टैक्स को लेकर हैं कई सवाल, जिनके जवाब जानना ज़रूरी 

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टैक्स को लेकर हैं कई सवाल, जिनके जवाब जानना ज़रूरी प्रतीकात्मक तस्वीर।

जीएसटी यानि वस्तु एवं सेवा कर ‘जीरो आवर’ पर ही 1 जुलाई को लागू हो गया। भारत सरकार ने अपनी पूरी ऊर्जा यह सिद्ध करने में खर्च कर दी कि एक बार फिर ‘जीरो आवर’ पर घड़ी की सुइयां वहीं पहुंच गईं, जहां पर 14 अगस्त 1947 की रात में थीं और भारत के भाग्य का मिलन हुआ था। 31 जून की रात 12 बजे पुनः इतिहास को उसी बिंदु पर ले जाने का प्रहसन हुआ। सरकार किसी भी व्यवस्था को सांगो-पांग के साथ लाती है, जिसे अच्छे या बुरे के खांचे में रखकर नहीं देखा जा सकता।

जश्न-कानून के इस सम्मेलन को देखकर थोड़ा भ्रम भी हुआ कि एक कर कानून या कर व्यवस्था भारत के भाग्य की निर्णायक कैसे हो सकती है? यह हक तो भारत के लोगों को प्राप्त हो चुका है और विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि कर हमेशा बुरा होता है, वह अच्छा नहीं हो सकता। यानि लोगों पर तो उसका आघात ही होता है, इसलिए लोग उससे पीड़ित होते हैं।

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अलग बात यह है कि व्यवस्था को चलाने के लिए कर जरूरी होते हैं इस लिहाज से करों की प्रकृति सहयोगात्मक होती है। लेकिन विशेषकर अप्रत्यक्ष कर गरीब को और गरीब बनाते हैं, इसलिए ऐसी व्यवस्था को जो कर सम्बंधी हो ‘भाग्य के मिलन’ जैसी स्थिति से कैसे जोड़ा जा सकता है। फिर भी यदि सरकार ने ऐसा किया है तो यह देखने की जरूरत है कि वह इसके जरिए क्या संदेश देना चाह रही है?

कुछ प्रश्न और भी हैं, जिन्हें देश के लोगों को, कारोबारियों को और कर विभाग के कर्मचारियों को सीखना है। यही कि जीएसटी एक एकीकृत कर प्रणाली है या एक एकीकृत कर? इसका सबसे ज्यादा फायदा किसे मिलेगा? इससे उत्पादक राज्य अधिक फायदे में रहेंगे या फिर उपभोक्ता राज्य? अब तक का अध्ययन बताता है कि उपभोक्ता राज्य अधिक लाभ की स्थिति में रहेंगे। यानि उत्पादक व निर्यातक राज्यों को कर मामले में नुकसान होगा।

क्या ऐसे राज्य इसके बाद भी उत्पादन व्यवस्था को प्रोत्साहन देंगे? यदि उत्पादक राज्यों को अपेक्षाकृत राजस्व में नुकसान हुआ तो वे उत्पादन को प्रोत्साहन नहीं देंगे। ऐसे में भारत जो अब तक आयात आधारित या उपभोक्ता आधारित अर्थव्यवस्था बना हुआ है, वह इस दिशा में कुछ कदम और आगे बढ़ जाएगा जबकि जरूरत इस बात की है कि भारत उत्पादक राष्ट्र बने जिससे एक तरफ हमारी आयातों पर निर्भरता घटे। यदि भारत आयात आधारित अर्थव्यवस्था से निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ेगा तो रोजगार बढ़ेगा, विदेशी मुद्रा भण्डार बढ़ेगा जिससे अर्थव्यवस्था की अंतरराष्ट्रीय बाजार में साख सुधरेगी। लेकिन यदि स्थिति इसके विपरीत बनी तो?

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आर्थिक लिहाज से ही नहीं बल्कि संवैधानिक दृष्टि से भी भारत सरकार और उसके वित्त मंत्री ने जीएसटी को ‘पेरेस्त्रोइका’ की तरह पेश किया पर सवाल उठता है कि क्या वास्तव में इसे पेरेस्त्रोइका की श्रेणी में रखा जा सकता है? भारत सरकार ने इसे एक बार पुनः ‘भारत का भाग्य से मिलन’ जैसा प्रस्तुतीकरण किया।

हालांकि इसकी न ही आवश्यकता थी और न ही यह उस श्रेणी में आता है कि भारत के भाग्य को बदल दे। इसकी नजीर हम लगभग 148 देशों में पहले ही देख चुके हैं। हां, यदि सुधार की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है तो दुनिया के साथ-साथ भारत को भी बढ़ना चाहिए। इस दिशा में जीएसटी एक महत्वपूर्ण कदम है।

अगर जीएसटी को गौर से देखें तो यह सही अर्थों में वैट एवं सेनवैट का अपटेडेड फार्म है। वर्ष 1980 के दशक में जब कर सम्बंधी सुधारों की प्रक्रिया शुरू हुई थी, तब सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह था कि ‘कर पर कर’ (टैक्स आन टैक्स) व्यवस्था को खत्म किया जाए। दरअसल यह कैसकेडिंग प्रभाव था, जिसके चलते उत्पादक एवं व्यापारियों को कर पर कर चुकाना पड़ जाता था।

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इससे एक तो यह नुकसान होता था कि वस्तु अत्यधिक महंगी हो जाती थी जिसका प्रभाव एक तरफ पर स्फीति पर दिखता था, दूसरी तरफ सामाजिक वर्गों पर और तीसरी तरफ सरकार के राजकोष पर। चूंकि इसमें पिछले बिंदु पर कर कितना दिया गया या अगले बिंदु पर कितना कर दिया जाएगा, इसकी जानकारी नहीं होती थी और न ही इसकी जरूरत पड़ती थी इसलिए कर चोरी के लिए स्पेस बहुत अधिक होता था। जब वैट आया तो उसने न केवल कैसकेडिंग प्रभाव को समाप्त किया बल्कि कर चोरी के रास्ते यदि बंद नहीं किए तो संकरे अवश्य कर दिया। जिससे कर व्यवस्था थोड़ी रपटीली हुई।

अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने राजा जे. चलैया की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की, जिसे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों पर अपनी रिपोर्ट देनी थी। इसी कमेटी ने वर्ष 2002 में अप्रत्यक्षों करों के मामले में एक यूनीफाइड टैक्स की सिफारिश की थी। यही से जीएसटी के लिए प्रयास आरम्भ हुआ और अब इसने व्यवहारिक शक्ल अख्तियार की।

जीएसटी चूंकि ऑनलाइन कर व्यवस्था है इसलिए इसमें प्रत्येक बिंदु पर कर ट्रांसपेरेंसी रहेगी। इससे कर चोरी रुकेगी। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें हर अगले बिंदु पर व्यापारी को इनपुट टैक्स क्रेडिट मिलता रहेगा इसलिए कर भार कम होगा जिससे वस्तुएं सस्ती होंगी। इससे न केवल उपभोक्ता लाभान्वित होगा बल्कि मांग बढ़ेगी, जिससे उत्पादन इकाइयों को नई स्फूर्ति मिलेगी। तीसरी बात यह है कि डेस्टिनेशन आधारित कर प्रणाली है।

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इसमें अंतर्राज्यीय व्यापार के मामले में अंतिम रूप से इनपुट टैक्स क्रेडिट उस राज्य को प्राप्त होगा जहां वस्तु अंतिम रूप से बिकी है। स्वाभाविक है कि आयातक राज्य को कर के मामले में काफी फायदा होगा। चूंकि इसमें वैल्यू एडीशन पर कर लगेगा इसलिए इसमें कर पर कर या कैसकेडिंग प्रभाव के लिए स्पेस ही नहीं रह जाएगा। दूसरे हर स्तर पर इनपुट टैक्स क्रेडिट प्राप्त होगा इसलिए खुदरा व्यापारी कर मामले में सबसे ज्यादा लाभ की स्थिति में रहेंगे।

इसलिए वे राज्य भी अब मूलधारा में आ जाएंगे तो अपनी क्षमता के बलबूते उत्पादक राज्य बनने और अधिशेष इकोनामिक उत्पादन करने में समर्थ नहीं हैं। इससे सहकारी संघवाद की भावना प्रबल होने के साथ-साथ प्रतिस्पर्धी संघवाद के लिए हुनर भी आएगा। यही नहीं जीएसटी आने के बाद लैफर वक्र के मुताबिक यदि कर की दर कमजोर हुई तो टैक्स राजस्व में वृद्धि होगी। इससे एफआरबीएम ऐक्ट के पूर्णतः लागू होने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।

कुल मिलाकर जीएसटी से कर पारदर्शिता, कर दक्षता, कर सम्बद्धता बढ़ेगी। इससे राजकोष को लाभ होगा साथ ही राज्यों के बीच करों में समानता आएगी, जिससे राज्यों के स्तर पर बाजार गतिशीलता समान रहेगी। सभी राज्य समान प्रतियोगिता के साथ आगे बढ़ने का अवसर प्राप्त करेंगे, जिससे न केवल विकास में समावेशिता आएगी बल्कि सहकारी संघवाद का आधार मजबूत होगा।

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द्वितीय यह कि जीएसटी काउंसिल में राज्यों को स्थान देकर नीति निर्माण में शामिल किया गया है, जिससे कि क्रियान्वयन अधिक बेहतर तरीके से हो सकते हैं। इससे दो प्रकार के प्रभाव होंगे। एक यह कि अब प्रांतों को वित्त मंत्री के रूप में योग्य लोगों को सामने लाना होगा अन्यथा जीएसटी काउंसिल में उनका परफार्मेंस कमजोर रहेगा। द्वितीय-जीएसटी काउंसिल में कर कानून के निर्माण में राज्य स्वयं शामिल होंगे, जिससे प्रतिस्पर्धी संघवाद को बढ़ावा मिलेगा।

आईजीएसटी अंतर-राज्यीय व्यापार को प्रोत्साहित करेगा, जिससे कोआपरेटिव फेडरलिज्म और मजबूत हो सकेगा। लेकिन यह तभी संभव हो पाएगा जब राज्यों के वित्त मंत्रालयों की जिम्मेदारी अर्थशास्त्र के जानकारों को दी जाए अन्यथा स्थितियां इसके ठीक विपरीत भी जा सकती हैं और यह राज्यों के लिए हितकर नहीं होगा। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि इस व्यवस्था के तहत ‘मेक मोर’ और ‘कंज्यूम मोर’ पर चला जाए तो अर्थव्यवस्था और राजस्व, दोनों के लिए यह बेहद फायदेमंद होगा।

(लेखक राजनीतिक व आर्थिक विषयों के जानकार हैं यह उनके निजी विचार हैं।)

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