आर्थिक नहीं, मार्मिक थी अम्मा की सोच

Devinder SharmaDevinder Sharma   10 Dec 2016 6:18 PM GMT

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आर्थिक नहीं, मार्मिक थी अम्मा की सोचआर्थिक नहीं, मार्मिक थी अम्मा की सोच।

जयललिता हमें छोड़ कर चली गईं और अपने पीछे छोड़ गई हैं एक ऐसी मज़बूत विरासत जो 7.2 करोड़ लोगों को सामाजिक सुरक्षा की तमाम सुविधाएं मुहैया कराती रहेगी। कई लोग इसे मुफ्त योजना जैसे नाम दे सकते हैं, पर ये उनका नजरिया है। मुझे हमेशा ही ये मुफ्त योजनाएं विकास को प्रोत्साहन देने वाला कदम लगा है। अपने किसी नागरिक को जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं उसकी पहुंच के अन्दर मुहैया कराना और उसे एक इज्ज़तदार जीवन देना एक सरकार का फ़र्ज़ होता है।

मुझे याद है, जब नीतीश कुमार सत्ता में दूसरी बार वापस आए, मैंने उनसे सवाल किया था। उनके शब्द मुझे अच्छी तरह याद हैं। उन्होंने कहा था कि विश्वास बड़ी गाड़ियों पर नहीं बल्कि साइकिलों पर है। उनका इशारा बिलकुल साफ़ था। स्कूली बच्चियों को साइकिलें देकर उन्होंने हर एक को सशक्त किया है। इस एक योजना ने ग्रामीण बिहार की तस्वीर बदल कर रख दी है।

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी जब दूसरी बार चुनाव जीते थे, तो वह इन्हीं सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं और नीतियों के बल पर था। उन्होंने ‘लाडली’ स्कीम के तहत स्कूल की बच्चियों में साइकिलें बांटी थीं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह की भी लोकप्रियता उनकी गरीबों में एक रुपए प्रति किलो की दर पर चावल बेचने की महत्वाकंक्षी योजना और खरीद के नियमों को ठीक करने की वजह से ही बनी।

जयललिता भी इस बात को जल्दी समझ गई थीं कि गरीबों को सीधे सशक्त करना किसी जादुई बदलाव की उम्मीद रखने से कहीं बेहतर है। मुझे याद है जब कुछ साल पहले किसानों की खुदकुशी करने की दर तमिलनाडु में अचानक बढ़ गई थी तब अम्मा ने किसानों के लिए मिड-डे मील की योजना शुरू कर दी थी पर वह चल नहीं पाई थी क्योंकि इस योजना ने किसान के अपने अन्नदाता होने के अभिमान पर चोट की थी। इसके बाद भी, जयललिता ने बच्चों के लिए मिड-डे मील में बच्चों के लिए मैंगो-शेक देने पर भी विचार किया था ताकि वे कृष्णागिरी के आम-उत्पादकों की मदद कर सकें, जो उस वक्त गहन समस्याओं में घिरे हुए थे।

तमिलनाडु पूरे भारत में अपने मिड-डे मील के संचालन के लिए मिसाल बन गया था। 92 प्रतिशत स्कूलों के पास अपनी रसोई थी और रसोइयों में भी गैस की सुविधा थी, जिससे राज्य सरकार के ऊपर केंद्र से आए फंड के अलावा अतिरिक्त भार पड़ता था। करीब 80 प्रतिशत बच्चे स्कीम के फायदे उठा पाए थे।

अखबारों की मानें तो 2011 में मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने हर घर को 100 यूनिट मुफ्त बिजली, हर 11वीं और बारहवीं के बच्चे को मुफ्त लैपटॉप (मुफ्त इन्टरनेट कनेक्शन के साथ), एक ग्राम सोना विवाह सहायता हेतु और गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले हर परिवार को चार बकरी/भेड़ दिए थे। इसके अलावा, 2013 में उन्होंने विख्यात अम्मा कैंटीन शुरू की। इसके बाद अम्मा पेयजल और नमक भी आए।

मुझे याद है, गरीब तबके और बाहरी मजदूरों की बेहतरी के लिए पहली अम्मा कैंटीन का अनावरण फरवरी 2013 में उनकी पायलट स्कीम के तहत हुआ। ये पूरी तरह से औरतों के स्वयंसेवी संघों द्वारा चलाई जाने वाली साफ़-सुथरी कैंटीनें रातोंरात हिट हो चली थीं। इडली के लिए एक रुपया, दही-चावल के लिए तीन रुपया और सांभर चावल के लिए पांच रुपया लेने वाली ये कैंटीनें रात का खाना भी देने लगीं थीं। इसके बाद, तीन रुपए में रोटी और दाल-कोरमा हर दूसरे दिन मिलने लगा।

अर्थशास्त्री कितना भी ये कहें की अम्मा की कैंटीनों में सरकार की सब्सिडी की भयानक फिजूलखर्ची हो रही है, अम्मा हर तरह से तारीफ की हकदार थीं। मेरी समझ में यही सच्चा समन्वय है। जब तक राज्य की आर्थिक प्रगति के फायदे राज्य की दुर्बल जनता तक न पहुंचे तब तक समावेशी विकास की बात करना बेकार है। घरेलू उत्पाद के आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर, उछालकर, जैसा कि अमूमन सरकारें किया करती हैं, दरअसल दिखाने से ज्यादा छुपाया जाता है। मुझे तब ज्यादा ख़ुशी होगी जब घरेलू उत्पाद की दरें गिरें पर भूखे और कुपोषितों का डर उससे ज्यादा तेज़ी से गिरे।

उन लाखों की तादाद, जो अम्मा कैंटीन की तरफ भागा करते थे, का एक बड़ा हिस्सा दैनिक मजदूर, बाहरी मजदूर, रिक्शाचालक, ऑटो ड्राइवर, बस/ट्रक ड्राइवर/कंडक्टर और आर्थिक तौर पर निचले तबके के लोगों का था। ये तबका अक्सर पैसे बचाने की जुगत में भूखा सोता है और नतीजतन कुपोषित रह जाता है। उनको सस्ती और पहुंच के भीतर वाली खाद्य सेवाएं पहुंचा कर अम्मा ने जता दिया था कि उनको अपने लोगों की फिक्र है। चाहे कीमत जो हो, राज्य में भूखे पेट सोते लोगों की संख्या को कम करना बेहद ज़रूरी था। अर्थशास्त्री एक भरपेट काम करने वाले कार्यबल के आर्थिक फायदे गिनना भूल जाते हैं।

और इससे मुझे अपना वह विफल प्रयास भी याद आता है जो मैंने कई साल पहले दिल्ली में किया था। एक वरिष्ठ पत्रकार के साथ मैं दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से उनके घर पर मिला था। मैंने उन्हें विस्तार से समझाया था कि कैसे दिल्ली खाद्य सुरक्षा की एक मिसाल बनकर सामने आ सकता है। मेरे अनुमान में धार्मिक संस्थानों, मानवहित के कार्य करने वाले संगठनों, स्वयं सेवी संस्थाएं, और बाकी सबके साथ मिल कर एक दैनिक रसोई खोली जा सकती है जो अलग-अलग इलाकों में काम करेगी। उन्होंने बहुत शांति से मेरी बात सुनी और फिर अचानक बोलीं, ‘दिल्ली में भुखमरी है ही कहां?’

मैं हैरान रह गया। मैंने बहुत ही विनम्रता से कहा कि हो सकता है कि लम्बे समय से लोगों से कटे रहने के कारण उन्हें यही नहीं पता कि शहर में भुखमरी है भी या नहीं। उन्हें अहसास हुआ कि उन्होंने क्या कहा है और फिर उन्होंने मेरे सामने सच्चाई परोस दी। ‘अब तक लोग दिल्ली में नौकरी और जीविका की तलाश में आते हैं। अगर उन्हें ये पता चल गया कि दिल्ली खाना भी देती है, तो मेरी समस्याएं सिर्फ बढ़ेंगी ही।’

मीटिंग बड़े अटपटे ढंग से ख़त्म हुई। हम उनके घर के बाहर निकाल आए। मुझे नहीं लगता कि उन्हें ये मीटिंग याद भी होगी। पर कई साल बाद मैं फिर हैरान रह गया जब उन्होंने एक सब्सिडी कैंटीन का उद्घाटन किया। मीडिया की इक्का-दुक्का रिपोर्टों के अलावा ये ज़ाहिर है कि वह कैंटीन किसी भी ज़रूरतमंद को अपनी तरफ नहीं खींच पाई है।

(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)

    

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