भारत को बर्कीना फ़ासो जैसे छोटे देश से कुछ सीखना चाहिए

Devinder Sharma | Mar 16, 2017, 19:21 IST
Devinder Sharma
याद है वर्ष 2015 में पंजाब में बीटी कपास फ़सल पर सफ़ेद कीट का विनाशक हमला हुआ था? इससे प्रभावित दो तिहाई खड़ी फ़सल का संभावित 4,200 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था।

नुकसान को न सह पाने की स्थिति में 100 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। इससे गुस्साए किसान सड़कों पर उतर आए और अनेक स्थानों पर ‘रेल रोको’ आंदोलन चलाया था। गुस्साए किसानों को शांत करने के लिए पंजाब सरकार ने 640 करोड़ रुपए का मुआवज़ा देने का प्रस्ताव रखा।

चलिए अब अफ़्रीका की बात करते हैं। वहां बर्कीना फ़ासो एक बहुत छोटा और ग़रीब देश है जिसने 2008 में अमेरिका के मोनसैंटो की बीटी कपास पर आधारित खेती को अपनाया। तब इस तकनीकी विकास की प्रशंसा की गई थी जिसके लिए कहा गया था कि यह ग्रामीण परिदृश्य का रूप बदल देगा। कुछ वर्षों बाद उत्पादन में आई गिरावट के लिए जेनेटिकली मोडीफ़ाइड (जीएम) कपास को ज़िम्मेदार ठहराया गया था। बर्कीना फ़ासो ने दबाव में आने के बजाय इतनी बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कंपनी का सामना किया।

पंजाब में (और हरियाणा, पंजाब के कुछ हिस्से) बीटी कपास के विध्वंस को दो साल बीत चुके हैं फिर भी अभी तक बीज कंपनियों से मुआवज़ा लेने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है। पंजाब सरकार ने जो 640 करोड़ रुपए देने की घोषणा की थी वो कर दाताओं की जेब से गया। सरकार किसी भी अवस्था में बीज कंपनियों पर आवश्यक मुआवज़े के लिए दबाव नहीं बना पाई। मैं समझ नहीं पाता कि बीज कंपनियां किसानों को दिए गए निम्न दर्ज़े के बीज या ख़राब बीज होने के कारण हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई क्यों नहीं करतीं।


उसने नुकसान की पूर्ति के लिए मोनसैंटो से 76.5 मिलियन अमेरिकी डॉलर की मांग की। बर्कीना फ़ासो ने रॉयल्टी की देय राशि में से 24 मिलियन अमेरिकी डॉलर रोक लिए। ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार बर्कीना फ़ासो ने मोनसैंटो को विवश किया कि वे उसके किसानों से ली गई रॉयल्टी का 75 प्रतिशत उन्हें वापस लौटाएं। कृषि मंत्री जैकॉब क्वैंड्रोगो के अनुसार उनका देश अब कपास की पारंपरिक खेती करेगा और उन्हें आशा है कि पुन: पारंपरिक कपास के आने से गुणवत्ता की समस्या का समाधान हो जाएगा।

अगर अफ़्रीका का एक छोटा सा देश विश्व की सबसे बड़ी बीज कंपनी को चुनौती दे सकता है, तो मैं अचम्भे में हूं कि भारत कब ऐसा आवश्यक राजनीतिक साहस लाएगा। हालांकि पंजाब में (और हरियाणा, पंजाब के कुछ हिस्से) बीटी कपास के विध्वंस को दो साल बीत चुके हैं फिर भी अभी तक बीज कंपनियों से मुआवज़ा लेने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है। पंजाब सरकार ने जो 640 करोड़ रुपए देने की घोषणा की थी वो कर दाताओं की जेब से गया। सरकार किसी भी अवस्था में बीज कंपनियों पर आवश्यक मुआवज़े के लिए दबाव नहीं बना पाई। मैं समझ नहीं पाता कि बीज कंपनियां किसानों को दिए गए निम्न दर्ज़े के बीज या ख़राब बीज होने के कारण हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई क्यों नहीं करतीं।

मज़े की बात ये है कि कॉम्पिटीशन कमीशन ऑफ़ इंडिया जो कि एंटीट्रस्ट रेगुलेटर है, से बहुत सी बीज कंपनियों को नोटिस भी मिल चुका है और उसने महीको- मोनसैंटो बायोटैक (एमएमबीएल) (इंडिया) की प्रभावी भूमिका पर तहकीकात शुरू कर दी है, जवाब भी मांगा है और कई स्थितियों में किसानों के हुए नुकसान का मुआवज़ा भी। इसके बजाय इन बीज कंपनियों ने नेशनल सीड एसोसिएशन की छत्र-छाया तले महीको- मोनसैंटो बायोटेक (एमएमबीएल) को, जिसने बीटी तकनीक उपलब्ध कराई है, लिखा कि वो इन मुआवज़ों की मांग का दायित्व ले।

डेली मिंट (फ़रवरी 24, 2016) की रिपोर्ट में लिखा है कि एनएसएआई चाहती है कि महीको- मोनसैंटो ये घोषित करे कि बोलागार्ड II (जेनेटिकल मोडिफ़ाईड बीटी कपास) पिंक बोलवॉर्म के विरुद्ध सुरक्षा नहीं दे सकता क्योंकि उस कीट में उसको सहने की क्षमता बढ़ गई है। गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना व मध्य प्रदेश से रिपोर्ट आई है कि ये विध्वंसक कीट बीटी कपास की किस्म से प्रतिरक्षित (IMMUNE) बन गया है।

उसके बाद इस बारे में हमने कुछ नहीं सुना। ये मुद्दा अभी तक कॉम्पिटीशन कमीशन ऑफ़ इंडिया की फाइलों में पड़ा है और कृषि व कृषक कल्याण मंत्रालय में धूल खा रहा है। यही क्रिया 2010 में उड़द और तिल की फ़सल में क्रियांवित की गई जो किसानों ने मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, बिहार एवं झारखंड में लगाई थी और वो अंकुरित नहीं हुई। रिपोर्ट में बताया गया कि आर्थिक हानि सहन न कर पाने की स्थिति में चार किसानों ने आत्महत्या कर ली। इसका नतीजा ये हुआ कि हज़ारों किसान आर्थिक तनाव में धकेल दिए गए। उन्होंने धरने दिए, सभाएं कीं लेकिन पर्याप्त मुआवज़े के वायदों के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला।

गत समय में न सिर्फ़ नेशनल सीड कॉर्पोरेशन बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कंपनियां जैसे- मोनसैंटो, पायनियर हाईब्रैड, महीको और अन्य कंपनियों द्वारा दिए गए बीज अंकुरित होने में और अनाज तैयार करने में लगातार असफ़ल रहे और अभी भी उन कंपनियों के विरुद्ध सरकार कोई कदम नहीं उठा रही जिससे उन्हें अनुकरणीय दंड मिले और किसानों को पर्याप्त मुआवज़ा मिल सके। मुझे हैरानी है कि सरकार अफ़्रीका के छोटे से देश बर्कीना फ़ासो की तरह बीज कंपनियों को सही राह पर लाने के लिए कब साहस का कदम उठाएगी। यह केवल राजनीतिक वचनबद्धता की कमी दर्शाता है।

जैसे-जैसे बीज उद्योग बढ़ा, नकली और घटिया बीजों की बिक्री भी बढ़ी। हाइब्रिड बीजों की बिक्री का व्यापार लाभप्रद हो गया है, खासकर बड़ी संख्या में ऐसी कंपनियां जो बीज बेचकर और पैसा कमा कर सालभर में लुप्त हो जाती हैं। सख़्त नियंत्रण की कमी के कारण किसान चुपचाप सहता है और इसका खामियाज़ा भुगतता है।

2010 का बीज बिल जो अभी भी लटक रहा है, उसमें दिए गए माप-दंड के अनुसार बीजों की शुद्धता और अंकुरण का लेखा-जोखा न रखने पर अधिकतम एक लाख रुपए का जुर्माना प्रस्तावित किया गया है और नकली बीज होने की स्थिति में एक साल की जेल व अधिकतम पांच लाख रुपए का जुर्माना प्रस्तावित है। किसानों की फ़सल के नुकसान का मूल्यांकन स्थानीय विशेषज्ञों की समीति करेगी। यह अनुचित है। यदि बीज अंकुरित नहीं होता या बढ़ता नहीं तो वह किसान की रोज़ी-रोटी को बर्बाद कर देता है।

नुकसान इस हद तक होता है कि किसान सह नहीं पाता और आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाता है इसलिए यह किसान की ज़िंदगी और मौत का सवाल है। यह ध्यान रखते हुए कि अच्छी फ़सल न केवल किसान को खाने की सुरक्षा देती है बल्कि उसके परिवार को आर्थिक सुरक्षा भी प्रदान करती है, इस नुकसान को सिर्फ़ बीज के मूल्य पर नहीं नापा जा सकता। मुआवज़े में जीविका के नुकसान का मूल्य व कम से कम दायित्व का मूल्य भी शामिल होना चाहिए।

इसलिए बीज दायित्व बिल (सीड लायबिलिटी बिल) की आवश्यकता है। यह बिल न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल की तर्ज़ पर होना चाहिए। प्रस्तावित सीड लायबिलिटी बिल में फ़सल के ख़राब होने पर न्यूनतम आर्थिक दायित्व कंपनी को उठाना चाहिए। किसानों को उपभोक्ता अदालत का रास्ता दिखा कर बीज कंपनियों के प्रति नरमी नहीं बरतनी चाहिए। बीज केवल उपभोक्ता उत्पाद ही नहीं है बल्कि किसान के परिवार की जीविका है। एक फ़सल का नुकसान किसान को भयानक ऋण चक्र में फंसा देती है। बीज उद्योग को वश में करने के लिए उनके साथ सख़्ती से पेश आना ज़रूरी है। आइए, बर्कीना फ़ासो से कुछ सीखें।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निज़ी विचार हैं।)



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