कुंभ स्नान का धार्मिक से अधिक सामाजिक महत्व

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कुंभ स्नान का धार्मिक से अधिक सामाजिक महत्व

कुम्भ स्नान के वक्त हिन्दू समाज में फैली कुरीतियों जैसे दहेज, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीडऩ, छुआछूत, बाल विवाह, नारी-अशिक्षा, हिंसा आदि विषयों पर विचार करने का यह सर्वोत्तम अवसर होता है। पुराने समय में सन्त समुदाय हिन्दू समाज की विकृतियों और समस्याओं पर चर्चा करते थे और उनका समाधान खोजा जाता था और साथ ही तीर्थयात्रियों का मार्गदर्शन होता था। 

इस प्रकार कुम्भ स्नान की परम्परा हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है और आगे भी रहेगी। इसके माध्यम से श्रद्धालुओं को देश और समाज को देखने, समझने का अवसर मिलता है। पुराने समय में इतनी भीड़ नहीं होती थी क्योंकि लोग पैदल जाते थे और

श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए रास्तों के किनारे पानी के लिए कुएं और ठहरने के लिए धर्मशाला बनवाने आदि की परम्परा थीं। अब समय बदल गया है, श्रद्धालुओं का एक ही लक्ष्य रहता है जल्दी से जल्दी डुबकी लगाएं।  

कुम्भ के विषय में मान्यता है कि सागर मंथन के बाद निकले अमृत कुम्भ को राक्षसों से बचते बचाते देवतों नें कई स्थानों पर छुपाया था जिसमें प्रमुख है उज्जैन, प्रयाग, हरिद्वार और नासिक। उस अमृत कुम्भ का अन्तत: क्या हुआ था यह तो देवता ही जानें परन्तु उन स्थानों पर अमरत्व की तलाश में बड़ा जनसमूह समय-समय पर एकत्र होता है। इन अवसरों पर जितने लोग जाते हैं उनकी एक ही चाह रहती है अमरत्व। सन्तों और नागाओं का शाही स्नान तो प्रतिष्ठा से जुड़ गया है। 

श्रद्धालुओं की अनुमानित संख्या के आधार पर सरकारों और समाज-सेवियों द्वारा व्यवस्था की जाती है। लेकिन जब एक करोड़ की जगह तीन-चार करोड़ श्रद्धालु आ जाएंगे तो व्यवस्था चरमराएगी ही। कल्पना कीजिए यदि दुनियाभर के मुसलमानों को हज करने की खुली छूट हो जाए तो भीड़ का आलम क्या होगा। सऊदी अरब जैसा छोटा देश हमसे बेहतर व्यवस्था कर पाता है क्योंकि वहां व्यवस्था पर आस्था हावी नहीं होने पाती।

व्यवस्था सम्बन्धी अनेक पक्ष हैं, रहने के लिए तम्बू, पीने का पानी, भोजन और सबसे महत्वपूर्ण है संगम स्नान, जिसके लिए जनसमूह वहां पहुंचा है। साथ ही शौचालय व्यवस्था भी कम महत्व की नहीं है। कहते हैं भीड़ को देखकर एक बार एक अंग्रेज ने कहा था जिस दिन यह भीड़ फैसला कर लेगी इसे कोई गुलाम नहीं रख पाएगा। और हुआ भी वहीं। जनशक्ति को दिशा देने वाले चाहिए। हिन्दू समाज के मूलभूत सिद्धान्त चाहे जितने तर्कसंगत हों परन्तु हम मन्दिरों में भगवान के दर्शन करने, घन्टा बजाने या प्रसाद लेने की होड़ में हमेशा धक्का-मुक्की करते हैं। तर्कसंगत सिद्धान्तों के साथ हमें अनुशासन अपनाने की जरूरत नहीं समझते।

समाज और मार्गदर्शक मंडल को भीड़ घटाने अथवा नियंत्रित करने के उपाय सोचने होंगे। समाज को कौन बताएगा कि श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है 'वृक्षाणाम् अश्वत्थमहम' अर्थात वृक्षों में मैं पीपल हूं। तो फिर यदि प्रत्येक गाँव में एक पीपल का पेड़ लगाया जाए और नित्य उसके दर्शन किए जाए तो भी अमरत्व प्राप्त होगा। 

कुम्भ के अवसर पर संगम तट पर विराट के दर्शन होते हैं, मन में सात्विक विचारों का उद्गम होता है और नई ऊर्जा प्राप्त होती है। घर लौट कर यदि हम इस नई ऊर्जा का उपयोग दरिद्रनारायण की सेवा में लगाएं तो पापों की गठरी बनेगी ही नहीं। बार बार गठरी लेकर संगम नहाने की आवश्यकता नहीं होगी। यदि भीड़ नियंत्रण के लिए सरकार परमिट कोटा की व्यवस्था करेगी तो हमें बुरा लगेगा, बेहतर होगा हमारा समाज स्वयं ही त्याग और संयम का परिचय देते हुए जीवन में एक बार के संगम स्नान को पर्याप्त मान ले। लेकिन यह कैसे होगा जब मार्गदर्शक स्वयं ही शक्ति प्रदर्शन के साथ कम्पटीशन में रहते हैं कि कौन सा अखाड़ा पहले स्नान करेगा। 

यदि हमें गंगाजी में आस्था है तो जो लाभ मकर संक्रान्ति, मौनी अमावस्या और बसन्त पंचमी को स्नान करने से मिलता है वह 365 में से किसी दिन स्नान करने से मिलेगा, अवश्य मिलेगा। यदि समाज में संयम ना रहा तो आज तीन करोड़ की व्यवस्था है तो आने वाले दिनों में तीस करोड़ की व्यवस्था करनी होगी। पवित्र संगम की अच्छी परम्परा बाधित हो सकती है।  

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