गरीबों के ख़िलाफ लाइसेंस राज का फंदा

रवीश कुमाररवीश कुमार   2 April 2017 1:58 PM GMT

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गरीबों के ख़िलाफ लाइसेंस राज का फंदायूपी में बंद कराए गए अवैध बूचड़खाने।

1990 के साल से इंस्पेक्टर और लाइसेंस राज के ख़िलाफ़ कानून बनाने से लेकर सियासी नारे लगाते देखा है। कोई भी नेता इंस्पेक्टर और लाइसेंस राज की समाप्ति का एलान कर उद्योगजगत की नज़र में दयाल हो जाता है। इंस्पेक्टर और लाइसेंस राज को भारत की आर्थिक प्रगति का दुश्मन माना गया है। आप इंटरनेट में सर्च कीजिए। हज़ारों ख़बरें मिलेंगी जिनमें लाइसेंस राज की समाप्ति का एलान है। 2013-14 के साल में मृतप्राय हो चुके इंस्पेक्टरराज के फिर से मरने का एलान किया जाने लगा।

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जब minimum government, maximum governance का नारा दिया गया। हिन्दी में इसका अनुवाद गड़बड़ा जाता है। न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन। कम से कम हस्तक्षेप में अधिक से अधिक शासन की बात है। हर महीने दो महीने पर दिल्ली मुंबई के पांच सितारा सम्मेलनों में इंस्पेक्टर राज का मर्सिया पढ़ा जाता है। इसके मरने की हर ख़बर पर ताली बजाई जाती है। भारत की आर्थिक प्रगति का दुश्मन लाइसेंस फिर कैसे यूपी की सड़कों पर लौट आया है। छुट्टा सांड़ की तरह घूम रहा है। बेसिक कोच्चन तो ये है।

हम सभी सुनकर राहत ही महसूस करते हैं कि सरकार इंस्पेक्टरों को ख़त्म कर, उनके अधिकारो को सीमित कर अच्छा ही कर रही है। होना भी चाहिए। बहुत नियम बेवजह होते भी हैं। सारे नियम बेवजह नहीं होते। उनके मकसद होते हैं। अब सरकारें कहती हैं कि हम जांच नहीं करेंगे कि कंपनियां इन नियमों का पालन करती हैं या नहीं क्योंकि हम पर लाइसेंस राज का आरोप लग जाएगा।

क्या एक सवाल उस भारतीय से पूछा जा सकता है कि आप अमीरों के लिए लाइसेंस से इतनी नफ़रत करते हैं, फिर किस तर्क से ग़रीबों या साधारण दुकानदारों के लिए लाइसेंस की वकालत करते हैं। क्यों चाहते हैं कि लाइसेंस के नाम पर एक तबके के दुकानदारों को खोज खोज कर मारा जाए, उनकी दुकानें बंद कर दी जाएं। क्या हमने अपनी संवेदनशीलता का भी बंटवारा कर लिया है? शायद कर लिया है। हम सभी भीतर भीतर ही इन क्रूर सहमतियों को दबा कर रखे हुए थे। तभी हमने नुक्कड़ या स्थानीय बाज़ारों में मीट मुर्गा और मछली बेचनों वालों के लिए आह तक नहीं की। हमने मान लिया कि मीट-मछली और मुर्गा बेचना गंदगी में रहने वाले, गंदा काम करने वाले, दाढ़ी रखने वाले, भद्दे दिखने वाले मुसलमानों का ही काम है। इन्हें सबक सिखाने की ज़रूरत है।

अगर लाइसेंस की ही शिकायत है तो इसकी जांच पुलिस या निगम के इंस्पेक्टर करेंगे या गले में धार्मिक पहचान का पट्टा डालकर घूम रही टोली करेगी। उद्योगपतियों को लाइसेंस देने के लिए सरकारें इंवेस्टमेंट समिट करती हैं। ज़्यादातर इंवेस्टमेंट समिट फ्लॉप हैं फिर भी न जाने किन कारणों से हमारे भीतर इन्हें लेकर सहमति बनी रहती है। चूंकि ये ग़रीब हैं या साधारण हैं तो इन पर लात जूते बरसाए जाएंगे? लाइसेंस नहीं है तो इसका पालन प्रशासन करेगा या भीड़? क्या इसे लेकर भी आप सहमत हैं? क्या अवैध धंधा करने वाले इन मुसलमानों से रिश्वत लेने वाले हिन्दू नहीं होंगे? रिश्वत का समाज ऐसे ही बन गया होगा?

क्या सरकार को हाउसिंग सोसायटी के बाहर खड़ी कारों से पार्किंग शुल्क नहीं वसूलना चाहिए? अव्वल तो फुटपाथ पर लगी कारों को ज़ब्त कर लेना चाहिए। मुझसे कई लोग मिलते हैं जो प्रधानमंत्री से लेकर ज़िलाधिकारी का ईमेल मांगते हैं। शिकायत करने के लिए कि पास के मार्केट के बाहर बहुत अतिक्रमण है। सड़क के किनारे पटरी पर फल और सब्ज़ी बेचने वालों ने गंदगी कर रखी है। जब मैं उन्हें बताता हूं कि ज़्यादा गंदगी तो आपकी दस-दस लाख की कारों की अवैध पार्किंग की वजह से है तो वे भारत को कभी सिंगापुर न बन पाने का श्राप देते हुए चले जाते हैं।

अगर अवैध बंद ही करना है तो क्या सिर्फ मीट मुर्गा ही अवैध तरीके से बिक रहा है? क्या लस्सी, नारियल, पान-बीड़ी, फल-सब्जी सब लाइसेंस से ही बिक रहा है? क्या पुलिस के साथ या उसके बिना दुकानों पर धावा कर रही ये भीड़ अवैध नहीं है? क्या अवैध का ख़ात्मा अवैध से ही होगा? क्या ये भीड़ भी वैध है? टीवी और अख़बार ने इतना बूचड़खाना बूचड़खाना किया कि लगता है कि यूपी में बूचड़खाना छोड़कर कुछ है ही नहीं। किस ज़िले में कितने वैध और अवैध बूचड़खाने हैं, इसका कोई अता-पता नहीं है। एक-दो बूचड़खाना बंद हुआ, उसे लेकर हंगामा मच गया। क्या इतनी जल्दी सारे बूचड़खाने बंद हो गए? दो-चार वेबसाइट पर भले बूचड़खानों के हिन्दू मुस्लिम स्वामित्व के बारे में रिपोर्ट छपी लेकिन घर-घर पहुंचने वाले टीवी ने क्या आपको जानकारी दी? किसी हिन्दू से पूछना चाहिए था कि आप बूचड़खाना क्यों चलाते हैं? क्यों धर्म के ख़िलाफ़ जाकर पैसा कमाते हैं। गाय पर बैन है तो क्या भैंस के प्रति कोई करुणा नहीं।

मुख्यमंत्री योगी से मिलने गए मीट कारोबारियों की तस्वीर देखिए। थोड़ी मेहनत आप भी कीजिए। इंटरनेट पर तस्वीर है। टीवी ने बूचड़खाने को लेकर आपके मन में ऐसी तस्वीर बनाई कि हत्यारे आक्रांता मुसलमान बूचड़खाना चला रहें हैं। मुख्यमंत्री से मिलने गए कारोबारी इस भयंकर गर्मी में भी सूट-बूट में योगी जी के सामने बैठे हैं। न तो किसी की दाढ़ी है, न किसी ने पजामा पहना है। ये होता है पैसे का खेल। अगर मांस हिंसा है तो फिर वैध अवैध क्या। इसी पर सहमति बना लीजिए और हर तरह की कटाई छंटाई बंद कर दीजिए। फिर उस भीड़ के ख़िलाफ़ भी खड़े हो जाइए जो लोगों को मार रही है। क्या वो हिंसा नहीं है?

सवाल बूचड़खाने का था, मगर इसके नाम पर गली नुक्कड़ पर मीट मछली बेचने वालों की तलाशी होने लगी। कंपनी वाले वैध तरीके से सूट-बूट में मीटिंग कर रहें हैं। मुख्यमंत्री ने मीट कारोबारियों को भी बुलाकर सुना है। सबने कहा है कि हम लाइसेंस के लिए तैयार हैं। तो इसके बाद उस तरफ देखा जाए कि और कौन-कौन हैं जो बिना लाइसेंस के धंधा कर रहें हैं। किनारे मेहनत मज़दूरी करने वालों के लिए लाइसेंस की वकालत कर रहे हैं। यही राजनीति मुझे आपके दोहरेपन को लेकर कोई दुख नहीं है। बस अफसोस है कि आप भीड़ की हिंसा का समर्थन करते हैं। किसी को डराने में यकीन रखने लगे हैं। हिन्दू अवैध और मुस्लिम अवैध सब मिटा देते हैं। आइए हम और आप मिलकर एक वैध भारत बनाते हैं। वैध भारत ही नया भारत होगा। मेरा नारा चोरी न करें। आजकल बहुत से चोर राजनीति में आ गए हैं जो थानेदार बनकर घूम रहें हैं।

(लेखक एनडीटीवी में सीनियर एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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