थर्ड एेक्टर को रोकने की जरूरत

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थर्ड एेक्टर को रोकने की जरूरतप्रतीकात्मक तस्वीर 

पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था कि हमारे समाज का एक महत्वपूर्ण सशक्त और संसाधनों से भरा हुआ वर्ग युवकों का है, जिनमें आसमान की बुलंदियों को छू लेने की आकांक्षा धधक रही है। यदि उनकी ऊर्जा को सही दिशा दी जाए तो उससे ऐसी गतिशीलता पैदा होगी जो राष्ट्र के विकास को तेज वाहन में दौड़ा देगी।

लेकिन जब घाटी के युवाओं की गतिविधियों पर नजर जाती है तो साधारण सा यह सवाल अवश्य उठता है कि क्या ये युवा उसी आंकाक्षा से सम्पन्न हैं जिनकी बात कलाम साहब कर रहे थे? जुलाई 2016 से कश्मीर घाटी में हिंसा का कुचक्र चल रहा है, आखिर उसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या वास्तव में कश्मीर घाटी के वे युवा जो पत्थरबाजी कर रह हैं, वे सेपरेट स्टेट, ऑटोनॉमी जैसे शब्दों के अर्थ भी जानते हैं जिनकी दावेदारी करते हुए प्रायः अलगाववादी नेता करते दिखायी देते हैं? एक प्रश्न यह भी है कि क्या बल प्रयोग शांति स्थापना के लिए उचित कदम है?

पिछले दिनों दो वीडियो क्लिप्स सोशल मीडिया पर वायरल हुईं। इनमें से एक सीआरपीएफ जवान पर कुछ कश्मीरी युवाओं द्वारा पत्थर फेंके जाने संबंधी है और दूसरी पत्थरबाज को सेना की गाड़ी में बांधे जाने संबंधी। मीडिया से लेकर राजनीतिज्ञों तक ने अपने-अपने ढंग से इन्हें लेकर प्रतिक्रियाएं दीं। यही नहीं इन क्लिप्स ने घाटी में सिक्योरिटी ऑपरेशंस को लेकर समर्थकों और विरोधियों के बीच ट्विटर युद्ध भी छेड़ा।

पाकिस्तान समर्थक अलगाववादियों और फारुख अब्दुल्ला ने दावा किया कि भारत कश्मीर पर से अपना नियंत्रण खो रहा है और दिल्ली में बैठे विपक्षी नेताओं ने आरोप लगाया कि बीजेपी-पीडीपी सरकार जनता पर से अपना विश्वास खो रही है। प्रथम दृष्टया तो वर्तमान परिदृश्य तो यही संकेत दे रहा है कि सरकार कश्मीर मामले पर कमजोर पड़ रही है। यही वजह है कि कुछ रणनीतिकार मांग कर रहे हैं कि सरकार अपनी कश्मीर रणनीति का पुनर्मूल्यांकन करे।

पृथकतावादियों और कश्मीरी मिलिटैंट्स से भिन्न इसमें उस इस्लामी विचारधारा और उद्देश्यों की क्या भूमिका है जो जैश-ए-मुहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा और उससे भी आगे बढ़कर अल-कायदा व आईएस में दिख रही है। यदि कश्मीरी पत्थरबाजी से संबंधित रियल एक्टर्स को नहीं पहचाना गया तो, किसी भी किस्म की सैन्य कार्रवाई वहां शांति नहीं ला सकती। वैसे भी अकेले सेना घाटी में सब कुछ सामान्य नहीं कर सकती।

श्रीनगर के चीफ जूडिशियल मजिस्ट्रेट के ऑफिस रिकाॅर्ड संबंधी सूचना पर नजर डालें तो पता चलता है कि इसी वर्ष की 5 जनवरी से 15 अप्रैल के बीच 675 प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज की गईं जिनमें से 138 प्राथमिकियां पत्थरबाजी से संबंधी हैं। कुछ पुलिस स्टेशनों पर तो 50 प्रतिशत से अधिक प्राथमिकियां पत्थरबाजों के खिलाफ दर्ज हुई हैं। खास बात यह है कि इन पत्थरबाजी के लिए जिन्हें आरोपी बनाया गया है उनमें 80 प्रतिशत जुवेनाइल यानि अल्पवयस्क हैं।

इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि कश्मीर के अंदर या फिर कश्मीर से बाहर बैठे लोग इन अल्पवयस्कों का अपराधीकरण कर रहे हैं, उन्हें इन्स्ट्रूमेंट की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं और अंततः उन्हीं को सेना या पुलिस का शिकार भी बनवा रहे हैं। गम्भीरता से विचार करें तो यह स्थिति बेहद खतरनाक है क्योंकि इसमें प्रतिक्रिया उनके खिलाफ नहीं होनी है जो अल्पवयस्कों का अपराधीकरण कर रहे हैं बल्कि उनके खिलाफ हो रही है जो उन्हें सही राह दिखाना चाह रहे हैं, घाटी में शांति स्थापित कर उनके लिए शिक्षा व रोजगार के अवसर पैदा करने हेतु मार्ग निर्मित कर रहे हैं। हालांकि सरकार को पूरी तरह से दोषी मान लेना या फिर एक वाक्य में यह निष्कर्ष निकाल लेना कि लोगों को सरकार पर या देश पर विश्वास नहीं रह गया है, शायद गलत होगा क्योंकि अल्पवयस्क सरकार और राष्ट्र की विशेषताओं, व्यवहारों व उद्देश्यों को समझने की क्षमता ही नहीं रखता।

उल्लेखनीय है कि हिज़बुल मुजाहिदीन के शीर्ष कमाण्डर जाकिर भट ने लगभग 12 मिनट का एक वीडियो सोशल मीडिया पर जारी किया है जिसमें उसने जम्मू-कश्मीर पुलिस और सूचना देने वालों (इनफार्मर्स) को ‘अपकमिंग वार’ यानि आगामी युद्ध की धमकी दी है। इस वीडियो में जाकिर यह कहता दिख रहा है कि अधिकांश लोगों का कहना है कि स्थानीय पुलिस हमारी अपनी है। मत सोचो की वे (पुलिसमैन) हमारे भाई हैं, वे काफिरों का साथ दे रहे हैं...।

वह लोगों से अपील कर रहा है कि वे कश्मीर मुद्दे पर यूएनओ अथवा यूएस की तरफ न देखें बल्कि इस्लाम की ओर लौंटे। वह युवाओं से स्वयं आत्मनिरीक्षण करने और कश्मीरी राष्ट्रवाद से दूर रहने की अपील करता हुआ भी दिख रहा है। उसका कहना है कि राष्ट्र या कश्मीर के लिए पत्थर अपने हाथों में न उठाएं। उन्हें अपने हाथ में पत्थर लेने से पहले सोचना चाहिए कि वे राष्ट्रवाद या लोकतंत्र के लिए इसका इस्तेमाल नहीं करने जा रहे हैं क्योंकि ये दोनों के लिए इस्लाम अनुमति नहीं देता। यानि वे इस्लाम के लिए पत्थर उठाएं।

वह पूर्ववर्ती कमाण्डर बुरहान वानी की ध्यान आकर्षित करने हुए युवाओं से कहता दिख रहा है कि उसने राष्ट्रवाद और लोकतंत्र के विचार को अस्वीकृत कर दिया था और सभी का इस्लाम की ओर लौटने का आह्वान किया था। अगर हम थोड़ी देर के लिए यह मान लें कि जाकिर का खासा प्रभाव पत्थरबाजों पर है, तो यह भी मानना पड़ेगा कि कश्मीर में थर्ड एक्टर के रूप में सिर्फ पाकिस्तान की आर्मी और आईएसआई ही नहीं सक्रिय है बल्कि अल-कायदा और आईसिस की विचारधारा भी तेजी से विस्तार ले रही है।

यदि ऐसा है तो फिर यह भारत के लिए कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण स्थिति का संकेत है। अब सरकार को चाहिए कि राष्ट्रवाद विरोधी तत्वों के साथ बातचीन की शुरुआत करने के लिए हार्डर एप्रोच का प्रयोग करे। इसमें कोई संशय नहीं है कि हाल के समय में हालात बेहद खराब हुए हैं और राज्य शक्ति को अधिक गम्भीर चुनौती मिल रही है। महत्वपूर्ण बात यह है सेना की तरफ से की गयी कार्रवाइयों में अधिकांश चोटों और मौतों ने उन युवाओं को ही चपेट में लिया है, जो अपने उत्साह में खड़े होकर पत्थरबाजी देख रहे थे जबकि वे शक्तियां स्वयं पर्दे के पीछे सुरक्षित हैं जो निरन्तर सुरक्षा बलों को टार्गेट करने की घटनाओं को अंजाम देने जैसी मनोविज्ञान का निर्माण एवं पोषण कर रही हैं।

सीमा पर से हो रही मुक्त फंडिंग राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को बढ़ाने में निर्णायक भूमिका निभा रही है और बेरोजगारी व गरीबी कश्मीरी यूथ के रूप में मानव संसाधन उपलब्ध करा रही है। ऐसे में जनरल रूपर्ट स्मिथ की पुस्तक ‘द यूटिलिटी ऑफ फोर्स: द आर्ट ऑफ वार इन मॉडर्न वर्ल्ड’ का वह तर्क सही लगने लगता है कि भविष्य में सेना का संघर्ष लोगों के मध्य होगा ना कि युद्ध के मैदान में। आज पूर्णतः यह दृश्य कश्मीर में निर्णीत होता दिख रहा है।

इस स्थिति में क्या यह मानना उचित होगा कि बंदूक की नली से ही शांति निकलेगी? स्पष्टतः नहीं बल्कि सेना और सरकार को नियंत्रण के साथ-साथ सोशल डायनामिक्स को बदलना होगा। अन्यथा थर्ड एक्टर अपना खेल जारी रखेगा जिसकी स्पष्ट परख आने वाले समय में करना और मुश्किल हो जाएगा। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि कश्मीर में अब केवल पाकिस्तान ही नहीं बल्कि पाकिस्तान आधारित आतंकी संगठनों से लेकर अलकायदा और आईसिस भी निर्णायक भूमिका में आते दिख रहे हैं।

(लेखक अंतराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं यह उनके निजी विचार हैं।)

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