क्यों मैं शाकाहार की वकालत नहीं करूंगी?

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क्यों मैं शाकाहार की वकालत नहीं करूंगी?भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है जहां धर्म, समुदाय और क्षेत्र के हिसाब से खानपान बदलता रहता है।

पिछले दिनों हमारी पुस्तक फर्स्ट फूड: कल्चर ऑफ टेस्ट के विमोचन के मौके पर जैव-विविधता, पोषण और आजीविका के बीच संबंधों पर चर्चा हो रही थी। तभी मुझसे एक सवाल पूछा गया, आप परंपरागत और स्थानीय आहार का समर्थन करने वाली पर्यावरणविद हैं, फिर आप मांसाहार की निंदा क्यों नहीं करती हैं? आखिरकार मांस उत्पादन जलवायु के लिए हानिकारक है।

सभी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र का योगदान 15 फीसदी है, जिसका तकरीबन आधा मांस उत्पादन से होता है। भूमि और जल के दोहन से भी इसका गहरा संबंध है। विश्व की 30 फीसदी भूमि जो बर्फ से नहीं ढकी हैं, उसका इस्तेमाल मनुष्यों के भोजन के लिए नहीं बल्कि मवेशियों का चारा उगाने के लिए किया जाता है। साल 2014 में ब्रिटेन में आहार पर किए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार, मांस की अधिकता वाले आहार रोजाना 7.2 किलोग्राम कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन का कारण बनते हैं जबकि शाकाहारी भोजन से केवल 2.9 किलोग्राम डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। स्पष्ट है कि कौन-सा आहार पर्यावरण के अधिक अनुकूल है।

असल मुद्दा मांसाहार नहीं बल्कि मांस उत्पादन का तरीका और इसके उपभोग की मात्रा है। अमेरिकी लोगों में तो मांस की खपत उनमें प्रोटीन की औसत जरूरत से डेढ़ गुना ज्यादा है। हैरानी की बात नहीं है कि विश्व के कुल 9.5 करोड़ टन बीफ उत्पादन में से अधिकांश लैटिन अमेरिका, यूरोप और उत्तरी अमेरिका के मवेशियों से आता है। यह उत्पादन जिस ढंग से होता है, उससे पर्यावरण पर काफी बुरा असर पड़ता है।

लेकिन इस मामले में मेरी राय अलग है। बतौर भारतीय पर्यावरणविद ( यहां 'भारतीय' पर जोर दे रही हूं) मैं शाकाहार की वकालत नहीं करूंगी। इसके कई कारण हैं। पहला, भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है जहां धर्म, समुदाय और क्षेत्र के हिसाब से खानपान बदलता रहता है। भारत के इस विचार से मैं कतई समझौता नहीं कर सकती क्योंकि इसमें हमारी समृद्धि और वास्तविकता की झलक मिलती है। दूसरा, आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए मांस प्रोटीन को महत्वपूर्ण स्रोत है, इसलिए उनकी पोषण सुरक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण है।

तीसरी बात यह कि इस मुद्दे पर मेरे वैश्विक और भारतीय रुख में अंतर है। असल मुद्दा मांसाहार नहीं बल्कि मांस उत्पादन का तरीका और इसके उपभोग की मात्रा है। मिसाल के तौर पर, एक हालिया वैश्विक आकलन के अनुसार, अमेरिका में लोग साल में प्रति व्यक्ति औसतन 122 किलोग्राम मांस खाते हैं, जबकि भारत के लोग सालाना औसतन 3-5 किलोग्राम मांस खाते हैं। मांस का अत्यधिक उपभोग सेहत और पर्यावरण के लिए हानिकारक है। अमेरिकी लोगों में तो मांस की खपत उनमें प्रोटीन की औसत जरूरत से डेढ़ गुना ज्यादा है। हैरानी की बात नहीं है कि विश्व के कुल 9.5 करोड़ टन बीफ उत्पादन में से अधिकांश लैटिन अमेरिका, यूरोप और उत्तरी अमेरिका के मवेशियों से आता है। यह उत्पादन जिस ढंग से होता है, उससे पर्यावरण पर काफी बुरा असर पड़ता है।

इंटरनेशनल लाइवस्टॉक रिसर्च इंस्टीट्यूट, कॉमनवेल्थ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एप्लाइड सिस्टम एनालिस्ट के इस आकलन के अनुसार, विकासशील देशों में मांस उत्पादन एकदम अलग ढंग से होता है। यहां के मवेशी अधिकतर घास और फसलों के अवशेष पर निर्भर हैं।

एक भारतीय पर्यावरणविद होने के नाते मांस के खिलाफ कार्रवाई का समर्थन नहीं करने की मेरी सबसे बड़ी वजह यह है कि हम जैसे देशों में किसानों के लिए मवेशी सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक सुरक्षा है। भारत के किसान भूमि और पेड़-पौधों का इस्तेमाल पशुओं के लिए करते हैं। यही उनका असल बीमा है। पशुओं को बड़े-बड़े मीट उद्योगों में नहीं बल्कि छोटे-बड़े, सीमांत और भूमिहीन किसानों के यहां पाला जाता है। यह तरीका इसलिए भी कारगर है क्योंकि ये पशु पहले दूध और गोबर देते हैं और फिर मांस और चमड़ा। अगर आप यह सब किसानों से छीन लेंगे तो लाखों-करोड़ों लोगों की आर्थिक सुरक्षा का आधार खिसक जाएगा। वे दरिद्र हो जाएंगे।

तथ्यों पर बात करें तो पशु पहले शक्ति के साधन थे। अस्सी के दशक में स्‍वर्गीय एनएस रामास्‍वामी, जो देश के एकमात्र पशु ऊर्जा विशेषज्ञ थे, ने हिसाब लगाया था कि काम के 9 करोड़ पशुओं की क्षमता देश में स्थापित बिजलीघरों के बराबर है। मशीनों का इस्तेमाल बढने के साथ-साथ यह सब बदल गया। सन 2000 तक पशु केवल दूध के लिए रखे जाने लगे। यही वजह है कि हर पशुगणना में बैलों और भैंसे की संख्‍या तेजी से घटती जा रही है। आज गाय-भैंसों की कुल आबादी में बैल-भैंसे की तादाद सिर्फ 28 फीसदी रह गई है और वे भी मुख्यत: प्रजनन के लिए रखे जाते हैं।

भैंस और गाय अपने जीवन के 15-20 साल में से लगभग सात-आठ साल दूध देती हैं। किसान इन्‍हें दूध और बछड़ों के लिए रखते हैं। हालांकि, पशुओं को पालना सस्‍ता नहीं है। मेरे साथियों की गणना है कि यदि पशुओं को सही तरीके से चारा दिया जाए, उनकी नियमित देखभाल की जाए तो एक मवेशी पर सालाना लगभग 70 हजार रुपए का खर्च आता है। यही कारण है कि अनुत्पादक जानवरों के लिए किसान के पास कोई न कोई विकल्प जरूर चाहिए। अन्यथा उनके पास पशुओ को आवारा छोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा। ऐसे जानवर शहर की गलियों में फेंकी प्‍लास्टिक, कूड़ा-कचरा खाकर दम तोड़ते रहेंगे।

यही कारण है कि मैं मांस या चमड़े पर प्रतिबंध का समर्थन नहीं करूंगी। ऐसा करके हम निश्चित तौर पर पशुधन मालिकों की आधी संभावित कमाई को उनसे छीन रहे हैं। यह सीधे-सीधे गरीबों को नुकसान पहुंचाने वाली बात है। जरा सोचिए, अगर सरकार आपके घर में घुसकर आपकी आधी संपत्ति छीन ले या फिर उसे मूल्य विहीन बना दे तो आपको कैसा लगेगा? मांस पर प्रतिबंध निर्मम नोटबंदी के समान है।

मैं समझती हूं कि धार्मिक भावनाएं प्रबल हैं। खासकर यह मांग कि गाय को मारना नहीं चाहिए। लेकिन इस मांग को पूरा करने का एक ही तरीका है। किसानों से सभी गाय वापस खरीद ली जाएं। बड़ी-बड़ी गौशालाएं बनाई जाएं, जहां उनकी देखभाल हो और उनके अवशेषों के निस्तारण के तरीके निकाले जाएं ताकि मरने के बाद भी उनका कोई उत्पाद बेचा या इस्तेमाल न किया जाए। बेशक, आतंकित करने वाला शाकाहार इसका जबाव नहीं है। और न ही हिंसा और बर्बरता!

(लेखिका पर्यावरणविद् व सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की डायरेक्टर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

     

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