संस्मरण: मैंने जनकवि गिर्दा को कैसे जाना

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संस्मरण: मैंने जनकवि गिर्दा को कैसे जाना

बात 1994 की है। उत्तराखंड आंदोलन पूरे ज़ोर पर था। इसी बीच में उत्तराखंड आंदोलन पर नरेंद्र सिंह नेगी जी का कैसेट आया। आन्दोलन पर 7-8 गीत उसमें थे। उन्हीं में से एक गीत था-

ततुक नी लगा उदेख, घुनन मुनई नि टेक

जैंता इक दिन त आलो ऊ दिन यो दुनि में

इसका मोटा अर्थ है:

(किसी को इतना टकटकी लगा कर न देख, न किसी के आगे इतने घुटने टेक

एक दिन तो आयेगा ही, जिस दिन हमारी सुनी जायेगी)

नीच लिखा हुआ था, गीत-गिर्दा। मैं उस समय 12वीं में पढ़ता था और उत्तरकाशी में अपने चाचा जी के साथ रहता था। गीत सुना तो न मेरी समझ में गीत आया और न मुझे ये समझ में आया कि गिर्दा-ये क्या है, नाम है, नाम है तो कैसा नाम है!

आंदोलन के दौर के बीच में उत्तरकाशी में एक सक्रिय सांस्कृतिक संस्था रही- कला दर्पण। उत्तराखंड आंदोलन के बीच कला दर्पण के रंगकर्मियों ने जगह-जगह नुक्कड़ नाटक किए। पूरे सौ दिन तक उत्तरकाशी में प्रभात फेरी निकाली। तो इसी कला दर्पण ने एक आयोजन किया। यह आयोजन था- उत्तराखंड आंदोलन पर गीत लिखने वाले जन कवियों, जन गीतकारों, जन गायकों की गीत संध्या। इसमें नरेंद्र सिंह नेगी, अतुल शर्मा, बल्ली सिंह चीमा, ज़हूर आलम आदि आमंत्रित थे। गिर्दा भी इस आयोजन में आए। लेकिन हुआ यह कि गिर्दा आयोजन की तिथि से एक-आध दिन पहले ही उत्तरकाशी पहुंच गए। उक्त आयोजन के पहले दिन उत्तरकाशी के जिला पंचायत हाल में एक गोष्ठी चल रही थी। गिर्दा उस गोष्ठी में आकर बैठ गए। उन्हें जब बोलने के लिए बुलाया गया तो उन्होने गीत गाया। सुरीले बुलंद स्वर में उन्होंने गाना शुरू किया:

कृष्ण कूंछों अर्जुन थैं, सारी दुनि जब रण भूमि भै

हम रण से कस बचूंला, हम लड़ते रयां भूलों, हम लड़ते रूंला

गीत क्या था संगीतमय पुकार थी। एक आह्वान। कुमाऊंनी में गाने के साथ तुरंत उन्होंने हिन्दी में उतना ही काव्यमय अनुवाद पेश किया:

कृष्ण ने अर्जुन से कहा, भाई अर्जुन जब सारी दुनिया ही रणभूमि है

तो हम रण से कैसे बचेंगे, हम लड़ते रहे हैं, हम लड़ते रहेंगे।

मैं तो इस बात पर विस्मित, अभिभूत हो गया कि ये क्या गजब आदमी है! कुमाऊंनी में गीत गा रहा है और उसका उतना ही सटीक, काव्यमय अनुवाद हिन्दी में भी कर दे रहा है। इसके साथ ही यह भी पता चला कि अच्छा! ये है वो आदमी, जिसका गीत नरेंद्र सिंह नेगी जी ने गाया है, आंदोलन वाली कैसेट में। खैर वह गीत तो जनांदोलनों का साथी बना ही हुआ है तब से।

उसके बाद गिर्दा से बात और मुलाकातों का सिलसिला चल निकला। नैनीताल जाने पर गिर्दा के घर जाना भी एक अनिवार्य कार्यवाही थी। आइसा (सीपीएमएल का छात्र संगठन) ने गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर (गढ़वाल) में मुझे छात्र संघ अध्यक्ष का चुनाव लड़वाया और वर्ष 2000 में मैं छात्र संघ अध्यक्ष चुना गया। विश्वविद्यालय में होने वाले दो आयोजन- छात्र संघ के शपथ ग्रहण और सांस्कृतिक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर सत्ताधारी पार्टी के नेताओं को बुलाने का चलन रहा है। हमने इस परिपाटी को बदला। विश्वविद्यालय के छात्र रहे अशोक कैशिव, जो मुजफ्फरनगर गोली कांड में 2 अक्टूबर 1994 को शहीद हुए थे, शपथ ग्रहण में उनके माता-पिता को मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया गया। सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ तो उसमें मुख्य अतिथि के तौर पर गिर्दा और कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए राजेंद्र धस्माना जी आमंत्रित किए गए।

धस्माना जी का परिचय तो सरल काम था- दूरदर्शन के समाचार संपादक रहे हैं। पर जनकवि को उच्च शिक्षण संस्थान के पढे-लिखे कहे जाने वाले लोग क्यूं जाने और क्यूं मानें! मेरी बात मानी तो गई पर इस कसमसाहट के साथ कि अब ये अध्यक्ष कह रहा है तो इसकी बात कैसे टालें। पर जिन्होंने गिर्दा का नाम पहली बार सुना, उनका भाव यही था कि जाने किसको बुला रहा है,ये! बहरहाल गिर्दा और धस्माना जी कार्यक्रम में आए, बोले और चले गए। गिर्दा बनारस में भगवती चरण वर्मा की कहानी पर आधारित फिल्म की शूटिंग से आए थे।

बात आई-गई हो गई। बात दुबारा फिर छिड़ी जब वर्ष 2010 में गिर्दा की मृत्यु। गिर्दा के न रहने पर सारा अखबार, गिर्दा से ही रंगा हुआ था। अखबार में इस कदर छाए गिर्दा को देख कर बात समझी गई। एक सज्जन ने मुझसे आ कर कहा- अरे, ये तो वही थे ना, जिनको तुमने बुलाया था। मैं मुस्कुरा के रह गया कि सही आदमी मुख्य अतिथि था, यह बात 10 साल बाद व्यक्ति के दुनिया से जाने के बाद समझी गई। वैसे उच्च शिक्षण संस्थानों में यह भोलाभाला अनजानापन कोई नया नहीं है। हमारे साथी अतुल सती ने एक बार किस्सा सुनाया कि हिन्दी के आचार्य के साथ साहित्य चर्चा में उन्होंने जब मुक्तिबोध का नाम लिया तो आचार्यवर ने बेहद मासूमियत से पूछा- कौन मुक्तिबोध! जब कौन मुक्तिबोध पूछा जा सकता है तो कौन गिर्दा भी कोई अनहोनी बात तो नहीं है!

गिर्दा को सलाम।

(22 अगस्त को महान जनकवि गिरीश तिवारी 'गिर्दा' की 8वीं पुण्यतिथि पर सीपीएमएल नेता और सामाजिक कार्यकर्ता इन्द्रेश मैखुरी द्वारा लिखा गया जो गिर्दा को काफी करीब से जानते थे)

    

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