सिकुड़ते चरागाह पर्यावरण और ग्राम्य अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर खतरा

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सिकुड़ते चरागाह पर्यावरण और ग्राम्य अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर खतरा

जिस तरह से गर्मी बढ़ रही है, इंसान के साथ गर्मी से जानवर भी परेशान हैं। बेजुबान जानवरों के सामने पीने के पानी और खाने के लिए हरी घास का संकट खड़ा हो गया है। गांवों में पहले चरागाह हुआ करते थे, जो धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहे हैं। सरकारी नक्शों से गोचर भूमि तेजी से गायब हो रही है। पशुपालकों को जानवरों का पेट भरने के लिए भटकना पड़ रहा है। सूखे चारे की कमी का संकट बढ़ता जा रहा है। उत्तरप्रदेश में 10 में से 9 जानवरों को सूखे कचरे पर गुजारा करना पड़ रहा है। मवेशियों को पर्याप्त चारा न मिल पाने के कारण दुग्ध उत्पादन में कमी आ रही है और पशुपालकों के लिए पशुपालन घाटे का सौदा साबित हो रहा है। जिस कारण पशुपालक मजदूरी करने के लिए विवश हो रहे हैं।

उत्तरप्रदेश की अस्सी फीसदी आबादी गांवों में बसती है। प्रदेश में 6 करोड़ से अधिक मवेशी है। पशुपालन में उत्तरप्रदेश का देश में पहला स्थान है। जिनमें गाय, भैंस, बकरी और भेड़ आदि शामिल है। करीब ढाई करोड़ लोग पशुपालन से जुड़े हैं। इतनी बड़ी संख्या में इन पशुओं के लिए चारा तो चाहिए ही, लेकिन अब उसकी कमी बढ़ती जा रही है। देश में फिलहाल लगभग एक करोड़ तीस लाख हेक्टेयर भूमि ही स्थायी चरागाह के लिए वर्गीकृत है। जो काफी नहीं है, और फिर उसकी हालत भी अच्छी नहीं है। इसलिए ये पशु बंजर, परती तथा खेती के अयोग्य लाखों हेक्टेयर जमीन से जो कुछ भी निकाल सकते हैं, वही खाते हैं। हमारे ग्राम्य जीवन में पशुधन की अहम भूमिका है।


गांवों में आज भी ईंधन, बोझा ढोने और खींचने का मुख्य साधन पशुधन ही है वहीं खाद्य पदार्थ और गांवों के उद्योगों का कच्चा माल बड़ी मात्रा में इनसे मिलता है। इस बात को सदा याद रखना होगा कि हमारे यहां का किसान केवल अन्न का उत्पादक नहीं है, उसके नित्य जीवन में खेती और पशु-पालन एक दूसरे के पूरक हैं। लेकिन पानी और चारे की कमी के कारण इन जानवरों के सामने संकट खड़ा हो गया है। प्रदेश में हर साल औसतन खुरपका और मुंहपका जैसी बीमारियों से 10 लाख से अधिक जानवरों की मौत हो जाती है। लेकिन बीते कुछ सालों में गर्मी से मरने वाले जानवरों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। इस बार भी गर्मी अधिक पड़ रही है। इस मौसम में हरे चारे का संकट खड़ा हो जाता है।

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प्रदेश में एक लाख से अधिक राजस्व गांव हैं। प्रत्येक गांव में जानवरों के लिए चरागाह की जमीन सुरक्षित है। लेकिन प्रदेश के अधिकतर चरागाह पर दबंगों के कब्जे हैं या फिर वे ग्राम सभा के नक्शे से ही गायब हैं। प्रदेश में बीते एक दशकों में चरागाह का क्षेत्रफल तेजी से घटा है। प्रदेश में सिकुडते चरागाह जानवरों का पेट भरने में नाकाम साबित हो रहे हैं। जिले में दबंगों के कब्जे से चरागाह को मुक्त कराना प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती है। प्रधान और लेखपालों की मिली भगत से बड़े सुनियोजित ढंग से गांवों के चरागाह को खत्म किया जा रहा है। सूखे चारे की कमी का हाल भी भयंकर है। बंगलूर की इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल एण्ड इकोनॉमिक चेंज के एक और सर्वेक्षण के मुताबिक सूखे और हरे दोनों तरह के चारे की कमी लगातार बनी हुई है। राष्ट्रीय कृषि आयोग की 1976 की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1973 में सूखे चारे की कमी 11 प्रतिशत थी और हरे चारे की 38 प्रतिशत। सिर्फ मिजोरम एक ऐसा राज्य है जहां पर्याप्त सूखा चारा है।

पंजाब, हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ जिले हैं जहां हरा चारा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। इन राज्यों की तुलना में हमारा प्रदेश बहुत पीछे है। ज्यादातर मवेशियों को किसान फसलों के डंठल वगैरह खिलाते हैं। बाकी को बंजर जमीन में, नदियों और सड़कों के किनारे, खाली पड़ी भूमि और बिरले होते जा रहे जंगलों में अपना नसीब आजमाने के लिए छोड़ दिया जाता है।

प्रदेश में चरागाह को मुक्त कराने के लिए कई बार प्रयास किए गए। लेकिन वे महज खानापूर्ति तक ही सीमित होकर रह जाते हैं। चरागाहों का क्षेत्रफल कम होने के कारण पशुओं की उत्पादकता घटती है और पशुओं पर ही जिनकी जीविका निर्भर है उनकी आर्थिक स्थिति ही नहीं, पूरी जीवनशैली खतरे में आ जाती है। इसके चलते पशुपालक मजदूरी करने के लिए विवश होते हैं। देश की राष्ट्रीय आय में पशुपालन का प्रत्यक्ष योगदान कोई 6 प्रतिशत है, पर परोक्ष योगदान इससे कहीं ज्यादा है। खाद देने वाले और भार ढोने वाले के रूप में ये पशुधन देश के लाखों-करोड़ों छोटे किसानों के लिए ऑक्सीजन के समान है। गन्ना पेरने या तेलघानी चलाने जैसे कई उद्योग पशुधन पर ही निर्भर हैं। इसके अतिरिक्त इस देश में 6 प्रतिशत बंजारे भी हैं जिनका गुजारा पशुपालन से चलता है। ध्यान देने की बात तो ये है कि बैल और भैंस से चलने वाली बैलगाड़ियों के बिना देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पहिया ही रूक जाएगा।


चरागाहों को सुरक्षित व सरंक्षित रखने के लिए प्रशासनिक स्तर पर जिम्मेदारी और जबावदेही सुनिश्चित होने के बाद भी वे परिणाम नहीं आए जो आने चाहिए थे। इसलिए जरूरी हो गया है कि चरागाहों की नए सिरे से गिनती और हदबंदी कराई जाए। चरागाह खत्म होने से पर्यावरण पर नकारात्मक असर पड़ता है। पारिस्थितिकी संतुलन पर भी बुरे प्रभाव पड़ते हैं। इसलिए चरागाहों के रखरखाव की ठोस योजना होनी चाहिए। चरागाहों को विकसित और सरंक्षित करने के लिए राजस्थान और आंध्र प्रदेश में 2006 में एक कार्यक्रम चारागाह भूमि विकास और प्रबंधन शुरू किया गया। इसके तहत सामाजिक संस्था और किसानों ने मिलकर निजी चरागाह तैयार किया। इस तरह के कार्यक्रम यहां भी चलाने की जरूरत है।

बरसात के मौसम में चरागाहों को पुर्निजीवित और हरभरा बनाने के लिए व्यापक स्तर पर प्रदेश में अभियान चलाया जाए। आने वाले मानसून में ही इस अभियान को शुरू किया जा सकता है। स्टाइलो, अंजन, दीनानाथ, धामन आदि घास उगाने से चारे की समस्या को काफी हद तक कम किया जा सकता है। नेपियर एवं गिनी घास से भी चारे को संकट कम करने में मदद मिल सकती है। एक हेक्टेयर भूमि पर उगी घास से 15 पशुओं को साल भर के लिए चारा मिल सकता है। चरागाहों का रकबा कम होने से पशुओं की उत्पादकता तो घटती ही है बल्कि पशुपालकों की आर्थिक स्थिति पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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