अपने बाघों की तरह अपनी मिट्टी की रक्षा करे भारत, तब बनेगी बात

Devinder Sharma | Sep 21, 2019, 10:44 IST

उर्वरता में गिरावट: खेती वाली जमीन की उर्वरता में इतनी गिरावट आई है कि मुझे पूरा भरोसा है कि भारत के शहरी इलाकों में मौजूद बाग और स्थानीय पार्क खेतिहर इलाकों से ज्यादा स्वस्थ और पोषकता से भरपूर होंगे।

इस शोध का नेतृत्व करने वाले डॉ. नाइजल डन्नेट ने उस समय आगाह करते हुए कहा था, 'जिस हिसाब से बढ़ती जनसंख्या के भोजन की मांग बढ़ रही है और मिट्टी में पोषक तत्वों में गिरावट आ रही है जल्द ही हमें कृषि संकट का सामना करना पड़ेगा।' इस टीम ने चेतावनी दी थी कि ब्रिटेन की मिट्टी इतनी खराब हो चुकी है कि इसमें केवल 100 फसल चक्र तक खेती हो पाएगी।

दरअसल, भविष्य की खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करने वाली समस्या केवल ब्रिटेन तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह वैश्विक स्तर पर पहुंच चुकी है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) का अनुमान है कि अगर मिट्टी की पोषकता में गिरावट की मौजूदा दर अभी भी जारी रही तो दुनिया भर से मिट्टी की उर्वरा ऊपरी परत अगले 60 वर्षों में गायब हो जाएगी।



हम जानते हैं कि मिट्टी ही सभी सभ्यताओं की नींव है, लेकिन जिन क्षेत्रों में गहन कृषि की जा रही है वहां मिट्टी की उर्वरता लगभग शून्य हो चुकी है। रासायनिक खादों, कीटनाशकों के इस्तेमाल से मिट्टी जहरीली होती जा रही है, भूजल के अत्यधिक दोहन से गहरे से गहरे भूगर्भ जल के भंडार सूख रहे हैं और रेगिस्तान बहुत तेजी से अपने पैर पसार रहा है।

नई दिल्ली में अभी हाल में मरुस्थलीकरण से लड़ने के लिए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की 14वीं कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी) का आयोजन किया गया था। भारत की लगभग 30 प्रतिशत भूमि- जो आकार में ब्रिटेन की चार गुना है, जंगलों के उजड़ने, अत्यधिक खेती, मृदा अपरदन और भूजल की कमी से मरुस्थलीकरण की ओर बढ़ रही है।

देश के कृषि विश्वविद्यालयों को यह पता है कि सतह से कम से कम एक फीट नीचे एक ठोस परत बन चुकी है जो न पौधों की जड़ों को फैलने देती है और न ही पानी को रिसकर नीचे तक पहुंचने देती है।

दुर्भाग्यवश, ये तमाम विश्वविद्यालय भी बेकार हो चुकी मृदा में पोषकता की कमी को दूर करने के लिए और रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल की वकालत करते हैं जिससे यह समस्या और विकराल होती जा रही है। पर आशा है कि इस स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में की गई अपील के बाद हालात बदलेंगे जिसमें उन्होंने किसानों से कहा था कि वे रासायनिक खादों की जगह खेती की प्राकृतिक तकनीक अपनाएं।

लेकिन हम किसानों को भी दोषी नहीं ठहरा सकते। वे भी तो उन्हीं बातों पर अमल कर रहे हैं जिनकी सलाह उन्हें कृषि विश्वविद्यालयों और राज्य कृषि विस्तार तंत्र दे रहा है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि किसान धीरे-धीरे गैर रासायनिक कृषि प्रक्रियाओं का पालन करें, पहला और सबसे जरूरी काम होगा खाद पर मिलने वाली सब्सिडी को कम करना। ऐसे तमाम शोध हैं जो बताते हैं कि अगर खाद सब्सिडी में 1 प्रतिशत की कमी की जाती है तो उससे 3 प्रतिशत तक मृदा अपरदन कम हो जाता है।



विश्वविद्यालय कृषि व्यापार करने वाले समूहों के जबर्दस्त दबाव से अछूते नहीं हैं। संभवत: सबसे बेहतर तरीका होगा कि खाद पर मिलने वाली सब्सिडी को सीधे किसान के खातों में ट्रांसफर कर दिया जाए, लेकिन इसे खाद के इस्तेमाल से न जोड़ा जाए, बल्कि किसानों को इसे जैविक उर्वरक, कंपोस्ट वगैरह के लिए इस्तेमाल करने की इजाजत दी जाए। एक अच्छी और स्वस्थ मिट्टी का सबसे अच्छा संकेत यह है कि कि जब मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ इस गति से बढ़ें कि उनमें पनपने वाले केंचुओं की संख्या कई गुना बढ़ जाए।

जलवायु परिवर्तन पर इंटरगर्वनमेंटल पैनल (आईपीसीसी) की ताजा रिपोर्ट में विशेष रूप से सघन खेती, जिसमें जैव-ईंधन की खेती के लिए आर्द्र भूमि या वेटलैंड्स के दोहन (इसमें गन्ने से एथनॉल निकालना शामिल है) को बढ़ते भूमि क्षरण के लिए जिम्मेदार माना गया है। इसमें कहा गया है कि कृषि योग्य मिट्टी जितनी तेजी से बन रही है उससे 100 गुना तेजी से खत्म हो रही है।

भारत में हुई द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टिट्यूट (टेरी) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि देश के जीडीपी में लगभग 1.4 प्रतिशत का हृास जंगलों के उजड़ने से हो रहा है। इसमें अनुमान लगाया गया है कि भूमि क्षरण और लैंड यूज (भूमि उपयोग) में बदलाव की वजह से सालाना 3.17 लाख करोड़ रुपयों का नुकसान हो रहा है जो देश की जीडीपी का लगभग 2.5 प्रतिशत है।

हालांकि भारत ने 2030 तक 50 लाख हेक्टेयर बंजर/ऊसर भूमि को सुधारने का संकल्प लिया है ताकि देश में कहीं भी बंजर/ऊसर भूमि न रहे जाए। लेकिन जिस दर से भूमि का मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है वह चिंता की बात है।



इसरो की रिपोर्ट के अनुसार अब मरुस्थलीकरण केवल राजस्थान, हरियाणा और कुछ हद तक तेलंगाना को घेरने वाले अर्द्ध शुष्क इलाकों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह झारखंड, गुजरात, गोवा और दिल्ली तक भी तेजी से पैर पसार रहा है। इसकी बढ़ने की दर 50 प्रतिशत के आसपास है। पंजाब, ओडिशा और तमिलनाडु के अलावा रेगिस्तान का प्रसार जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश में भी हो रहा है। जितनी तेजी से मरुस्थलीकरण तीव्र और व्यापक हो रहा है देश के अधिक से अधिक इलाके इसकी चपेट में आ रहे हैं।

साल 2000 से अब तक करीब 16 लाख हेक्टेयर जंगल काट डाले गए हैं। वेबसाइट इंडियास्पेंड के अनुसार साल 2000 से 2015 तक करीब 1 करोड़ पेड़ काटे जाने की अनुमति दी गई। इसलिए अगर मरुस्थलीकरण में वनों की कटाई की दर भी जोड़ दी जाए तो रेगिस्तान के विस्तार का खतरा वादों और दावों से परे और भी गंभीर हो जाता है।

इस मामले में हमें चीन से सबक लेना चाहिए जिसने कम से कम 12.43 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि को भविष्य में भूमि क्षरण से बचाने का संकल्प लिया है। साथ ही साथ उसने 2020 तक 5.33 करोड़ हेक्टेयर भूमि की उच्च गुणवत्ता को भी बचाने का फैसला किया है।

मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता। भारत में शहरीकरण का विस्तार बड़ी तेजी से हो रहा है। ऐसे में भारत को भी जरूरत है कि वह 15.97 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से सार्थक अनुपात वाले भूभाग की पहचान करे और उसे अच्छी स्थिति में रखे, इसके अलावा 2022 तक कम से कम 7 करोड़ हेक्टेयर जमीन को उच्च गुणवत्ता के मापदंडों पर खरा उतरने लायक बनाए। लेकिन इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत को अपनी मिट्टी की उसी तरह से रक्षा करनी होगी जैसे वह अपने बाघों कर रहा है।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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