नेस्ले की मैगी हो या बाबा की सेवइयां, हैं तो जंकफूड

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बाबा रामदेव को हम सभी योगगुरु के रूप में जानते हैं और निश्चय ही इस क्षेत्र में उन्होंने भारत का नाम बढ़ाया है लेकिन आजकल टीवी पर एक अच्छे सेल्समैन की तरह टूथपेस्ट, आटे की सेवइयां, दालें और बासमती चावल बेच रहे हैं। वह भी महर्षि पतंजलि के नाम से जिन्होंने खुद कभी दालें न बेची होंगी। बाबा के शहद की काफी चर्चा हो चुकी है और यश नहीं मिला है। जो भी हो पतंजलि के नाम से योग बेचना तो ठीक है पर तेल, मसाले और फास्टफूड ठीक नहीं।

यह सच है कि मैगी, मैक्रोनी, पास्ता और पिज्ज़ा गाँवों तक पहुंच गए हैं। गाँववालों को यह नहीं मालूम कि इनको देर तक सुरक्षित रखने के लिए जिन रसायनिक पदार्थों का प्रयोग होता हैं उनमें से अनेक बहुत हानिकारक हैं। गाँवों तक फैल चुकी मैगी की हानियों का अब पता चला है तो शायद ग्रामीण लोग इनसे अपने को दूर रखने का साहस जुटा सकें। गाँवों के नौजवान जो शहरों के सम्पर्क में आ चुके हैं उन्हें जंकफूड यानी बासी और कचरा भोजन से प्यार हो चुका है। स्वदेशी के नाम पर मैगी का विकल्प जो बाबा रामदेव ने अच्छे उद्योगपति की तरह ढूंढ़ने में देर नहीं लगाई लेकिन उसको भी सुरक्षित रखने के लिए रसायन लगेंगे।

गाँव के लोगों के पास पहले से ही परम्परागत विकल्प मौजूद है जो मैगी के दो मिनट की जगह केवल एक मिनट में तैयार होते है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार के लोग भूजा और सत्तू को फास्ट फूड के रूप में जानते हैं। इनके प्रयोग से कोई हानि नहीं, महीनों तक सुरक्षित रह सकता है, विविध प्रकार से मीठा या नमकीन स्वाद में खाया जा सकता है या फिर इसमें बाटी-चोखा में शामिल कर सकते हैं। बच्चों के स्वाद के लिए अनेक रूपों में प्रयोग कर सकते हैं। हमने विदेशी प्रचार के चक्कर में अपने अनेक व्यंजन त्याग कर कचरा भोजन को कबूल कर लिया। अब बाबा रामदेव विदेशी कचरा भोजन को उन्हीं की भाषा में स्वदेशी कचरा भोजन से जवाब दे रहे हैं। अच्छा होता पतंजलि के नाम पर स्वदेशी विधि से स्वदेशी पदार्थों का बिना रसायनों का उपयोग किए विपणन करते, प्रिज़र्वेटिव से बचा जा सकता।

गाँवों के बाजारों में, चौराहों पर मैगी नूडल, चाऊमीन और मैदा के बने दूसरे पदार्थ मिल जाते हैं। यह भोजन स्टेटस सिम्बल यानी बड़प्पन की निशानी बन गया है। शादी ब्याह में गाँवों में अन्य व्यंजनों के साथ इनका भी काउन्टर बनता है लेकिन मैदा की जगह आटा के प्रयोग से समस्या का पूरा निदान नहीं होगा। दूसरे देशों जैसे फिजी, गयाना और मॉरीशस की बाजारों में सत्तू भोजन ही नहीं बल्कि पेप्सी और कोका-कोला की तरह पेय के रूप में भी प्रयोग होता है।

कई बार भारतीय सामान विदेशों से वापस कर दिया जाता हैं इस आधार पर कि वह उनके मानकों पर खरा नहीं उतरता। अफसोस यह है कि हमारे तो मानक ही नहीं हैं वर्ना हमारे बाजार चीन के घटिया सामान से पटे न होते। जब हम मेक इन इंडिया पर नियंत्रण नहीं रख पाएंगे तो ऐसी समस्याएं बार-बार सामने आएंगी। आखिर हम अपनी नींव पर दीवार खड़ी करना कब सीखेंगे। अपने खान-पान के आधार पर ही भारत के लोग कहते थे ‘‘जीवेम शरदः शतम” यानी सौ साल तक जीना चाहिए। अब हम मधुमेह और रक्तचाप के जाल में फंसे हैं। फैसला हमें करना है कि हम जंकफूड चाहे नेस्ले का हो या बाबा रामदेव का उसे खाकर अकाल मौत मरना चाहते हैं या फिर शुद्ध खान-पान के बल पर सौ साल जीना चाहते हैं।

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