नोमोफोबिया से आज़ादी के लिए तैयार हैं आप?

स्मार्टफोन्स के ज्यादा इस्तेमाल करने वाले लोगों के लिए एक नए शब्द की खोज भी कर दी गयी, "नोमोफोबिया" यानी जब कोई व्यक्ति अपने फोन से कुछ देर के लिए भी दूर हो जाए और बेचैनी दिखाए तो उस बेचैनी को नोमोफोबिया कहा जाएगा और ऐसे व्यक्ति को नोमोफोबिक कहा जाएगा।

Deepak AcharyaDeepak Acharya   10 Aug 2018 6:00 AM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
नोमोफोबिया से आज़ादी के लिए तैयार हैं आप?प्रतीकात्मक तस्वीर।

हाल फिलहाल के दौर में स्मार्टफोन्स पर कुछ ऐसे गेम्स और एप्लीकेशन्स के बारे में सुनने को मिला जो बच्चों और युवाओं को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करते हैं। मेरे लिए ऐसी खबरें सुनना बेहद चौंकाने वाली बात थी। स्मार्टफोन अब हम सब की दैनिक जीवनचर्या के अहम हिस्से हो चुके हैं और इनके ज्यादा उपयोग से जुड़े कई दुष्परिणामों को हम सभी जानते हैं, बावजूद इसके इनके इस्तेमाल में हमने कोई कमी नहीं लाई है। अभी हाल ही में 'कंम्प्यूटर्स एंड ह्यूमन बिहेवियर' नामक एक वैज्ञानिक शोध पत्रिका के एक लेख को पढ़ रहा था जिसमें स्मार्टफोन्स के उपयोग करने के बाद हमारे शरीर और मानसिकता में होने वाले बड़े बदलावों को लेकर क्लीनिकल शोध के परिणाम प्रकाशित थे।

इस लेख में बताया गया कि स्मार्टफोन्स के ज्यादा इस्तेमाल से ना सिर्फ हमारे स्वस्थ शरीर पर इसका बुरा असर होता है अपितु हमारी मानसिकता और सोच-समझ की प्रवृत्ति में बड़ी तेज़ी से नकारात्मक बदलाव आते हैं। स्मार्टफोन्स के ज्यादा इस्तेमाल करने वाले लोगों के लिए एक नए शब्द की खोज भी कर दी गयी, "नोमोफोबिया" यानी जब कोई व्यक्ति अपने फोन से कुछ देर के लिए भी दूर हो जाए और बेचैनी दिखाए तो उस बेचैनी को नोमोफोबिया कहा जाएगा और ऐसे व्यक्ति को नोमोफोबिक कहा जाएगा।

ये भी पढ़ें- कम उम्र में मां बनने पर लगाम लगे तो सात साल तक 33,500 करोड़ रुपए की बचत हो सकती है

स्मार्टफोन के बारे में कहा जाता था कि ये हमें देश, दुनिया, दोस्तों और परिवार से जोड़े रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा लेकिन इसके विपरीत इसके इस्तेमाल से हम आभासी दुनिया में ज्यादा जीने लगे और वास्तविक जीवन में सबसे दूर होते चले गए। हमारी याददाश्त का क्षीण होना इसी वजह से हुआ है।

इलिनोइस यूनिवर्सिटी के एक शोध कार्यक्रम की विस्तृत रपट "कंम्प्यूटर्स एंड ह्यूमन बिहेवियर" पत्रिका में पढ़ते हुए मुझे क्लीनिकल शोध आधारित जानकारियों को जानने का मौका मिला। रिपोर्ट में बताया गया है कि स्मार्टफोन्स के इस्तेमाल से युवाओं में पंगुपन बढ़ चुका है और ज्यादा से ज्यादा टीनएजर्स और युवाओं में मानसिक तनाव देखा जाने लगा है, ये लोग कुंठित जीवन व्यतीत कर रहे और परिणामस्वरूप कई बार आत्महत्या तक कर बैठते हैं।

रिपोर्ट में बताया कि नौकरीपेशा लोग छुट्टियों के दिन तनावरहित रहने के बजाए सुबह से ही मोबाइल फोन पर खुद को व्यस्त कर लेते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता उन्हें तनाव घेरने लगता है और जाने-अनजाने में हम छुट्टियों का मज़ा किरकिरा कर लेते हैं, सेहत भी बिगड़ जाती है। यूनिवर्सिटी ऑफ ज्यूरि़च की एक शोध रपट का हवाला देते हुए बताया गया है कि स्मार्टफोन्स के इस्तेमाल के दौरान लोगों के मस्तिष्क की कोशिकाओं में ज्यादा तनाव आता है जिसके परिणाम स्वरूप हमारे शरीर की अन्य कोशिकाओं में भी तनाव आता है और हमें थकान, चिड़चिड़ापन और घबराहट की शिकायतें देखने मिलती हैं।

ये भी पढ़ें- स्वतंत्रता दिवस विशेष : अपने हक की‍ आय भी नहीं मिलती किसानों को, पार्ट-2

रात में स्मार्टफोन का इस्तेमाल नींद भी उड़ा ले जाता है जिसका सीधा असर हमारी दैनिक जीवनचर्या और सेहत पर पड़ता है। स्मार्टफोन इस्तेमाल करने वाले बच्चे ज्यादा एग्रेसिव दिखाई देते हैं और इनकी पढ़ाई-लिखाई और सोचने समझने की क्षमता में भी भारी गिरावट आती है। पूरी शोध रपट पढ़ने पर साफ समझ आ जाता है कि स्मार्टफोन्स का ज्यादा इस्तेमाल करने वाले लोग कुछ समय के लिए ही स्मार्ट हो सकते हैं बाद में उन्हें गब्दू बनना ही होगा।

इन लोगों को डायबिटीज़, हृदय से जुड़ी समस्याएं, मानसिक तनाव, चिड़चिड़ापन, याददाश्त की कमजोरी, एकाग्रता में कमी, मस्तिष्क निष्क्रियता और थकान जैसी समस्याओं से रूबरू होना ही पड़ेगा। तकनीकी का इस्तेमाल जरूरतों के हिसाब से होना चाहिए लेकिन हम तकनीकी के गुलाम हो चुके हैं। सुबह उठने से लेकर रात सोने तक हम लगातार तमाम तरह के रेडियेशन्स और बुद्दि को मंद करने वाले संयंत्रों से घिरने लगे हैं चाहे वो टीवी, कम्प्यूटर्स या मोबाइल फोन्स हों। समय रहते सचेत नहीं होने से आने वाले समय में हमें घातक परिणामों से रुबरू होने के लिए खुद को तैयार रखना होगा।

मेरा व्यक्तिगत मानना भी यही है कि हम अपने आप को हर दिन कुछ घंटों के लिए स्मार्टफोन्स से दूर रखें, सोशल नेटवर्किंग पर जितने एक्टिव हैं उससे ज्यादा वक्त अपने घर के लोगों के लिए दें। घर और आस-पड़ोस के बुजुर्गों से बातचीत करें, आपस में बातचीत करें और घर के अन्य लोगों को भी स्मार्टफोन के मायाजाल से आज़ाद करने का प्रण लें। बंद कमरें में कैद होकर दुनियाभर के दोस्तों से बातचीत और सोशल नेटवर्किंग पर खुद को व्यस्त रखकर हम कोई कमाल तो कर नहीं रहे।

ये भी पढ़ें- अमेरिका में 'डिजाइनर बेबीज' की तैयारी में कश्मीरी डॉक्टर मददगार

इनका इस्तेमाल जरूरतों के हिसाब से हो तो बेहतर होगा..वैसे देश की आजादी का महापर्व 15 अगस्त को होता है, क्यों ना हम एक और आज़ादी की लड़ाई लड़ें और नोमोफोबिया से आज़ाद हो जाएं...क्या तैयार हैं आप?

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक भी।)

ताजा अपडेट के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए यहां, ट्विटर हैंडल को फॉलो करने के लिए यहां क्लिक करें।

          

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.