देश के किसानों की ज़िंदगी ख़ैरात से नहीं स्वावलम्बन से सुधरेगी

Dr SB Misra | Jan 20, 2025, 18:14 IST
जब गाँव के लोगों को खैरात में पैसा मिलता है चाहे महिलाओं के नाम से अथवा पुरुषों के नाम से वह सब पुरुषों के पास ही आता है और उसका सदुपयोग होगा यह गारण्टी भी नहीं है। मुफ्त के पैसे से तमाम लोग शराब पियेंगे, जुआ खेलेंगे और कुछ काम न होने के कारण समय बर्बाद करेंगे। उनकी दशा उस भिखारी की तरह हो जाती है जो दाता के इन्तजार में सड़क किनारे बैठा रहता है और जब कुछ नहीं मिलता तो भूखे रहना भी पड़ता होगा।
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राजनीतिक पार्टियाँ देश हित के लिए काम नहीं कर रही हैं, बल्कि अपने स्वार्थ के लिए गाँव वालों की कमजोरी का लाभ उठाकर उन्हें खैरात बाँटकर उनको आलसी और निकम्मा बना रही हैं। एक समय था जब चीन के लोग अफीमची हो गए थे और खाने को मोहताज हो गए थे, उनके देश में तब माओत्से तुंग ने देश वासियों को जगाने पर जोर दिया था जिसके कारण आज चीन एक अग्रणी देश है। यह सच है कि चीन वालों ने अपने देश की प्रगति के लिए आजादी की बहुत बड़ी कुर्बानी दी है, व्यक्तिगत आजादी को गंवाया है।

भारत की राजनीतिक पार्टियाँ जो खैरात बाँट रही हैं वह देश में प्रजातन्त्र की जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं। हम दफ्तर के बाबू द्वारा रिश्वत लेने और रिश्वत देने की आलोचना करते रहते हैं, लेकिन यह खैरात वोट के समय, वोट के बदले दी जाने वाली रिश्वत ही तो है तो बाबुओं का क्या गुनाह।

50 के दशक में भारतीय जनसंघ जो भारतीय जनता पार्टी की पूर्व अवतार थी उसने उद्घोष किया था ‘हर हाथ को काम’ और ‘हर खेत को पानी’। यह बहुत ही सार्थक नारा था, लेकिन वर्तमान रूप में उसे भुला दिया गया। इसके विपरीत कम्युनिष्टों और समाजवादियों का नारा था, ‘धन और धरती बँट के रहेगी’। यह खतरनाक नारा था, लोगों का सोचना था कि धनवानों और जमीदारों की सम्पत्ति को गरीबों में बिना प्रयास बाँट दिया जाएगा। क्या हुआ उन पार्टियों का क्योंकि उस नारे पर कार्यवाही नहीं कर पाए और आखिर जनता उनसे निराश हो गई। जब कांग्रेस पार्टी ने ‘’गरीबी हटाओ’’ का नारा दिया तो यह नहीं बताया कि गरीबी कैसे हटेगी? खोखले नारे समय-समय पर दिए जाते रहे और आज भी दिए जा रहे हैं। लेकिन खैरात बाँटना कामयाब हो रहा है और जनता को यह नहीं पता कि इस खैरात का अन्जाम क्या होगा और हमारा भविष्य क्या होगा।

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जब गाँव के लोगों को खैरात में पैसा मिलता है चाहे महिलाओं के नाम से अथवा पुरुषों के नाम से वह सब पुरुषों के पास ही आता है और उसका सदुपयोग होगा यह गारण्टी भी नहीं है। मुफ्त के पैसे से तमाम लोग शराब पियेंगे, जुआ खेलेंगे और कुछ काम न होने के कारण समय बर्बाद करेंगे। उनकी दशा उस भिखारी की तरह हो जाती है जो दाता के इन्तजार में सड़क किनारे बैठा रहता है और जब कुछ नहीं मिलता तो भूखे रहना भी पड़ता होगा।

इस प्रकार खैरात बाँटने वाली सरकार है जो आम आदमी को भिखारी की मानसिकता में ले जा रही है और प्रजातन्त्र का भविष्य अन्धकार के अलावा कुछ नहीं। आजकल खेती किसानी का काम मशीनों द्वारा होता है, किसी किसान के घर पर दो बैलों की जोड़ी नहीं दिखाई देती और किसानी का काम कुल मिलाकर 2 महीने में समाप्त हो जाता है। किसान करीब 10 महीने बिना काम के रहता है यदि उस अवधि में उसको कुछ काम मिल जाए तो उसकी कार्य क्षमता नष्ट नहीं होगी और भिखारी प्रवृत्ति जागृत नहीं होगी।

कुछ लोगों का सोचना है कि किसानों की पैदावार का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाए तो उसका जीवन सुधर सकता है, लेकिन समर्थन मूल्य से उन्ही किसानों को लाभ होगा जो बड़ी मात्रा में अपनी पैदावार बेचते हैं। सामान्य किसान के पास ज्यादा बेचने को नहीं होता, आवश्यकता अनुसार कुछ पैदावार बेच पाते हैं, जिसे उन्हें गाँवों के व्यापारियों के हाथ ही बेचना पड़ता है, क्योंकि छोटे किसानों को पैसे कि तुरन्त आवश्यकता होती है, और सरकारी खरीद केन्द्रों पर पैसा महीनों बाद मिलता है। किसान की पैदावार कृषि आधारित उद्योगों के लिए कच्चे माल का काम करती है, लेकिन किस को लाभ तभी होगा जब ऐसे उद्योग गाँवों में खोले जाएं और जिससे ग्रामीण किसानों तथा मजदूरों को काम मिल सके।

अभी होता यह है कि किसान का गेहूँ ₹25 प्रति किलो व्यापारी खरीद कर शहर ले जाकर वहाँ दलिया बनाता है और किसान के बेटे आवश्यकता पड़ने पर वही दलिया ₹60 किलो खरीदते हैं यही हाल चना की दाल का है, जिससे बेसन बनाकर बिचौलिए और उद्योगपति लाभ उठाते हैं किसान को इसका लाभ नहीं मिलता। इस तरह खाद्य पदार्थों की प्रोसेसिंग और किसानों द्वारा पैदा की गई पैदावार चाहे फिर वह अनाज हो, सब्जियाँ हो या फल हो उन पर आधारित उद्योग खोले जाएं तो किसानों को दरवाजे पर काम मिल सकता है और उनकी फसल का उचित दाम भी मिल सकता है।

ऐसी हालत में किसान को खाली समय में काम मिल जाएगा गाँव के मजदूरों को रोज शहर नहीं भागना पड़ेगा और किसानों की पैदावार का उचित दाम भी मिल जाएगा। ऐसी दशा में खैरात की आवश्यकता नहीं होगी और किसान या ग्रामीण लोग स्वावलम्बी हो सकेंगे। यदि खैरात की जगह स्वावलम्बन दे सकें तो यह ग्रामीण क्षेत्र के लिए बहुत कल्याणकारी काम होगा।

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यदि किसानों के लिए बिजली मुफ्त, पानी फ्री, लगान माफ और इस तरह के विविध फ्री वाले काम किए गए तो फिर इसके लिए पैसा कहाँ से आएगा यह राजनेता शायद नहीं सोचते और यदि सोचते हैं तो उसके लिए गम्भीर नहीं है। बिना ब्याज के और बिना किसी गारण्टी के बैंकों से कर्जा देना भी एक प्रकार की खैरात है और इसका नतीजा यह होता है की कर्ज लेने वाला आदमी कर्ज चुकाने के विषय में नहीं सोचता और यहाँ तक कि बहुत से लोगों को अपना जीवन त्यागना पड़ता है, आत्महत्या करनी पड़ती है या खेत और जमीन बेचनी पड़ती है जब वह कर्ज नहीं चुका पाते। यदि उन्हें यह भय होता कि ब्याज देना पड़ेगा तो शुरू से ही कर्ज चुकाने की चिन्ता भी रहती और शायद चुका भी देते।

ग्रामीण इलाकों में जो शिक्षा दी जा रही है उसके बल पर ना तो कोई उद्यम कर पाना सम्भव है और ना नौकरी मिल पाती है। शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए या प्राविधिक शिक्षा की व्यवस्था के लिए ठीक प्रकार का इन्तजाम नहीं किया जाता और परिणाम यह होता है कि अनावश्यक रूप से हाई स्कूल, इण्टर फिर बीए. और फिर एमए. करता चला जाता है, और अंत में विद्यार्थी बिना रोजगार के घर में बैठता है। यदि यूनिवर्सिटी शिक्षा के पहले ही उन्हें कुछ शिल्प सिखा दिया जाए और वह अपना काम कर सकें तो इतनी बेकरी नहीं होगी और खैरात की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। स्वावलम्बन के लिए शिक्षा और रोजगार दिलाने वाली शिक्षा बहुत ही आवश्यक है, जिस पर जोर नहीं दिया जाता।

पुराने जमाने में जो पारिवारिक व्यवसाय होता था वह एक मौका होता था लोगों को सीखने का और काम सीख कर पैसा कमाने का, फिर चाहे वह बढ़ाई का काम हो। लोहार का काम हो और कुछ हद तक चाहे प्लम्बर या इलेक्ट्रिशियन का काम हो, सब यदि घर में या गाँव में सीखे और सिखाए जा सकें तो फिर ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट करने के बाद बेकार बैठने की नौबत नहीं आएगी।

सरकार अपना व्यवसाय करने वालों को प्रोत्साहन देती है बैंक से कर्जा देती है, लेकिन व्यवसायी जब अपना माल तैयार करता है, तो उसके सामने मार्केटिंग की समस्या भी होती है, जिस तरह खेती के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है चाहे समर्थन मूल्य के रूप में अथवा फसल खराब होने पर मुआवजा के रूप में आदि, इस तरह उनके द्वारा बनाए गए माल की बिक्री में भी सरकार का सहयोग चाहिए होगा, यदि खैरात बाँटने से छुटकारा पाना है तो विविध क्षेत्रों में जानकारी, पूँजी और विपणन पर ध्यान देकर ग्रामीण लोगों के स्वाभिमान को बचाया जा सकता है।

जर्मनी और जापान जैसे यूरोप और एशिया के देश विश्व युद्ध की मार झेलने के बाद फिर से खड़े हो गए और वहाँ की प्रजा भीख माँगने या खैरात के रास्ते पर नहीं चली। हमारे देश में भी यह मानसिकता पहले नहीं थी और यहाँ के लोगों का मानना था की उद्यम से ही कार्य सिद्ध होते हैं मनोरथ से नहीं। खैरात की मानसिकता कुछ ही वर्ष पुरानी है।

देश की बहु पार्टी व्यवस्था में उनके पास उपलब्धियाँ बताने को तो है नहीं वह खैरात बाँटकर वोटर को खरीदना चाहती हैं। जब तक हमारे देश में खैरात जैसी अनैतिक सोच पर विराम नहीं लगेगा तब तक स्वस्थ प्रजातन्त्र विकसित नहीं होगा। इसके लिए शासक दल को इच्छा शक्ति का प्रदर्शन करना होगा, क्योंकि बाकी दलों के पास यह समस्या नहीं है, कि हम अपने वादों को पूरा कैसे करेंगे, बस वादे करना और चुनाव में जो कुछ मिल जाए उसे हासिल करना यही मानसिकता है उन सभी की। आशा की जानी चाहिए कि निकट भविष्य में इन सभी को सद्बुद्धि आएगी और स्वस्थ प्रजातन्त्र के मार्ग पर देश फिर से आगे बढ़ेगा।

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