत्र में जाने में भी संकोच नहीं करेंगे।

वर्तमान में आईटीआई जैसे संस्थान बने तो हैं, लेकिन वहाँ से कोई आदमी सर्टिफिकेट या डिप्लोमा लेकर वैसे ही बाजार में घूमता है जैसे डिग्री लेकर बेरोजगारों की लाइन में खड़ा होता है। आईटीआई जैसे संस्थानों में तभी लोग जाना चाहेंगे जब उन्हें नौकरी की गारंटी हो या अपना व्यवसाय चलाने का उचित अवसर उपलब्ध कराया जा सके। अन्यथा वे भी चाहे इंटर के बाद बेकार घूमें या आईटीआई के बाद, कोई भेद नहीं।

उच्च शिक्षा में प्रवेश के समय छात्रों का एप्टीट्यूड टेस्ट जरूर होना चाहिए, क्योंकि वर्तमान में कोई छात्र बी.ए., बी.एससी. या बी.कॉम. में प्रवेश तो ले लेता है, लेकिन उसे यह पता नहीं होता कि उसकी मंज़िल कहाँ है।

पुराने समय में तथाकथित दलित समाज में ऐसे लोग पैदा हुए — फिर चाहे वह महर्षि वाल्मीकि हों, संत रविदास, संत तुकाराम या आधुनिक इतिहास में डॉक्टर अंबेडकर और बाबू जगजीवन राम — यह सब अपनी प्रतिभा के बल पर और भरपूर प्रतिस्पर्धा के द्वारा आगे बढ़े थे और ऊँचा स्थान प्राप्त किया था।

विशेषज्ञों द्वारा किए जाने वाले काम कई बार समाज के लिए जीवनरक्षक साबित होते हैं, जैसे बड़े सर्जन जो शरीर के अंगों का ऑपरेशन करके जीवनदान देते हैं। यदि ऐसे लोग आधे-अधूरे ज्ञान के आधार पर काम करेंगे, तो जीवन रक्षा संभव नहीं होगी। इसी प्रकार जो वैज्ञानिक अंतरिक्षयान बनाते हैं और अंतरिक्ष में उनका संचालन करते हैं, उनसे तनिक भी चूक हो जाने पर सारी योजना खटाई में पड़ सकती है।

ध्यान रहे, उच्च शिक्षा आम जनों के लिए नहीं हो सकती। उसे तो मेधावी, प्रतिभावान छात्र-छात्राएँ ही पूरा कर सकती हैं। यह बात केवल विज्ञान के विषय पर नहीं, बल्कि कला और वाणिज्य के विषयों पर भी लागू होती है, क्योंकि शोध कार्य और नई खोज के लिए पास मार्क्स पाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि आवश्यकता होती है एक्सीलेंस की।

इस बात को तभी से ध्यान में रखना होगा जब छात्रों का माध्यमिक शिक्षा के बाद उच्च शिक्षा में प्रवेश होता है। यह काम विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का होना चाहिए कि वह उच्च शिक्षा में आधारभूत सुविधाओं को देखते हुए आवश्यकताओं के अनुसार सीटों की संख्या निर्धारित करे। यदि ऐसा हो सके तो व्यावसायिक दृष्टिकोण से धनोपार्जन के लिए जो व्यापारी शिक्षण संस्थान खोलते हैं, उनका काम बंद हो जाएगा। इतना ही नहीं, अध्यापक और छात्रों का अनुपात भी आयोग द्वारा निश्चित किया जाना चाहिए और निगरानी रखी जानी चाहिए ताकि शिक्षा की उच्च स्तरीय गुणवत्ता बनी रहे।

कोई भी शिक्षण संस्थान अपने अध्यापकों के नाम से जाना जाता है। अध्यापकों की संख्या ही नहीं, उनकी योग्यता, उनके द्वारा किया गया शोध कार्य और उच्च शिक्षा के प्रति उनका समर्पण भाव — ये कुछ ऐसी बातें हैं जो शिक्षण संस्थानों को बल देती हैं। सुसज्जित भवन, खेल के मैदान आदि आवश्यक तो हैं, लेकिन प्रथम आवश्यकता अध्यापकों की योग्यता की होती है।

हमें बताया जाता है कि शांति निकेतन की स्थापना रविंद्रनाथ टैगोर ने पेड़ों के नीचे ही कर दी थी, बाद में उसका विकास होता चला गया। बदलते समय और घटती-बढ़ती माँग के हिसाब से आपूर्ति को समायोजित करना आवश्यक होता है।

60 और 70 के दशक में जब बड़े-बड़े बाँध बन रहे थे और भवन निर्माण बड़े पैमाने पर हो रहे थे, तो सिविल इंजीनियरों की माँग सर्वाधिक थी। बाद में मैकेनिकल इंजीनियरों की भी माँग थोड़ी बढ़ी। आजकल इलेक्ट्रिकल इंजीनियरों और इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरों की माँग और बढ़ गई है, लेकिन उस अनुपात में नए शिक्षण तथा प्रशिक्षण संस्थान नहीं खोले जा रहे हैं।

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ग्रामीण क्षेत्रों में तो उच्च शिक्षा केंद्रों की कौन कहे, माध्यमिक शिक्षा तक की उचित व्यवस्था नहीं है। यह अपेक्षा करना कि गाँव के गरीब लोग शहरों में जाकर रहेंगे और उच्च शिक्षा प्राप्त करेंगे — यह ग्रामीण लोगों के साथ अन्याय होगा। यही हाल दूसरे क्षेत्रों में भी है। जब स्पेस इंजीनियरिंग यानी एयरोनॉटिक्स, कंप्यूटर एप्लीकेशन और डिजिटल का जमाना तेजी से आ रहा है (बल्कि आ चुका है), तब इन क्षेत्रों में काम करने वाले इंजीनियरों की आवश्यकता पड़ेगी।

चूँकि हम विदेशी लोगों को उनके हिसाब से वेतन नहीं देना चाहेंगे, तो हमें 70% आबादी, जो गाँव में रहती है, के साथ बेइंसाफी न हो — इसके लिए उन क्षेत्रों में अधिक से अधिक शिक्षण तथा प्रशिक्षण संस्थान खोलने होंगे, उच्च शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। चिकित्सा के क्षेत्र में ग्रामीण छात्रों को अवसर देने के लिए आवश्यक है कि वहाँ मेडिकल कॉलेज, आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक और इस तरह के संस्थान खोले जाएँ, जहाँ से पढ़कर ग्रामीण छात्र-छात्राएँ निकलें जो देहात में काम करने के इच्छुक रहें।

शहरी परिवेश में पले-बढ़े लोग शहरों में डिग्रियाँ हासिल करके गाँव जाने में संकोच करते हैं। गाँव में न केवल उच्च शिक्षा के लिए डिग्री कॉलेज और माध्यमिक विद्यालय खोले जाएँ, बल्कि तकनीकी विद्यालय, चिकित्सा विद्यालय और ऐसे ही विशेषज्ञों के संस्थान ग्रामीण क्षेत्रों में तब तक नहीं खुलेंगे, जब तक गाँव का विकास कागज़ पर ही होता रहेगा।

शहरों में पले-बढ़े और शिक्षित लोग कृषि वैज्ञानिक या अन्य व्यवसायों में नौकरी पाकर भले ही फसलों के पौधे न पहचानते हों, गाँव में नियुक्त कर दिए जाते हैं — और नतीजा यह है कि ग्रामीणों के साथ उनका सार्थक संवाद तक नहीं हो पाता।

ग्रामीण विकास के लिए गाँव में बैंक या दफ्तर खोलने भर से काम नहीं चलेगा, बल्कि ग्रामीण लोगों के बच्चों की शिक्षा के लिए प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षण संस्थानों की सुविधा उपलब्ध कराना प्राथमिकता होनी चाहिए।

उच्च शिक्षा में दार्शनिक तैयार करने से काम नहीं चलेगा। विकास के लिए वैज्ञानिक, प्राविधिक कर्मचारी और विविध क्षेत्रों के लिए इंजीनियर चाहिए होंगे। ऐसे इंजीनियर जो गाँव के हों, उन्हें नौकरी की खोज में शहर न जाना पड़े और ग्रामीण बेरोजगारी से निजात मिल सके।

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद बहुत से लोग अच्छे अवसरों की तलाश में विदेश चले जाते हैं। इससे उनकी शिक्षा पर देश द्वारा खर्च तो किया जाता है, परंतु उसका लाभ देश को नहीं मिल पाता। इसका कारण है कि हमारी व्यवस्था में उन्हें सम्मानजनक स्थान नहीं मिल पाता।

आज़ादी के बाद यदि आप चिराग लेकर नोबेल पुरस्कार विजेता ढूँढें तो नहीं मिलेंगे, जबकि गुलाम भारत में अनेक विद्वानों ने यह प्रतिष्ठित पुरस्कार जीता था। इसलिए उच्च शिक्षा व्यवस्था को देश की आवश्यकता अनुसार ढालना होगा और इसमें देश की 70% ग्रामीण आबादी को भी सम्मिलित करना होगा।

उच्च शिक्षा की उपयोगिता और महत्व समय और परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। कंप्यूटर के आविष्कार से पहले इसकी आवश्यकता महसूस नहीं की जाती थी, लेकिन अब कंप्यूटर का ज्ञान दिन-प्रतिदिन की आवश्यकताओं के लिए अनिवार्य होता जा रहा है और समय के साथ बढ़ता रहेगा।

आने वाले वर्षों में एयरोनॉटिक्स इंजीनियरिंग, अंतरिक्ष विज्ञान और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की आवश्यकता बढ़ेगी, और इन सब चीजों के लिए नए शिक्षण संस्थान, शिक्षा व्यवस्था और प्रशिक्षण केंद्र चाहिए होंगे। जो देश इन क्षेत्रों में सबसे आगे रहेंगे, वही अपना वर्चस्व कायम कर पाएँगे।

धरती पर बढ़ती आबादी और रहने की आवश्यकता के कारण दूसरे ग्रहों पर कब्ज़ा करने की होड़ अभी से लग रही है। इस कारण स्पेस विज्ञान और स्पेस टेक्नोलॉजी भी उच्च शिक्षा का भाग बनेगी। हमारी उच्च शिक्षा बहुआयामी बनेगी और वर्तमान उच्च शिक्षा का एक भाग माध्यमिक का अंग बन जाएगा। वैसे अभी भी समय के साथ माध्यमिक शिक्षा में परिवर्तन होता रहता है, तभी उच्च शिक्षा का आधार मजबूत होता है।

चुनौतियाँ बहुत होंगी और उसके लिए हमारी सरकारों को पूर्व तैयारी करनी होगी।

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