हमारी चुनाव पद्धति में बिना सुधार, निर्णायक परिणाम सम्भव नहीं

Dr SB Misra | Nov 20, 2016, 20:50 IST
Supreme Court of India
प्रजातंत्र का तकाज़ा है कि अधिकाधिक लोगों की पसन्द की सरकार बने। इसके बहुत से तरीके हो सकते हैं। एक तरीका है कि वोट पार्टियों को दिए जाएं वह भी वरीयता क्रम में न कि व्यक्तियों को। बाद में पार्टियां अपने प्रतिनिधि संसद और विधानसभा भेजें। तब यह नौबत कभी नहीं आएगी कि सरकार ना बन सके, आयाराम-गयाराम, गुटबाजी और अनुशासनहीनता की समस्या भी नहीं रहेगी लेकिन इसमें कठिनाई यह है कि सरकार पर संगठन हावी रहेगा और प्रतिनिधियों की व्यक्तिगत आजादी नहीं बचेगी। अभी तो अल्पमत में होते हुए भी सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का संविधान में प्राविधान है लेकिन ऐसी स्थिति में सरकार के ऊपर अस्थिरता की तलवार लटकती रहती है।

अमेरिका और फ्रांस जैसे देशों ने राष्ट्रपति प्रणाली विकसित की है जिसमें अधिकारों और कर्तव्यों में सन्तुलन है। उनका राष्ट्रपति अपने देश के जनमानस का प्रतिनिधित्व करता है, सर्वशक्तिमान है इसलिए खींचतान नहीं होती। इसके विपरीत हमने अंग्रेजों से संसदीय प्रणाली जैसी की तैसी उधार ले ली, हमने इसे विकसित नहीं किया था। जब प्रजातांत्रिक ढांचों के गुण दोषों पर विचार करते हैं तो इसमें हमारे प्राचीन गणराज्यों और पंचायतों का इतिहास कहीं नहीं रहता।

वर्तमान व्यवस्था में मतदाताओं के वोट तमाम दलों में विभाजित हो जाते हैं और जीता हुआ प्रतिनिधि सही मायने में अपने क्षेत्र का पसंदीदा प्रतिनिधि नहीं होता। इससे बचने के लिए पार्टियों की संख्या घटे और फिर मतदान वरीयता के आधार पर हो यानी आनुपातिक प्रतिनिधित्व। इस विधा में यदि कोई उम्मीदवार पहली बार की गिनती में ही 50 प्रतिशत या अधिक वोट हासिल कर ले तो विजयी घोषित कर दिया जाए अन्यथा दूसरी वरीयता वाले वोट गिने जाएं और पहली वरीयता वाले वोटों में जोड़ दिए जाएं। गिनती का यह क्रम तब तक चलता रहे जब तक कोई उम्मीदवार आधे से अधिक वोट हासिल ना कर ले।

चुनाव खर्च घटाना उतना ही जरूरी है जितना जनमानस का प्रतिनिधित्व। देश में प्रान्तीय और राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव एक साथ हुआ करते थे और आज की अपेक्षा समय और खर्चा बहुत कम लगता था। महंगाई, भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी भी अगर होती थी तो पांच साल में केवल एक बार लेकिन सत्तर के दशक में उस समय की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने तर्क दिया कि प्रान्तीय और राष्ट्रीय मुद्दे अलग-अलग होते हैं इसलिए दोनों के चुनाव अलग-अलग होने चाहिए। एक समय आया कि हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते रहते थे और झंडा, डंडा, बैनर, असलहे और किराए के बलवान हर समय उपलब्ध रहने लगे। प्रान्तों में क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व हुआ और केन्द्र कमजोर होता गया।

दो-तीन अन्य सुधारों की मांग रही है, एक तो चुने जाने के बाद भी यदि जनता का बहुमत चाहे तो प्रतिनिधि को वापस बुला सके यानी राइट टु रिकॉल और दूसरा यह कि सभी उम्मीदवारों को अयोग्य कहने का अधिकार यानी राइट टु रिजेक्ट। तीसरा है दागी उम्मीदवारों की संख्या घटाना। एक समय आया जब भले लोगों ने अराजक तत्वों का समर्थन लेने में परहेज़ छोड़ दिया, फिर क्या था कालान्तर में अराजक लोगों ने स्वयं अपने को प्रतिनिधियों के रूप में पेश करना आरम्भ कर दिया। न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण कुछ सुधार हुआ है परन्तु बहुत कुछ बाकी है।

चुनावों में भारी खर्चे के कारण कोई भी व्यक्ति चाहे जितना ही भलामानुस और विद्वान क्यों न हो, धन की कमी से चुनाव नहीं लड़ सकता। राजनैतिक दल भी टिकट देने के पहले जानना चाहते हैं कि खर्चा कितना करोगे। यदि उम्मीदवारों का परिचय सरकार कराए और चुनाव के समय की चिल्ल पों बन्द हो जाए तो खर्चा घटेगा, कालाधन और महंगाई भी घटेगी। अभी राजनैतिक दल चन्दा लेने में कालेधन से परहेज़ नहीं करते और इसीलिए अपने को सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं लाना चाहते। पारदर्शिता की बातें तो करते हैं परन्तु व्यवहार में नहीं लाना चाहते।

दलबदल विरोधी कानून के चलते अब आयाराम गयाराम का जमाना तो नहीं है लेकिन बगावत अभी भी होती है। आशा की जानी चाहिए कि उच्चतम न्यायालय का आदेश मानते हुए अराजक तत्वों पर प्रभावी अंकुश लगेगा और पश्चिमी देशों की तरह दो दलों की प्रणाली विकसित होगी। आनुपातिक वोटिंग द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करेंगे।

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