आपातकाल : दिमाग काम नहीं कर रहा था, आखिर क्या यह मार्शल ला जैसा होगा या फिर कर्फ्यू जैसा होगा?

Dr SB MisraDr SB Misra   25 Jun 2020 10:24 AM GMT

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आपातकाल : दिमाग काम नहीं कर रहा था, आखिर क्या यह मार्शल ला जैसा होगा या फिर कर्फ्यू जैसा होगा?इंदिरा सरकार और लोकतंत्र पर काले धब्बे की याद किया जाता है आपातकाल

दिमाग काम नहीं कर रहा था, आखिर क्या यह मार्शल ला जैसा होगा या फिर कर्फ्यू जैसा होगा, या सारे देश में धारा 144 लगेगी। क्या व्यवस्था पाकिस्तान जैसी होगी या कम्युनिस्ट देशों जैसी?

मैं भूल नहीं सकता 25 जून 1975 का वह सवेरा जब मैं अपने लिए रीवा में चाय बना रहा था और रेडियो पर उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की आवाज सुनाई पड़ी "राष्ट्रपति ने देश में आपात काल लागू कर दिया है, आतंकित होने की कोई बात नहीं है।" उन्होंने आश्वस्त किया था। मेरे ध्यान में आया था कि हमारे राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद साहब तो देश में हैं ही नहीं, तो उन्होंने आपातकाल कैसे लगा दिया। आज उसी काले दिन की वर्षगांठ है।

उन दिनों मैं मध्यप्रदेश के जियोलॉजी एंड माइनिंग विभाग में भूवैज्ञानिक था और बस्तर की रिपोर्ट, जिसका सर्वेक्षण मैंने जाड़े के दिनों में किया था, उसे तैयार करने के लिए रीवा आया हुआ था। रेडियो पर लम्बे भाषण में इन्दिरा गांधी ने देश को समझाने की कोशिश की थी, लेकिन मन नहीं मान रहा था, आखिर क्या होगा आपातकाल में, कभी देखा तो था नहीं।

आपातकाल का एक दृश्य। फोटो : साभार इंटरनेट

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दिमाग में आ रहा था कि आपातकाल तो तब लगाया जाता है, जब विदेशी आक्रमण हुआ हो, देश में सशस्त्र क्रान्ति हो गई हो या राजा मार डाला गया हो। ऐसा तो कुछ नहीं हुआ था। दिमाग काम नहीं कर रहा था, आखिर क्या यह मार्शल ला जैसा होगा या फिर कर्फ्यू जैसा होगा, या सारे देश में धारा 144 लगेगी। क्या व्यवस्था पाकिस्तान जैसी होगी या कम्युनिस्ट देशों जैसी? बाहर सड़कों पर निकला तो कर्फ्यू जैसा सन्नाटा तो नहीं था, लेकिन सशंकित शान्ति थी। अब तक सभी को पता चल चुका था और घटनाक्रम बड़ी तेजी से बदल रहा था।

आपातकाल के दौरान जेलों में भरे गए लोगों का एक दृश्य। फोटो : साभार इंटरनेट

अखबारों में अगले दिन पढ़ा कि बुज़ुर्ग नेता जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, राम मनोहर लोहिया, लालकृष्ण आडवाणी, कर्पुरी ठाकुर, चन्द्रशेखर और सभी सैकड़ों नेता और हजारों कार्यकर्ता, जो उम्र और अनुभव में इन्दिरा गांधी से सीनियर थे, जेलों में ठूंस दिए गए थे। देश हक्का बक्का था, किसी को पता नहीं था, कैसा समय आने वाला है। प्रजातंत्र की रखवाले प्रभावी नेता जेलों में बन्द थे, छुटभैयों द्वारा भी आम सभाएं तक नहीं हो रही थीं, सड़कों पर नारे नहीं लग रहे थे और हड़तालें नहीं हो रही थीं। एक दिन अखबारों में पढ़ा कि आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और तमाम कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया है, पता नहीं क्या संघ द्वारा जय प्रकाश नारायण का साथ देने के कारण यह सब हो रहा था।

संघ की शाखाएं बन्द हो गई, हाफ पैंट वाले वेष बदल कर कुछ नेपाल चले गए, कुछ इधर-उधर छुप गए। अखबारों में प्रतिबंधित टोपोशीट, विविध शस्त्रों की फोटो छापकर कहा गया, ये चीजें संघ के कार्यालय से निकले हैं। स्वयं सेवकों को देशद्रोही साबित करने का पूरा प्रयास किया गया। इस वातावरण में लोग आतंकित होने लगे, बस और रेल की यात्रा से घबड़ाने लगे, क्योंकि बस से उतार कर यात्रियों की नसबन्दी कर दी जाने लगी।

उस समय इस देश के कद्दावर दलित नेता बाबू जगजीवन राम को घुटन महसूस हुई और वह कांग्रेस से बाहर निकले, फिर अपनी पार्टी बनाई, नाम रखा ''कांग्रेस फॉर डिमॉक्रेसी"। कांग्रेस में प्रजातंत्र लेशमात्र भी बचा होता, तो बाबू जी पार्टी नहीं छोड़ते। कांग्रेस का प्रजातंत्र इस देश ने अनेक बार पहले भी देखा था, लेकिन वह आपातकालीन नहीं था। लेकिन यह आपातकाल लगाया गया था कांग्रेस की सरकार और इंदिरा गांधी की कुर्सी बचाने के लिए। नितांत स्वार्थ भरा कदम था और देश के बुजु़र्ग गवाह हैं कि जनता ने बड़े तनाव में वह समय जिया था।

कांग्रेस ने अनेक बार प्रजातंत्रनाशी कदम उठाए हैं, फिर चाहे नेता जी सुभाष बोस के अध्यक्ष चुने जाने के बाद देश छोड़ने की परिस्थिति पैदा करना, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का अध्यक्ष चुने जाने पर त्यागपत्र देने के लिए मजबूर करना अथवा सीताराम केसरी का अपमान जब प्रजातांत्रिक ढंग से चुने गए कांग्रेस अध्यक्ष और वयोवृद्ध दलित नेता सीताराम केसरी को बिना किसी कार्यवाही के भरी सभा से निकाल कर बाहर कर दिया गया था। आज जब दुनिया के सबसे पुराने प्रजातंत्र और सबसे बड़े प्रजातंत्र के शीर्ष नेता वाशिंगटन में मिल रहे हैं, हमें प्रजातंत्रनाशी कदमों की भर्त्सना करनी चाहिए और भविष्य के लिए संकल्प कि अब ऐसा नहीं होगा।

ताजा अपडेट के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए यहां, ट्विटर हैंडल को फॉलो करने के लिए यहां क्लिक करें। ये लेख मूल रुप से साल 2017 में गांव कनेक्शन अख़बार में प्रकाशित हुआ था

       

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