मुद्दा: तंत्र में गण कहां पर हैं ?

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मुद्दा: तंत्र में गण कहां पर हैं ?भारत का लोकतंत्र संवदेनशील भी है और यह अपेक्षा करता है कि लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति की सहभागिता सुनिश्चित हो।

डॉ. रहीस सिंह

1950 से अब तक के गणतंत्र के इस सफर में न जाने क्यों बार-बार यह प्रश्न पूछने का मन करता है कि इस तंत्र में गण कहां पर है? क्या संविधान की प्रस्तावना में लिखे- ‘हम भारत के लोग...’ का महत्व व हैसियत वही है जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी? आज भारत राजनीतिक उद्विकास के क्रम में जहां पहुंच रहा है वहां पुनः एक प्रकार का अधिनायकत्व उभरता दिख रहा है और उसे संपोषित करने के लिए ऐसे साधन उदित हो चुके हैं जो आम जन के नियंत्रण से परे हैं। आज गण के हितों के नाम पर बड़े-बड़े संघर्ष किए जा रहे हैं लेकिन सच यह है कि गण, तंत्र में कहीं खोता चला जा रहा है। आखिर क्यों?

महात्मा गांधी ने ‘मेरे सपनों का भारत’ में लिखा है कि भारत अपने मूल स्वरूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं। सच में भारत दुनिया के उन गिने-चुने देशों में से है, जिन्होंने अपनी अधिकांश पुरानी संस्थाओं को, कायम रखा है और साथ ही वह अभी तक अन्ध-विश्वास और भूल-भ्रान्तियों की काई को दूर करने की सहज क्षमता भी प्रकट करता रहा है। उनका कहना था कि मेरा विश्वास है कि भारत का ध्येय दूसरे देशों के ध्येय से कुछ अलग है। इसके साथ ही उन्होंने कुछ बातें और कही थीं।

पहली यह कि ज्ञान किसी एक देश या जाति के एकाधिकार की वस्तु नहीं है। दूसरी-पश्चात्य सभ्यता का मेरा विरोध असल में उस विचारहीन और विवेकाहीन नकल का विरोध है, जो यह मानकर की जाती है कि एशिया-निवासी तो पश्चिम से आने वाली हरेक चीज की नकल करने जितनी ही योग्यता रखते हैं। तीसरी यह कि ‘मैं दृढ़तापूर्वक विश्वास करता हूं कि यदि भारत ने दुःख और तपस्या की आग में गुजरने जितना धीरज दिखाया और अपनी सभ्यता पर- जो अपूर्ण होते हुए भी अभी तक काल के प्रभाव को झेल सकी है- किसी भी दिशा से कोई अनुचित आक्रमण न होने दिया, तो वह दुनिया की शांति और ठोस प्रगति में स्थायी योगदान कर सकती है।’

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या हम गांधी की तस्वीरों को दफ्तरों में लटकाने के बाद ऐसे विचारों पर चंद कदम भी चल पाए हैं? क्या वास्तव में भारत आज भी हथियार की शक्ति की बजाय अपनी आध्यात्मिक शक्ति पर अधिक भरोसा रखता है? क्या हमने विवेकहीन और विचारहीन नकल करनी बंद कर दी है या फिर उसमें पर्याप्त इजाफा हुआ है? क्या हम अहिंसा एवं धर्म के साथ आज भी उसी प्रकार का सम्बंध कायम किए हुए हैं, जिसकी परिकल्पना गांधी ने पेश की थी अथवा फिर अहिंसा विलुप्त हो चुकी है और धर्म जटिलताओं, असहिष्णुताओं के साथ-साथ कई प्रकार के उन्मादों का शिकार हो चुका है। हमारा धर्म जो भौगोलिक सीमाओं से मर्यादित नहीं था, वह अब बहुत सी धुंधली-धुंधली सामाजिक रेखाओं से मर्यादित हो रहा है। क्या इसे विकासात्मक आधुनिकतावाद का परिचायक माना जाय या फिर विपरीत विकास का पर्याय?

गांधी ने यह भी कहा था कि मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें गरीब-से-गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि यह उनका देश है-जिनके निर्माण में उनकी आवाज का महत्त्व है। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा जिसमें ऊंचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा और जिसमें विविध सम्प्रदायों में पूरा मेलजोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृश्यता के या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। उसमें स्त्रियों को वही अधिकार होंगे जो पुरुषों को होंगे। न तो हम किसी का शोषण करेंगे और न किसी के द्वारा अपना शोषण होने देंगे, इसलिए हमारी सेना छोटी-से-छोटी होगी।

ऐसे सब हितों का जिनका करोड़ों मूक लोगों से कोई विरोध नहीं है, पूरा सम्मान किया जाएगा, फिर वे हित देशी हों या विदेशी। लेकिन वास्तव में भारत में ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा है। क्रेडिट सुसी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा जारी विश्व संपत्ति रिपोर्ट की बात माने तो भारत में सम्पन्नता तेजी से बढ़ रही है, अमीरों और मध्यम वर्ग की संख्या भी बढ़ती जा रही है लेकिन इस विकास में हर कोई हिस्सेदार नहीं है क्योंकि भारत में अब भी गरीबी एक बड़ी समस्या है। महत्वपूर्ण बात तो यह है भारत की सरकारें सही से यह आकलन नहीं करा पा रही हैं कि भारत में गरीब कितने हैं।

21वीं सदी में भी आदिम युग के कैलोरी वाले आधार पर गरीबों की गणना, भारत को अपने आप ही बहुत पीछे ले जाती दिखायी देती है। अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी से लेकर सुरेश तेंदुलकर और एनसी सक्सेना या अन्य अध्ययेताओं की रिपोर्टों में संख्या एवं आधार को लेकर टकराव यह बताता है कि देश की सरकारें व सम्बंधित एजेंसियां वस्तुस्थिति को स्पष्ट करना नहीं चाहतीं। सवाल यह उठता है कि क्यों?

भारत का लोकतंत्र संवदेनशील भी है और यह अपेक्षा करता है कि लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति की सहभागिता सुनिश्चित हो। सच इससे भिन्न है क्योंकि लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति हम भारत के लोगों में नहीं बल्कि भारत के उस राजनीतिक तंत्र में निहित है जो लोकतंत्र सूचकांक में कुल अंको के 50 प्रतिशत के आसपास ही स्कोर कर रहा है।

अगर इकोनामिस्ट इंटेलिजेंस डेमोक्रेसी रिपोर्ट को देखें तो पता चलता है कि दुनिया में केवल 15 प्रतिशत देश ही पूर्ण लोकतंत्र को अपनाने में कामयाब हैं अथवा दुनिया की कुल आबादी का केवल 11.3 प्रतिशत हिस्सा ही वास्तविक लोकतंत्र के करीब है, शेष या तो दोषपूर्ण लोकतंत्र के अधीन है या फिर शासन के दूसरे रूपों नीचे दबा हुआ है। यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि लोकतंत्र सूचकांक (डेमोक्रेसी इंडेक्स) में जो देश 8 से 10 स्कोर कर ले गये हैं वे ही पूर्ण लोकतांत्रिक देश माने गए हैं। जिनका स्कोर 6 से 7.9 अंक के मध्य है, वहां वास्तविक लोकतंत्र न होकर दोषपूर्ण लोकतंत्र है। अगर भारत की बात करें तो उसका स्कोर वर्ष 2006 से लेकर वर्ष 2015 हमें जिन कारणों की अनुभूति होती है, उनमें एक यह कि भारत में अब जमीनी लोकतंत्र पर साइबर लोकतंत्र हाबी हो रहा है? दूसरा कारण यह है कि एक अजीब किस्म का नायकत्व उभर रहा है जो अपनी अभिपुष्टि उन आभासी माध्यमों से कराता है, जिसमें बहुत कुछ कृत्रिम और मिथ्या है। इस सम्पूर्ण कवायद के माध्यम से जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं उन्हें लोगों के बीच एक निष्कर्ष और एक सिद्धांत के रूप में पेश कर दिया जाता है।

यही नहीं जनता द्वारा उसे स्वीकार कर लेने का आधार वह मानक नहीं होता है जो लोकतंत्र में होना चाहिए, बल्कि वह होता है जो कभी राजतंत्रों या धर्मतांत्रिक राज्य संस्थाओं में हुआ करता था। मजेदार बात यह है कि यह सब कुछ लोगों के नाम पर लोगों के लिए होता है लेकिन इसका फायदा शासक वर्ग और उसके ठीक नीचे काम करने वाली नौकरशाही या फिर चुनावी फंड प्रदाता उठाते हैं।

कुल मिलाकर गणतंत्र में गण सबसे कमजोर हैसियत में है, जबकि सब-कुछ उसी के नाम पर हो रहा है। क्या कहीं पर ऐसी नैतिक रेखाएं खींची गयी हैं, जो इन प्रहसनों को रोक सकें? यदि नहीं, तो क्या इस देश का जन-गण स्वतःस्फूर्त होकर अपनी हैसियत को सिद्ध करने के लिए कोई आंदोलन या क्रांति सम्पन्न करेगा? क्या वह चुनाव को अपनी हैसियत को सुधारने का औजार बना सकेगा? देखना यह है कि अगले सवा महीने में पांच राज्यों में सम्पन्न होने वाले चुनावों में अपनी योग्यता और शक्ति का संदेश लोग दे सकेंगे? या फिर वे पुनः चुनाव की परम्परागत शैली का शिकार बनेंगे?

(लेखक आर्थिक व राजनीतिक विषयों के जानकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

    

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