भारत से दुश्मनी ख़त्म होते ही पाकिस्तान का औचित्य नहीं बचेगा

Dr SB Misra | Sep 27, 2019, 13:00 IST
हमारे नेताओं ने मुसलमानों की आइडेन्टिटी यानी पहचान की चिन्ता तो की है, भारतवासियों की एक कौम नहीं बनने दी। सबसे पहले भारत में हिन्दू और मुसलमान के बीच की दीवार गिरनी चाहिए फिर भारत और पाकिस्तान के बीच का बैरभाव शायद घटे।
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महात्मा गांधी ने कहा था ''भारत का बंटवारा मेरी छाती पर होगा" लेकिन भारत बट गया वह देखते रहे । इसके विपरीत मुहम्मद अली जिन्ना ने भारतीय मुसलमानों के लिए अलग मुल्क की कल्पना की तो यह नहीं सोचा होगा कि पाकिस्तान बनाने में करोड़ों लोग बेघर होंगे, लाखों लोग मरेंगे और उनका मुल्क पाकिस्तान एक दिन दो टुकड़ों में टूटेगा और भुखमरी के कगार पर होगा। कड़वाहट की नींव पर पाकिस्तान का महल बन तो गया लेकिन वह तभी तक जीवित रहेगा जब तक कड़वाहट रहेगी। वहां की सेना, उग्रवादी नेता और वहां पल रहे आतंकवादी इस कड़वाहट को मिटाने के किसी प्रयास को सफल नही होने देंगे।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सबको अचम्भे में डाल दिया था जब अचानक पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के जन्मदिन और उनकी नातिन की शादी के मौके पर उनके घर लाहौर पहुंचे थे। कठिनाई यह है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री सेना से पूछे बगैर अपना जन्मदिन भी नहीं मना सकते हैं। जब अटल जी और शरीफ प्रेमभाव से लाहौर में मिले थे तब पाकिस्नानी सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ के दिमाग में बैरभाव हिलोरे ले रहा था और उसका नतीजा था कारगिल का युद्ध। सच तो यह है कि मुहम्मद अली जिन्ना द्वारा बोए गए हिन्दू-मुस्लिम बैरभाव की नींव पर पाकिस्तान खड़ा है और जिस दिन यह बैरभाव समाप्त होगा पाकिस्तमान के रहने का कोई कारण नहीं बचेगा।

पाकिस्तान में बेलगाम फौजी हुकूमत रही है और फौज का काम है लड़ना न कि बैरभाव मिटाना। भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1953 में, राजीव गांधी ने 1988 में और अटल बिहारी वाजपेयी ने 1999 में शान्ति की चाह में पाकिस्तान का दौरा किया था। फिर भी बैरभाव मिटा नहीं घटा भी नहीं। मोदी भी भरसक प्रयास करके देख चुके हैं बैरभाव मिटाने के सब प्रयास बेनतीजा रहे हैं। अब समय है भारत में भारतीयता जगाने का। पाकिस्तान को भारत की ताकत दिखाने का, मोदी वही कर रहे हैं।

पाकिस्तान के निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना का कहना था कि हिन्दू मेजॅारिटी में मुस्लिम माइनॉरिटी के हितों की रक्षा नहीं हो सकती लेकिन पाकिस्तान में हिन्दू माइनॉरिटी की चिन्ता नहीं की। मौलाना आजाद ने जिन्ना समर्थक मुसलमानों को समझाया कि पाकिस्तान चले जाओगे तो भारत में मुसलमानों की संख्या और भी कम हो जाएगी और आवाज कमजोर हो जाएगी फिर भी पाकिस्तान जाने पर आमादा मुसलमानों ने उनकी एक नहीं सुनी। विभाजन के बाद बहुत से लोग यह पचा नहीं पाए कि दोनों सम्प्रदाय शेष भारत में क्या एक कौम की तरह रह सकेंगे। पचास के दशक में यह मानना स्वाभाविक था कि दो नए देश बने हैं। एक मुसलमानों के लिए और एक हिंदुओं के लिये। तब हमारा देश एक राष्ट्र के रूप में कैसे खड़ा हो सकता था। नेहरू सरकार ने मुसलमानों के लिए अलग पर्सनल कानून को मंजूरी दी और बड़ी मशक्कत से मुसलमानों का अलग अस्तित्व और पहचान कायम रखा।

पिछले 70 साल में हमारे राजनेताओं ने समाज में जिन्ना की सोच को मजबूत किया है। हमारे नेताओं ने मुसलमानों की आइडेन्टिटी यानी पहचान की चिन्ता तो की है, भारतवासियों की एक कौम नहीं बनने दी। सबसे पहले भारत में हिन्दू और मुसलमान के बीच की दीवार गिरनी चाहिए फिर भारत और पाकिस्तान के बीच का बैरभाव शायद घटे। पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के लोगों ने बंटवारे की दीवार खुद ही ढहा दी। भारत के हिन्दू-मुसलमानों की दस हजार साल पुरानी साझा विरासत की बात है। जब पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी तथा उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम एक देश हो सकते हैं तो कड़वाहट भुलाकर भारत और पाकिस्तान अच्छे पड़ोसी तो हो ही सकते हैं।

अखंड भारत में शत्रु तो भारत में ही हैं जब वे कहते हैं "भारत तेरे टुकड़े होंगे" तो उसका जवाब है ''हो चुके तुम्हारे दो टुकड़े, कितने और चाहिए"। भारतीय मुसलमानों को इंडोनेशियाई मुसलमानों की तरह कहना चाहिए राम हमारे पूर्वज हैं इस्लाम हमारा धर्म है।

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