काश! पेजा जैसे पारंपरिक व्यंजन शहरों में भी बिकते

Deepak Acharya | May 20, 2017, 18:30 IST
लखनऊ
नब्बे के शुरुआती दशक में पहली बार पातालकोट घाटी जाने का मौका मिला था मुझे और उसके बाद से लेकर आज तक, पातालकोट और पातालकोट के वनवासी मेरी शोध के अहम हिस्से निरंतर बने हुए हैं। मेरी शोध का प्रमुख पहलु वनवासियों का हर्बल ज्ञान है लेकिन उनके खान-पान को समझना भी इस शोध का अहम हिस्सा है। पतालकोट के वनवासी सदियों से समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग रहे हैं, आधुनिक सुख सुविधाओं से मीलों दूर वनवासी आज भी सेहत के मामले में हम शहरियों से कई कदम आगे हैं।

पातालकोट मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिला मुख्यालय से 80 किमी दूर 79 स्के. किमी में फैली और करीब 3000 फीट गहरी घाटी है जहां सैकड़ों वर्षों से गोंड और भारिया जनजाति के लोग अपना बसेरा बनाए हुए हैं। पहली बार जब इस घाटी में उतरा था, काफी थका देने वाली यात्रा थी। घाटी के एक गाँव में रात गुजारी और उसी रात पहली बार ‘पेजा’ का स्वाद लेने का मौका मिला। वनवासियों की रसोई में तैयार स्वादिष्ट पेजा हल्की खटास लिए हुआ था। अपनी पहली यात्रा से लेकर आज तक, जब-जब पातालकोट जाना होता है, पेजा का स्वाद लिए बगैर कभी वापसी नहीं करता हूं।

पेजा वर्षों से इन लोगों की खाद्य शैली का प्रमुख हिस्सा रहा है और बुजुर्ग जानकार मानते हैं कि हर व्यक्ति को 10 से 15 दिनों में एक बार पेजा जरूर खाना चाहिए। आखिर ऐसी क्या वजह है जिस कारण इसे हर वनवासी रसोई में बनाया जाता है?

पेजा वास्तव में एक किण्वित (फर्मेंटेड) भोज्य पदार्थ है यानी इसके तैयार होने में सूक्ष्मजीवों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और ये वो सूक्ष्मजीव होते हैं जो आपकी आहारनाल में भोजन पचाने की प्रक्रिया में एक अहम भूमिका निभाते हैं और हम तथाकथित मॉडर्न लोग और आधुनिक विज्ञान इसे ‘प्रोबॉयोटिक फूड’ कहता है। प्रोबॉयोटिक खाद्य पदार्थ जो आज डिपार्टमेंटल स्टोर्स और बाज़ार में दिखाई देते हैं, सुदूर वनांचलों में इन्हें सदियों से आजमाया जाता रहा है। यहां कुटकी की अच्छी खासी पैदावार होती है और पेजा बनाने में कुटकी का खूब इस्तमाल होता है।

पेजा बनाने की प्रक्रिया से पहले कुटकी की सफाई अच्छे से कर ली जाती है क्योंकि खेतों से एकत्र करते समय इसके दानों के साथ काफी बारीक कंकड़ भी साथ चले आते हैं। महिलाएं कुटकी के दानों को पानी से बार-बार धुलाई करके निथार लेती हैं।

चावल और जौ को भी धोकर साफ कर लिया जाता है। इन तीनों को एक पात्र में एकत्र कर चूल्हे पर पकाया जाता है। जब ये पक जाएं तो इन्हें एक मिट्टी के बर्तन में स्थानांतरित कर दिया जाता है। पके हुए चावल, जौ और कुटकी जब ठंडे हो जाए तो इसमें छाछ भी मिला दी जाती है और इस पूरे मिश्रण को अच्छी तरह मिला लिया जाता है ताकि एक गाढ़ा पेस्ट बन जाए।

अब इस पूरे मिश्रण में नींबू का रस और नमक मिलाकर इसे ढाककर किसी अंधेरे कमरे में रख दिया जाता है। दो दिनों के बाद इसे एक बार और फेंटा जाता है और एक बार फिर इसे ढाककर उसी स्थान पर रख देते हैं। अगले 24 घंटे के बाद पेजा पूरी तरह से तैयार हो जाता है। भोजन के दौरान एक कटोरी पेजा का सेवन जरूरी माना जाता है और ये बेहद स्वादिष्ट भी होता है।

बड़े दुर्भाग्य की बात है कि अहमदाबाद जैसे शहरों की लगभग हर गलियों और चौराहों पर चाउमिन, पिज्ज़ा और बर्गर बिकते हुए दिखाई देते हैं लेकिन इक्का दुक्का रेस्त्रां को छोड़कर कहीं भी पारंपरिक हिन्दुस्तानी व्यंजन देखने को नहीं मिलते है। सदियों से चले आ रहे परंपरागत ज्ञान के आधार पर तैयार भोज्यपदार्थों के कई औषधीय गुण भी बताए जाते हैं।

पातालकोट के एक गाँव चिमटीपुर के बुजुर्ग जानकार चुन्नीलाल से मुझे ये जानकारी भी मिली थी कि यहां लोग इसे उल्टी, दस्त, पेट दर्द और पेट से संबंधित अन्य विकारों के निदान लिए रोगी को देते हैं। लंबे समय से चली आ रही बीमारी के बाद जब रोगी रोगमुक्त हो जाता है तो इस व्यंजन को इस रोगी को प्रतिदिन एक सप्ताह तक जरूर खिलाया जाता है।

जानकारों का मानना है कि पेजा शारीरिक कमजोरी को दूर तो करता ही है इसके अलावा अनियंत्रित पाचन प्रक्रिया को भी संभाल लेता है। ये सलाह हम शहरी लोगों के लिए काफी कारगर हो सकती है, जो लोग लगातार एण्टीबायोटिक्स लेते हैं और इन दवाओं के नकारात्मक असर से परेशान हो जाते हैं, उन्हें पेजा तैयार कर इसका सेवन जरूर करना चाहिए। इतने स्वादिष्ट पारंपरिक व्यंजन का आम लोगों से इतने दूर होना मुझे बेजा खलता है।

(लेखक गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर हैं और हर्बल जानकार व वैज्ञानिक।)

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