'गन्ना किसानों को लाख आश्वासन देने के बाद भी वे हताश होकर ज़िन्दगी ख़त्म कर रहे हैं'

गन्ना किसानों की समस्या नई नहीं है। सरकारें आती हैं, चली जाती हैं लेकिन उनकी समस्याएं यथावत रहती हैं। लॉकडाउन से गन्ना किसानों की मुश्किलें और बढ़ी हैं। बकाये का भुगतान नहीं हो रहा जिस कारण आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं।

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गन्ना किसान, उत्तर प्रदेश, सरदार वीएम सिंह, sugarcane farmer, sugarcane, sugarcane production in uttar pradeshगन्ने की कीमत में केंद्र सरकार ने 10 रुपए की बढ़ोतरी की हैे लेकिन किसान उससे खुश नहीं हैं।

सरदार वीएम सिंह

गन्ना किसानों की समस्या पुरानी है। सरकारें आती हैं, वादे करती हैं और किसानों की समस्या दूर करने के वादे पर सरकार बनाती हैं पर किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं निकलता। अब तो कोविड-19 से मानो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है।

भारत की 80 फीसदी ग्रामीण जनता दैनिक खर्चों के लिए रोज़ दूध की बिक्री पर निर्भर करती है। कोविड-19 का संक्रमण रोकने के लिए लॉकडाउन लगा, जिससे ग्रामीण अर्थव्य्वस्था की नींव हिल गई। गन्ना किसानों को 6 से 12 महीने में बकाया राशि मिलने की जो उम्मीद रहती थी, कोविड -19 ने वह भी ख़त्म कर दी। किसानों पर क्रेडिट कार्ड से लिए ऋण का ब्याज़ और हर्ज़ाना जल्द से ज़ल्द चुकाने का भार है।

पाई-पाई के लिए मोहताज़ किसान बच्चों के स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई का खर्च कैसे वहन करेंगे? इतना सब झेलने के लिए बहुत धैर्य की ज़रूरत होती है। पर हालात इतने बुरे हैं कि गन्ना किसानों का धैर्य टूट गया और वे आत्महत्या करने को विवश हो गए। जीने की चाहत ख़त्म होने पर कोई लुभावना वादा अच्छा नहीं लगता।

केंद्र सरकार ने गन्ने के समर्थन मूल्य में 10 रुपए बढ़ोतरी की है। केंद्र सरकार द्वारा किसानों के हित में बताए जा रहे इस फ़ैसले के बावजूद गन्ना किसान खुश नहीं हैं। आये दिन गन्ना किसानों की आत्महत्या की खबर सुनने को मिलती है। पिछले काफी समय से उत्तर प्रदेश में गन्ना बकाया भुगतान को लेकर विवाद चल रहा है। मैंने अभी तक उम्मीद नहीं छोड़ी, पर गन्ना किसानों को लाख आश्वासन देने के बाद भी वे हताश होकर ज़िन्दगी ख़त्म कर रहे हैं।

असलियत यह है कि 1995- 96 से ही गन्ना किसानों को बकाया नहीं मिल रहा। चीनी मिल मालिकों को गन्ने की पूर्ति के बाद भी गन्ना किसानों को पूरे पैसे नहीं मिलते। साल 1997 में उच्चतम न्यायालय ने चीनी मिल मालिकों को गन्ना किसानों को ब्याज़ सहित 29 करोड़ की बकाया राशि 14 दिन में देने का निर्देश दिया था। फिर भी न्यायालय के निर्देश की अवहेलना की गई।

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अगौता चीनी मिल ने ब्याज़ न देकर सिर्फ़ बकाया राशि 25 करोड़ दिए। तब राज्य सरकार के अधीन 80 को-ऑपरेटिव और कॉर्पोरेशन मिल थीं, जो सक्षम होते हुए भी ब्याज़ नहीं दे रही थीं। ज़िला मजिस्ट्रेट की हिरासत में चीनी का गोदाम भरा था। फिर भी अदालत की तौहीन की गई। आख़िरकार तंग आकर मैंने गन्ना आयुक्त और मिल मालिकों के खिलाफ़ 1997 में याचिका दायर की। इंसाफ़ मिलने में 12 वर्ष लग गए।

इसके बाद 11 दिसंबर 1996 को जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने समर्थित मूल्य, जिसे राज्य सरकार तय करती थी, को अवैध घोषित करते हुए यह निर्देश दिया कि गन्ना मूल्य केंद्र सरकार सुनिश्चित करेगी, जो समर्थन मूल्य का 1/3 होगा। फिर मैंने 1997 में इस आदेश के खिलाफ लखनऊ खंडपीठ में याचिका दायर की। वर्ष 1999 में जाकर एक बार फिर समर्थन मूल्य को वैध करार किया गया। गन्ना आयुक्त को सख्त निर्देश दिया गया कि किसानों को 14 दिनों के अंदर ब्याज़ सहित बकाया राशि दिलवाएं। हमेशा की तरह इस बार भी आदेश को नहीं माना गया।


लड़ाई लंबी है। सरकारी रवैया बदलने वाला नहीं है और वह भी हिम्मत नहीं हार रहे। मैंने फिर उच्च न्यायालय में 1996-97 से विलम्बित देय राशि पर ब्याज़ के भुगतान के लिए रिट याचिका दायर की, जो आज तक विचाराधीन है। एक बार अगौता चीनी मिल ने गन्ना किसानों को उनका ब्याज़ दिया था। इसके बाद फिर से मैंने नई याचिका दायर की थी ताकि उन्हें पूरी बकाया राशि ब्याज के साथ मिल सके।

वर्ष 2014-15 में उच्च न्यायालय ने गन्ना आयुक्त को वर्ष 2011-12, 2013-14 और 2014-15 तक की कुल ब्याज़ राशि, जो लगभग 2000 करोड़ रुपए थी, के भुगतान के लिए सख्त निर्देश दिए थे। इसके बाद सत्ता में समाजवादी पार्टी की सरकार आई।

मंत्रालय की बैठक में फैसला लिया गया कि मिल मालिकों को गन्ना किसानों के ब्याज़ भुगतान की अवधि के लिए तीन वर्ष की छूट दी दी जाएगी। मिलीभगत साफ दिख रही थी। उच्च न्यायालय ने फ़ैसले को पूरी तरह से अनुचित और एकतरफ़ा ठहराते हुए नकार दिया और सत्तारूढ़ योगी सरकार के गन्ना आयुक्त को निर्देश दिया कि वीएम सिंह के तर्कों पर ध्यान देते हुए चार महीने के अंदर नए सिरे से काम करें। जल्द से जल्द किसानों के हित में फ़ैसला सुनाएं। लगभग दो वर्षों तक भी गन्ना आयुक्त उक्त मामले में निर्णय लेने में असमर्थ रहे, तब मैंने उनके खिलाफ़ अवमानना याचिका दायर की।

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शुरुआत में वह न्यायालय के आदेश का पालन करने से बचते रहे लेकिन जब उन्हें हिरासत में लेने की चेतावनी दी गई तो उन्होंने 2019 में शपथपत्र में जानकारी दी कि वर्ष 2012-13, 2013-14 और 2014-15 से मुनाफ़ा कमाने वाली मिलों को 12 फीसदी की दर से और नुकसान झेलने वाली मिलों को 7 फीसदी की दर से गन्ना किसानों को ब्याज़ देने का निर्णय लिया जा चुका है। इस शपथ पत्र में कहीं भी 2011-12 के सत्र का ब्याज़ या उस पर छूट का उल्लेख नहीं था, जो कि उच्च न्यायालय के आदेशानुसार हर स्थिति में देय था।

अब वापस मेरी बारी आई। इस फैसले पर आपत्ति जताते हुए मैंने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की। इसमें राज्य सरकार और गन्ना आयुक्त को चुनौती देते हुए ब्याज़ की दर 15 फीसदी करवाने की मांग की, जो कानूनन सही है। इस सम्बन्ध में हाईकोर्ट ने 2019 में सूचना ज़ारी की थी। जब आयुक्त ने शपथ पत्र ज़ारी किया तो गन्ना किसानों को बकाया राशि और ब्याज़ का भुगतान तुरंत होना चाहिए था। किन्तु सरकार व चीनी मिलों ने पहले तो लम्बी हड़ताल और फिर कोरोना महामारी के कारण न्यायालयों के बंद होने का फायदा भरपूर उठाया और भुगतान नहीं किया।

जैसे ही न्यायालय चलना शुरू करेंगे एक बार फिर से गन्ना आयुक्त की जवाबदेही होगी। एक बार जब उच्चतम न्यायालय हमारे हित में फैसला सुनाएगा कि राज्य सरकार, गन्ना आयुक्त और चीनी मिल मालिकों को ब्याज़ दर में कटौती करने और 14 दिनों से ज़्यादा भुगतान की अवधि बढ़ाने का कोई अधिकार नहीं है। तब 15 फीसदी दर से ब्याज़ भुगतान करने की अनिवार्यता होगी।

मिलों को कॉर्पोरेट ऋण पर 10 से 12 फीसदी की दर से ब्याज़ मिलता है। तब मैं किसान भाइयों को समझा पाऊंगा कि वे आत्महत्या जैसा कदम न उठायें। बस धैर्य रखें। हमारा बुरा वक़्त जल्द ही जाने वाला है। जो होगा हमारे हित में होगा। वर्ष 1996 से हमें 15 फीसदी की दर से 1 लाख रुपये प्रति एकड़ और अगर वर्ष 2011-12 से 2019 -20 से भुगतान किया गया तो 50 हज़ार रुपए प्रति एकड़ मिलेंगे।

किसानों के साथ नाइंसाफ़ी होती आ रही है। आत्महत्या कोई शौक से नहीं करता। प्रशासन ने फ़र्ज़ी वसूली प्रमाण पत्र बनवा कर गणना किसानों को गन्ने की खेती की वृद्धि के लिए ऋण लेने पर मजबूर किया, ताकि उनसे अधिक से अधिक ऋण ले सके। जब वे ऋण न चुका पाएं तो उनसे ज़बरदस्ती वसूला जाए। किसान को यह जानकारी होनी चाहिए कि उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने 6 अगस्त 2012 को एक निर्देश दिया कि राष्ट्रीय किसान मज़दूर संघ को अधिकार दिया जाता है कि वे राज्य सरकार को किसानों के खिलाफ वसूली प्रमाण पत्र बनाने से रोक सकता है।

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तब तक किसी भी प्रकार का वसूली प्रमाण पत्र नहीं ज़ारी करवा सकता जब तक की मिलों द्वारा उनकी बकाया राशि और ब्याज़ का भुगतान नहीं होता। इस आदेश के बाद सात सालों तक वसूली प्रमाण पत्र नहीं बनवाया गया था। पर इस वर्ष अदालत की अवहेलना हुई और वसूली प्रमाण पत्र ज़ारी किये गए। मेरा संगठन इस मुद्दे पर विचार विमर्श कर रहा है और मुझे पूरा विश्वास है कि हम जल्द ही इस समस्या से भी उबर जाएंगे।

किसानों को मात्र 10 रुपए उचित एवं लाभकारी मूल्य की वृद्धि से उदास और हताश होने की ज़रूरत बिलकुल भी नहीं है। गन्ने के समर्थित मूल्य को निर्धारित करने का फैसला भी उच्तम न्यायालय की संवैधानिक खंडपीठ हमारे हक़ में सुनाएगी। राज्य सरकार को समर्थित मूल्य तय करने का हक़ है, जो वैध मूल्य है। उचित एवं लाभकारी मूल्य के हिसाब से पिछले वर्ष 325 रुपए की जगह 275 रुपए गन्ने का मूल्य प्राप्त होता। कुछ वर्ष पहले गन्ने का समर्थन मूल्य उचित एवं लाभकारी मूल्य से 110 रुपए ज्यादा था। इस वर्ष अगर मूल्य अक्टूबर से लागू किया गया तो प्रधानमंत्री के वादे के अनुसार 450 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से 50 फीसदी फॉर्मूले के हिसाब से गन्ने का उत्पदान मूल्य प्राप्त होगा।

हर अंधेरे के बाद उजाला है। हर निराशा के बाद आशा है। जरूरत है धैर्य की। संयम की। ज़िन्दगी की परिभाषा समझने की ज़रूरत है। यह तो निरंतर आगे बढ़ने का नाम है न की इसे ख़त्म करने की।

(लेखक राष्ट्रीय किसान मजदूर पार्टी के अध्यक्ष और अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के राष्ट्रीय संजोयक हैं। लेख में जो कुछ भी लिखा है, उनके निजी विचार है।)

  

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