आईटी सेक्टर में नौकरियां क्यों जा रही हैं?

रवीश कुमाररवीश कुमार   12 May 2017 9:54 AM GMT

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आईटी सेक्टर में नौकरियां क्यों जा रही हैं?भारत के आईटी सेक्टर में खलबली मची है, नौजवानों के दिल में बाहुबली छाया हुआ है।

भारत के आईटी सेक्टर में खलबली मची है, नौजवानों के दिल में बाहुबली छाया हुआ है। 150 अरब डॉलर के इस सेक्टर में कंपनियों के मुनाफे में लगातार गिरावट आ रही है। बिजनेस अख़बार नौकरियों पर फोकस करने लगे हैं। बिजनेस स्टैंडर्ड लगातार सीरीज़ छाप रहा है कि कैसे आटोमेशन यानी रोबोट के आने से अलग-अलग सेक्टर में छंटनी बढ़ रही है।

छात्रों से लाखों रुपए की फीस लूट कर उन्हें बताया जा रहा है कि भारत के 60-70 फीसदी इंजीनियर नौकरी के लायक नहीं हैं। ऐसे नालायक इंजीनियर पैदा करने वाले संस्थान किस लाइसेंस के तहत चल रहे हैं और क्यों लूट रहे हैं, इस पर लुटने वाले छात्र भी चुप हैं क्योंकि वे उन नेताओं के ख़िलाफ़ कैसे बोल सकते हैं जिनसे वो मानसिक रूप से भी लुट चुके हैं। जिनके संस्थानों में लाखों की फीस देने के लिए शिक्षा के निजीकरण का स्वागत कर रहे हैं। आईटी सेक्टर में मची खलबली के लिए प्रधानमंत्री मोदी दोषी नहीं है लेकिन उनकी भक्ति में लगे मीडिया के पास वक्त नहीं है कि वो इन मसलों की तरफ लौटे और समाज को बताए कि हमारे इंजीनियर कूड़े के ढेर में बदल चुके हैं।

आईटी सेक्टर की बड़ी कंपनियां सैंकड़ों और हज़ारों की संख्या में कर्मचारियों को निकाल रही है। छोटी कंपनियों का तो पता ही नहीं चलता। टाइम्स आॅफ इंडिया से लेकर बिजनेस स्टैंडर्ड तक लिख रहा है कि 2008-10 में जो छंटनी हुई थी, उससे भी अधिक संख्या में छंटनी हो रही है। इस बार मध्यम और सीनियर लेवल के अफसरों को चलता किया जा रहा है।

जिन्होंने मकान और कार के लोन ले रखे हैं और टी शर्ट- बरमूडा पहनकर एयरपोर्ट जाने लगे थे, उन्हें अपने भविष्य को फिर से तय करना पड़ेगा। टाइम्स आॅफ इंडिया ने लिखा है कि मध्यम और सीनियर के साथ-साथ जल्दी ही निचले स्तर के आईटी इंजीनियर भी छंटनी की चपेट में आने वाले हैं। हालत ये है कि लेबर यूनियन को भारत की तरक्की का विरोधी मानने वाले ये लोग अब लेबर यूनियन बना रहे हैं या उनसे संपर्क कर रहे हैं। जब तक नौकरी रहती है सब लेबर यूनियन को समस्या मानते हैं, जैसे ही नौकरी जाती है लेबर यूनियर की याद आने लगती है।

अब छंटनी को छंटनी नहीं कहा जाता है। कहीं इसे सेपरेशन प्रोग्राम कहा जाता है तो कहीं री-स्ट्रक्चरिंग प्रोग्राम कहा जाता है। कॉगनिज़ेंट नाम की कंपनी ने एेलान किया है कि वाइस प्रेसिडेंट, सीनियर वाइस प्रेसिडेंट और एसोसिएट वाइस प्रेसिडेंट स्तर के 1000 अधिकारियों को निकाला जा सकता है। अख़बार के अनुसार कॉगनिज़ेंट आईटी सेक्टर की कामयाब कंपनी मानी जाती है फिर भी उसके यहां से 6000 लोगों के निकाले जाने की ख़बर है।

यानी जितने लोग काम करते हैं उसका 2.3 प्रतिशत। अखबार के अनुसार कागनिज़ेंट से निकाले गए दस कर्मचारियों ने श्रम विभाग से शिकायत की है कि उनसे इस्तीफा पत्र पर ज़बरन दस्तख़त कराए गए हैं। इंफोसिस कंपनी भी मैनेजर, प्रोजेक्टर मैनजर स्तर के 1000 लोगों को निकालने की योजना बना रही है। इंफोसिस ने कहा है कि वह 10,000 अमेरिकी को नौकरी पर रखेगी। आप जानते हैं कि अमेरिका ने अपने वीज़ा नियमों को इस तरह बदल दिया है कि अब भारतीय इंजीनियरों के लिए वहां जाकर काम करना आसान नहीं रहेगा।

तीन हफ्ता पहले विप्रो के सीईओ ने कहा था कि अगर राजस्व नहीं बढ़ा तो 10 प्रतिशत कर्मचारियों को निकाल दिया जाएगा। इस वक्त विप्रो में 1 लाख 81 हज़ार कर्मचारी हैं। इसका दस प्रतिशत हुआ 18000। विप्रो ने अख़बार से इस सूचना का खंडन किया है। फ्रेंच आईटी कंपनी है CAPGEMINI 9000 कर्मचारियों को निकालने की तैयारी कर रही है। कंपनी ने 35 वाइस प्रेसिडेंट, सीनियर वाइस प्रेसिडेंट, डायरेक्टर और सीनियर डायरेक्टर से चले जाने को कह दिया है। मुंबई आफिस से 200 लोगों को विदा कर दिया गया है।

हालांकि ये कंपनियां नई भर्तियों की भी बात करती हैं लेकिन छंटनी की संख्या से लग रहा है कि आईटी सेक्टर में हाहाकार मचा हुआ हुआ है। आईटी सेक्टर कंपनियों के ग्रोथ रेट में भयंकर गिरावट है। जिन्होंने 20 प्रतिशत का लक्ष्य रखा था उनके लिए 10 प्रतिशत तक पहुंचना भी मुश्किल होता जा रहा है। 2015-16 का साल भी उनके लिए बहुत अच्छा नहीं रहा है। आईटी सेक्टर के लोगों ने अखबार को बताया है कि आईटी सेक्टर में लगातार गिरावट है। इसका मॉडल ही है कि सीनियर को निकालो ताकि लागत कम हो और बचे हुए पैसे से कम पैसे में नए लोग लाए जा सकें मगर संकट इतना गहरा है कि जिनके 3 से 7 साल के अनुभव हैं वो भी निकाले जा रहे हैं। यानी मध्यम स्तर के कर्मचारियों को भी निकाला जा रहा है। यह कहा जा रहा है कि कंपनियां तेज़ी से आटोमेशन की तरफ बढ़ रही हैं जिसके कारण इस सेक्टर से 40 फीसदी कर्मचारी हटा दिए जाएंगे।

इस पर बहस इसलिए ज़रूरी है कि आटोमेशन और रोबोट के कारण 40 फीसदी इंजीनियर की ज़रूरत नहीं होगी, तो लाखों की संख्या में पैदा होने वाले इंजीनियर कहां खपाये जाएंगे। यह सूचना दहेज मार्केट में भी तेज़ी से जानी चाहिए। लोग बीस-बीस लाख दहेज देकर आईटी इंजीनियर से शादी कर रहे हैं। बेटी और उसके बाप का कानूनी रूप से प्रतिबंधित यह सामाजिक निवेश डूब सकता है। कंपनियां खुल कर चुनौतियों के बारे में बात नहीं करती हैं कि कहीं सरकार न नाराज़ हो जाए, वो इन सवालों को ऐसे किनारे लगा देती है जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बीस-पचास हज़ार लोगों को निकाल देना सामान्य बात हो।

कहा जा रहा है कि निकाले जा रहे सभी लोगों को नए-नए कौशल सीखने होंगे। नया सीख भी लेंगे तो ऐसा कौन सा सेक्टर जो उनके स्वागत के लिए बिछा है। जब तक ये नया कौशल सीख कर आएंगे कंपनियां आटोमेशन की तरफ बढ़ चुकी होंगी। नौकरियां पहले से कम हो चुकी होंगी। आटोमेशन और रोबोट की तरफ तेज़ी से कंपनियां बढ़ रही हैं। हो सकता है इन इंजीनियरों को ठेके पर काम करना पड़े, कम पैसे पर काम करना होगा।

ज़ाहिर है इंजीनियर बनने का ख़्वाब देख रहे युवाओं के लिए चुनौती भरा वक्त इंतज़ार कर रहा है। इन सब ख़बरों पर देश में कोई बहस नहीं है। यह हमारे देश में ही सकता है कि एक नेता के बयान पर घंटों बहस हो सकती है, गाय पर तीन दिन तक बहस हो सकती है और तलाक पर तीन महीने। ये सब भी ज़रूरी मुद्दे हैं लेकिन ऐसा कैसे हो जाता है कि नौकरी के सवाल पर कोई बहस ही नहीं होती। सबसे अच्छी बात है कि हम जिनके लिए बहस की चिंता कर रहे हैं, उन्हीं को फर्क नहीं पड़ता है। जो भी है संकेत अच्छे नहीं है।

(लेखक एनडीटीवी में सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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