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जानवर कौन है? हम या वो

डॉ दीपक आचार्य | Sep 16, 2016, 16:21 IST
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पिछलेदिनों चर्चा में रही नीलगायों को मार गिराने की खबरों से बेहद आहत सा हूं। पादप विज्ञान में पढ़ाई लिखाई हुई है, विज्ञान को करीब से समझने की कोशिशें भी निरंतर जारी है। अपनी शिक्षा का निचोड़ निकालूं तो यही सीख पाया हूं कि प्रकृति में हर जीव जंतु और पेड़-पौधे का खास महत्व है। हर एक जीव एक-दूसरे से किसी ना किसी तरह से जुड़ा हुआ है, उसका संबंध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष है।

कोई भोजन के लिए दूसरे पर आश्रित है तो कोई जीव खुद के रहने के लिए किसी अन्य जीव या पेड़-पौधे पर आश्रित है। एक जीव दूसरे को खाता है तो तीसरा जीव इस जीव को निगल जाता है। विज्ञान की भाषा में इसे भोज्य जाल कहते हैं। जीव जंतुओं, पेड़-पौधों और निर्जीव पदार्थों के साथ अलग-अलग तरह की व्यवस्थाओं के साथ प्रकृति खुद को संतुलित करती है बशर्ते प्राकृतिक संतुलन की प्रक्रिया को कोई भी जीव बाधित ना करें। प्रकृति संतुलन के लिए हर एक जीव का एक सकारात्मक योगदान तय है लेकिन मेरे मन में अक्सर एक सवाल बार-बार आता रहता है कि हम मनुष्यों का कौन सा सकारात्मक योगदान है जो प्रकृति के संतुलन के लिए बेहद खास है? जवाब आज तक मिला नहीं। मेरे विचार से हम मनुष्यों ने सिर्फ प्रकृति का दोहन किया है, योगदान के नाम पर हम शून्य हैं।

चाहे घर बनाना हो, खेत खलिहान जोतना हो, पीने के पानी की बात हो या भोजन व्यवस्था, हम पूरी तरह से आश्रित हैं प्रकृति पर और इस आश्रय के बदले में हमने प्रकृति को कुछ वापस नहीं किया, कोई सकारात्मक योगदान कभी नहीं दिया। हम मनुष्य खुद को सबसे ज्यादा दिमागदार और संयमित मानते जरूर हैं लेकिन हम बेहद स्वार्थी हैं। हम अपने घरों को चारहदीवारी से घेर के रखते हैं लेकिन किसी और के घर पर कब्ज़ा जमाने में देर नहीं लगाते, जंगल भी किसी और का घर है, उसको घेरने में हमने कभी कमी नहीं की, इसे अपनी संपत्ति मान बैठे।

जंगलों के जानवरों ने शहरों तक कूछ नहीं किया, ये हम इंसान है जिसने पूरे ताम-झाम से विकास का गाना गाते हुए जंगल में घुसपैठ कर ली। जिसके घर में हम जबरन घुसे, वो घरवाला कहां जाता? तेंदुए, बाघ, रीछ, बंदर, हिरण, नीलगाय जंगल से बाहर खदेड़े जाने लगीं। और जब ये गाँवों और शहरों के करीब पहुंचे तो इन्हें गोली मार देने के फरमान जारी हो गए। सच ही है, मज़ाल क्या इन जानवरों की जो हमारे घर-आंगन और खेत-खलिहानों तक पहुंच आएं।

हमारे घर के अंदर की तो बात अलग, कोई दूसरा व्यक्ति दरवाजे के बाहर अपनी गाड़ी पार्क कर जाए तो लठ्ठ चल जाती हैं, बंदूके तान दी जाती हैं। और उधर वो नीलगाय हमारे खेत खलिहानों तक आ गईं, हमने गोलियां दगवा दी, अच्छा किया। ये “जंगल बचाओ, जंगल बचाओ” चीखने वालों से भी मैं त्रस्त हो चुका हूं, इनके चीखने चिल्लाने हुआ कुछ नहीं, सरकारें कभी होश में आएंगी? विकास के नाम पर हमारी अंधी दौड़ से मुझे इतनी खीज सी महसूस होती है कि कभी-कभी ऐसा लगता है मेरा बस चले तो मैं दुनिया की तमाम नीलगायों, तेंदुओं, हाथी, बाघों, बंदरों और जंगली जानवरों को गोलियों से दगवा दूं और जंगल को सफाचट्ट करके एक से बढ़कर साज-सज्जा से लैस शॉपिंग मॉल बना दूं, कोने कोने तक मेट्रो दौड़ा दूं, जमीन पर जगह ना बची हो तो जमीन के अंदर और जमीन से ऊपर रास्ते तैयार करवा दूं, हर गली, हर चौराहों पर मोबाइल टॉवर, ऊंची ऊंची इमारतें खड़ी करवा दूं, जमीन का एक इंच भी कोरा ना रहे, सब पर डामर लिपवा दूं, मॉर्डन सिटी प्रोजेक्ट के तहत पूरे शहर के शहर को सेंट्रली एयरकंडीशंड करवा दूं, सड़कों में बाधा लाने वाले पेड़ों से इतना घनघोर बदला लूं कि पेड़ इतिहास के पन्नों में फोटो बनकर रह जाएं।

जंगल सफाचट्ट हो जाए, किताबों में गाँवों की तस्वीर दिखाई जाए, जंगल क्या बला था ये किताबों, आइपैड और मोबाइल पर दिखाकर अगली पीढ़ी के बच्चों का मन बहलाया जाए, इतना गुस्सा, बाप रे! दिमाग कुंद हो जाता है कई बार। कितनी अजीब बात है न, हम जानवरों के घरों तक घुसकर अपने नियमों और शर्तों के हिसाब से अतिक्रमण करते हैं और जब कभी कोई एक बाघ, तेंदुआ या रीछ गाँव के गलियारों या किनारे तक आ जाए तो उसे ऐसी सजा देते हैं कि वो जीवित ही ना रह पाए। एक गाँव में रीछ को जिंदा जला दिया गया था। जानवर कौन है? वो जो अपनी दुनिया में मस्त हैं या वो जो दूसरों की दुनिया में दखलंदाजी करके अपनी मस्ती और सहूलियत खोजते हैं? ले देकर, वही सवाल मन में आ जाता है। हम मनुष्यों ने आखिर क्या दिया इस प्रकृति को?

(लेखक हर्बल जानकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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