बुनकरों की एक नई 'आशा'

Deepak AcharyaDeepak Acharya   26 Nov 2016 1:32 PM GMT

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बुनकरों की एक नई आशाबी.फार्मा की शिक्षा लिए हुए रोहित ने अपने पैतृक व्यवसाय की तरफ मुड़कर बुनकरों, हथकरघा उद्योग और हैंड ब्लॉक प्रिंटिंग की बेहतरी के लिए संस्था ‘आशा’ की नींव रख दी।

मध्य प्रदेश जैसे राज्य की बात हो या अन्य किसी राज्य की, बुनकरों और हथकरघा उद्योग की माली हालत किसी से छिपी नहीं है। मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में दीपावली की छुट्टियों के दौरान मेरी मुलाकात बुनकरों और हथकरघा उद्योग की बेहतरी के लिए बनाई एक संस्था 'आशा' के सह संस्थापक रोहित रुसिया से हुई।

आशा (ASHA- Aid and Survival of Handicraft Artisan) की शुरुआत सन 2014 में हुई थी और आशा का मुख्य उद्देश्य स्थानीय हथकरघा और हैंड ब्लॉक प्रिंटिंग के कारीगरों की आजीविका के लिए आधार प्रदान करना और इसे एक व्यवसाय का जरिया बनाना था ताकि उंगलियों पर गिने जाने वाले कारीगरों को स्वालंबित बनाया जा सके और इस कला को विश्व मंच पर पहचान भी मिले। रोहित बी.फार्म की शिक्षा लिए हुए हैं और उनकी पत्नी आरती जो ग्रेजुएट हैं इनके साथ मिलकर "आशा" को ऊंचाइयां दिलाने के लिए कंधे से कंधा मिलाए हुए है।

दरअसल हथकरघा और हैंड ब्लॉक प्रिंटिंग रोहित के दादा-परदादा के दौर से ही इनका पारिवारिक व्यवसाय रहा है लेकिन रोहित के पिता गुरुप्रसाद रुसिया चाहते हुए भी इस कला को निरंतर नहीं रख पाए क्योंकि इन्हें बैंक में नौकरी मिल चुकी थी, नौकरी करते हुए समय का अभाव सबसे बड़ी समस्या रही। रोहित ने बी.फार्म की शिक्षा के बाद एक फार्मा कंपनी की शुरुआत की लेकिन बार-बार इनका ध्यान घर के एक बक्से में रखे उन ब्लॉक्स पर जाता था जिन्हें इनके पूर्वज हथकरघे से तैयार कपड़ों पर प्रिंट के लिए इस्तेमाल में लाया करते थे। पत्नी आरती भी कहीं न कहीं उन्हें अपने पैतृक व्यवसाय की तरफ मुड़ने के लिए इशारे करती रहीं और फिर एक दिन आशा की नींव रख दी गयी।

रोहित रुसिया, संस्था 'आशा' के सह संस्थापक

छिंदवाड़ा और नागपुर (महाराष्ट्र) के बॉर्डर पर सावनेर गाँव हैं जो मध्यभारत के काफी नामचीन बुनकरों का गढ़ हुआ करता था। एक दौर था जब यहां लगभग हर घर में एक बुनकर हुआ करता था। यहां कोयले की खदाने आने के बाद युवाओं का रुझान खदानों में नौकरी की तरफ बढ़ता गया, पलायन का एक तगड़ा दौर आया और भुगतना पड़ा पूरे हथकरघा उद्योग को। आज पूरे गाँव में महज एक आर्टिस्ट बचे हैं, 70 वर्षीय दुर्गालाल जो आज भी इस पारंपरिक कला और व्यवसाय को बचाने की जद्दोजहद में हैं। रोहित ने दुर्गालाल जी से मुलाकात कर उनके मार्गदर्शन में ही आशा की शुरुआत की। आशा की खासियत इससे जुड़े कारीगर हैं जो स्थानीय गोंड़ आदिवासी महिलाएं और पुरुष हैं जिन्होंने बाकायदा हैंड ब्लॉक प्रिटिंग की ट्रेनिंग ली और अब आशा के साथ जुड़कर अपनी कला को आय का मुख्य जरिया बनाए हुए हैं। आज आशा हैंड ब्लॉक प्रिटेंड फैब्रिक को अपने ब्रांड 'कॉटन फैब्स' के नाम से बाज़ार में उतार चुकी है।

छोटे से शहर में बनने वाले प्रिंटेड फैबरिक का प्रचार-प्रसार फेसबुक, व्हाट्सएप जैसे सोशल नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म्स पर तो किया ही जा रहा है, अमेज़न, शॉप क्लूज़, पेटीएम जैसे ऑनलाइन मार्केटिंग चैनल के जरिए भी दुनिया भर में इन फैब्रिक्स को पहुंचाया जा रहा हैं। पिछले दो वर्षों में कॉटन फैब्स ने 30 से 40 प्रतिशत तक अपने व्यवसाय को बढ़ाया है। सफलता का ये संकेत हथकरघा के कारीगरों और उनकी कला के लिए मनोबल बढ़ाने वाला है। रोहित बताते हैं कि अब तक इस कला से जुड़े कारीगरों का शोषण होता रहा है, इस कठिन परिश्रम वाले काम के एवज में उन्हें बहुत कम पारिश्रमिक मिलता है जबकि इस उद्योग से जुड़े बिचौलिये और बड़े व्यापारी ज्यादा कमा ले जाते हैं।

आशा की देखरेख में रोहित प्रयासरत हैं कि कारीगरों और उनकी कला को पूरा सम्मान तो मिले ही साथ-साथ हैंड ब्लॉक प्रिंटिंग कला को बचाने की कवायाद भी होती रहे। अपने पारंपरिक ब्लॉक्स को हाथ में लेकर रोहित ने जब बताया कि ये ब्लॉक्स उनके दादा और पैतृक व्यवसाय की निशानियां हैं और आज भी वे अपने फैब्रिक्स पर इन ब्लॉक्स की मदद से प्रिंट ले रहे हैं, उनके चेहरे की खुशी देखकर ही मुझे समझ आ रहा था कि बुनकरों और उनकी कलाकारी का भविष्य अब भी संवर सकता है क्योंकि आज भी हमारे समाज में रोहित जैसे लोग हैं, बुनकरों की इस कला का भविष्य सही हाथों में है, फिलहाल मेरी भी यही आशा है।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कन्सल्टिंग एडिटर हैं।)

     

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