समावेशी लोकतंत्र से दूर ‘हम भारत के लोग’

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समावेशी लोकतंत्र से दूर ‘हम भारत के लोग’फोटो साभार: इंटरनेट

लेखक- रहीस सिंह

वर्षों पहले अमेरिकी न्यायविद् लुई डी ब्रैंडे ने कहा था कि, ‘किसी देश में लोकतंत्र हो सकता है या थोड़े से लोगों के हाथों में भारी संपदा का संकेन्द्रण हो सकता है, लेकिन दोनों एक साथ नहीं रह सकते।’ दूसरे शब्दों में कहें तो आर्थिक विषमता और जनतंत्र का एक साथ रहना असम्भव है क्योंकि विषमता या तो जनतंत्र को धीरे-धीरे नष्ट कर देती है अथवा उसे दोषपूर्ण बना देती है। लुई ब्रैंडे का यह कथन पूरी दुनिया पर लागू होता है जिसमें भारत एक प्रमुख राष्ट्र के रूप में शामिल किया जा सकता है इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि भारत में लोकतंत्र कहां पर है?

यह सवाल इसलिए किया जा रहा है कि वाजिब लोकतंत्र ही भारत के लोगों को न्याय दिला सकता है, उन्हें अवसर उपलब्ध करा सकता है और भारत को श्रेष्ठ प्रतियोगी बना सकता है। दरअसल भारत ने जब से नवउदारवादी नीतियों को अपनाया है तब से अरबपतियों की संख्या और उनकी दौलत में तो नाटकीय ढंग से बढ़ी है लेकिन मानव आबादी के सबसे निचले हिस्से की स्थिति में सिर्फ अंकीय अर्थशास्त्र द्वारा परिवर्तन किया गया है, वास्तविक परिवर्तन न के बराबर रहा है। क्रेडिट सुसी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा जारी विश्व संपत्ति रिपोर्ट की बात माने तो भारत में सम्पन्नता तेजी से बढ़ रही है लेकिन इस विकास में हर कोई हिस्सेदार नहीं है क्योंकि भारत में अब भी गरीबी एक बड़ी समस्या है।

ऐसे में आवश्यक है कि भारत समावेशी लोकतंत्र की ओर बढ़े। वर्तमान समय में जो एक चीज बहुत तेजी से विकसित हो रही है, वह है आर्थिक विषमता जिसके कारण एक तरफ लोकतंत्र कभी-कभी तो अपने अर्थों में ही कमजोर होता दिखायी पड़ने लगता है। कभी यह एक वर्ग विशेष के लिए उपलब्धियों के रूप में सामने आता है, तो कभी दूसरे वर्ग के लिए निपट गरीबी के रूप प्रस्तुत होता दिख रहा है। भारत में राजनीतिक संरचना और उसको निर्देशित करने वाले कारणों का खुलासा उतनी स्पष्टता के साथ नहीं हो पाता जितना कि अमेरिका जैसे देशों में हो जाता है, इसलिए भारत में या तो बहुत कुछ अस्पष्ट रहता है।

कुछ समय पहले न्यूयार्क स्थित एक अमेरिकी थिंक टैंक ‘डेमॉस’ द्वारा ‘स्टैक्ड डेक’ नाम से एक रिपोर्ट जारी की गयी थी। इस रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि किस तरह से राजनीति पर अमीरों और पूंजीपतियों का कब्जा होता जा रहा है। इस रिपोर्ट में इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित किया गया है कि किस तरह से पूंजीपति व उद्यमी विशाल आकार वाले राजनीतिक चंदे देकर सत्ता के साथ एक नये किस्म का गठबंधन बना लेते हैं। इससे राजनीतिक समानता या दूसरे शब्दों में कहें तो लोकतंत्र के समावेशीकरण की अवधारणा कमजोर पड़ती है।

भारत का लोकतंत्र संवदेनशील भी है और यह अपेक्षा करता है कि लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति की सहभागिता सुनिश्चित हो। उसकी प्रस्तावना में ही कहा गया है -‘हम भारत के लोग’ भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने तथा उसके समस्त नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता तथा समानता जैसे अधिकारों की प्रतिष्ठा करें। यानी लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति ‘हम भारत के लोगों’ में निहित की गयी है, लेकिन यह केवल औपचारिक पक्ष है। सच इससे भिन्न है क्योंकि लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति भारत के उस राजनीतिक तंत्र में निहित है जो लोकतंत्र सूचकांक में कुल अंकों के 50 प्रतिशत के आसपास ही स्कोर कर रहा है।

सामान्यतौर पर समावेशी लोकतंत्र की बात तब होनी चाहिए, जब पहले यह सुनिश्चित हो जाए कि हम वास्तव में लोकतंत्र को किस सीमा तक अपनाने और उचित तरीके से क्रियान्वित करने में सफल हुए हैं। अगर इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस डेमोक्रेसी रिपोर्ट को देखें तो पता चलता है कि दुनिया में केवल 15 प्रतिशत देश ही पूर्ण लोकतंत्र को अपनाने में कामयाब हैं अथवा दुनिया की कुल आबादी का केवल 11.3 प्रतिशत हिस्सा ही वास्तविक लोकतंत्र के करीब है, शेष या तो दोषपूर्ण लोकतंत्र के अधीन है या फिर शासन के दूसरे रूपों नीचे दबा हुआ है। यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि लोकतंत्र सूचकांक में जो देश 8 से 10 स्कोर कर ले गये हैं वे ही पूर्ण लोकतांत्रिक देश माने गये हैं। जिनका स्कोर 6 से 7.9 अंक के मध्य है, वहां वास्तविक लोकतंत्र न होकर दोषपूर्ण लोकतंत्र है। भारत का स्कोर वर्ष 2006 से लेकर वर्ष 2015 तक 7 से 8 अंको के मध्य ही रहा है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भारत में दोषपूर्ण लोकतंत्र है, पूर्ण लोकतंत्र नहीं।

राजनीतिक संस्कृति के मामले में भारत अभी भी 2006 की सीमा रेखा पर खड़ा है जबकि नागरिक स्वतंत्रता के मामले में उससे पीछे। सरकार की कार्यप्रणाली जिस अनुपात में दोषपूर्ण होती जाएगी उसकी अनुपात में लोकतंत्र के मूल्यों और उसकी संरचना में भी गिरावट आएगी। यह अच्छी बात है कि भारत नागरिक अधिकारों के मामलों में दुनिया उच्च श्रेणी की देशों की बराबरी में है। इसलिए यदि नागरिक चाहें तो वे लोकतंत्र को श्रेष्ठतम मूल्यों से सम्पन्न कर उसे प्रगतिशील लोकतंत्र के रूप में स्थापित कर एक उदार, शांतिप्रिय, प्रतियोगी व प्रगतिशील राष्ट्र की स्थापना में अपना योगदान दे सकते हैं। हां राजनीतिक तंत्र यह देखकर तसल्ली कर सकता है कि भारत लोकतंत्र के मामले में अन्य दक्षिण एशियाई देशों के मुकाबले काफी बेहतर स्थिति में है। कम से कम हम बांग्लादेश, श्रीलंका, भूटान, पाकिस्तान, नेपाल और अफगानिस्तान से तो आगे हैं, इससे ज्यादा बड़ा दायरा शायद हम निर्मित ही नहीं करना चाहते।

बहरहाल भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद तमाम खामियों और चुनौतियों से गुजर है, जिनका समाधान हाल-फिलहाल में निकलता नहीं दिख रहा। भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थिति इसके लिए चुनौती भी बन रही है और एक बड़ा खतरा भी। यदि अर्थशास्त्री क्रिस्टिया फ्रीलैंड द्वारा अपनी पुस्तक ‘प्लूटोक्रेट्स: द राइज आफ द न्यू ग्लोबल सुपर-रिच’ में लिखे गये शब्दों में कहें तो उन्नीसवीं सदी में अमेरिका में आए सुनहरे युग की आवृत्ति भारत में 1990 के दशक के बाद हुई है और यह युग अपना विस्तार करता जा रहा है। अमेरिका में द्वितीय सुनहरे युग का आगमन हो गया है और भारत का प्रथम सुनहरा युग उससे घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है। जिसे क्रिस्टिया अमेरिका का प्रथम सुनहरा युग कह रही हैं उसी युग में विलियम फासेज के शब्दों में अमेरिका को अमेरिका बनाने एक पूरी नस्ल समाप्त हो गयी तो क्या भारत अब उसी प्रक्रिया से गुजर रहा है?

फिलहाल तो इतना ही कहा जा सकता है कि भारत में आज जो विकृत वैश्वीकरण का चेहरा उभर रहा है, वह हमारे किए-धरे का ही परिणाम है। इससे हमारे वे मूल्य मर रहे हैं जो गांधी, लोहिया, जय प्रकाश नारायण या अम्बेडकर ने इस देश को दिए थे और वे एक व्यक्ति एक मूल्य की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध थे। उनके विचार, उनके मूल्य और उनके उद्देश्यों के विपरीत हमारा लोकतंत्र कुछ अंतरविरोधों, कुछ विरोधाभासों और कुछ छद्म नारों तक सिमटता हुआ दिख रहा है।

(लेखक आर्थिक व राजनीतिक विषयों के जानकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

   

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