खाने के अधिकार पर आदिम संघर्ष क्यों ?

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खाने के अधिकार पर आदिम संघर्ष क्यों ?यदि पशु विनष्ट हो गया तो हमारे जीवन संकट में पड़ जाएगा।

11वीं शताब्दी का चिंतक-दार्शनिक अल-बेरुनी अपनी पुस्तक किताब-उल-हिंद में लिखता है कि हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गाय वह प्राणी है जो यात्रा में मनुष्य का बोझ उठाकर, कृषि में हल चलाने और बोने के लाभों के साथ-साथ गृहस्थी में दूध और इससे बनने वाली चीजों से मनुष्य की सेवा करती है।

इसलिए गोमांस खाने का निषेध किया गया है। उसने यह भी लिखा है कि जब लोगों ने ‘अलह उजाग’ के पास शिकायत की कि बावल का अधिकाधिक उजाड़ होता जा रहा है तो उसने भी गोमांस खाना बंद कर दिया और गोवध को निषेध घोषित किया।

इस उदाहरण के पढ़ने के बाद सोचता हूं कि आज का यदि कोई दार्शनिक या चिंतक ऐसी बात लिख दे और कोई शासक इस प्रकार के निर्णय ले ले तो भारतीय प्रगतिशील समाज उसे जीवन के अधिकार से वंचित कर देगा। ऐसे में एक प्रश्न बार-बार उठता है कि 11वीं सदी का समाज तो इस विषय को लेकर चिंतित था कि यदि पशु विनष्ट हो गया तो जीवन पर ही संकट में पड़ जाएगा लेकिन 21वीं सदी के प्रबुद्ध एवं प्रगतिशील समाज के मस्तिष्क में वहीं चीजें क्यों नहीं कौंधती।

वह आदिम युग की क्या खाएं या क्या न खाएं की विशिष्ट मानसिकता से ग्रस्त क्यों है? क्या खाने की संस्कृति इतनी प्रभावशाली हो गई है कि भावी संकट इन सबके लिए कोई मायने नहीं रखते? क्या खाने का अधिकार (जैसा कि हरियाणा हाईकोर्ट में एक याची द्वारा तर्क दिया गया) पशु के जीने के अधिकार से बड़ा है? क्या वास्तव में पशु के जीने का अधिकार नहीं होना चाहिए?

आज का मनुष्य सिर्फ खाने के अधिकारों के लिए पशुवत आचरण के लिए इस कदर प्रतिबद्ध क्यों दिख रहा है? क्या इस विषय पर सरकार का नजरिया स्पष्ट है? क्या न्यायपालिका की तरफ से आ रहे निर्णय इस मसले को सुलझाने की ओर बढ़ने वाले कदम हैं या अधिक भ्रमात्मक? क्या केंद्र सरकार या संसद अनुच्छेद 48 एवं अनुच्छेद 51ए (जी) के तहत गाय सहित सभी मवेशियों की उचित सुरक्षा और संरक्षण के लिए कानून बनाने की शक्ति नहीं रखती?

31 मई 2017 को राजस्थान हाईकोर्ट जस्टिस महेशचंद्र शर्मा ने अपने एक आदेश में कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 48 और 51ए (जी) को ध्यान में रखते हुए, गाय को उचित सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करने के लिए कानूनी पहचान प्रदान करनी चाहिए। उन्होंने सरकार से गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किए जाने की उम्मीद भी की है। दरअसल जस्टिस शर्मा हिंगोनिया गौशाला में पिछले वर्ष लगभग 500 गायों की भूख और बीमारी से हुई मौतों पर सुनवाई कर रहे थे और उन्होंने अवकाश ग्रहण करने से चंद मिनट पहले इस प्रकार का निर्णय दिया।

हालांकि इससे पहले ही यानि 23 मई को पर्यावरण मंत्रालय ने पशुओं के खिलाफ क्रूरता रोकने के लिए मवेशी बाजार का नियमन बनाते हुए ‘पशुओं के खिलाफ क्रूरता रोकथाम नियम, 2017′ अधिसूचित किया, जिसके अनुसार अब पशु बाजार से वध के लिए गाय, बैल, सांड, बधिया बैल, बछड़े, बछिया, भैंस और ऊंट आदि मवेशी नहीं खरीदे जा सकेंगे। इससे पहले ‘पशु के प्रति क्रूरता निवारण अधिनियम 1960’ लागू होता था। लेकिन उसके प्रावधानों पर यदि गौर करें तो पशु को मारना तो दूर जल्लीकट्टू जैसे आयोजनों पर प्रतिबंध भी कानूनी रूप से उचित होगा।

इस नए कानून को कुछ मुख्यमंत्रियों ने संघीय व्यवस्था का अतिलंघन मानकर विरोध करना शुरू कर दिया तो कुछ आधुनिकतावादियों ने बछड़े को सड़क पर मारकर, उसका वीडियो जारी कर बीफ फेस्ट आयोजित कर स्वयं के आधुनिकतावादी और तकनीकी युग के पुरोधा होने का परिचय दिया लेकिन आधुनिकतावाद और खाने की स्वतंत्रता के नाम पर इस तरह की क्रूरता अथवा पशुवत व्यवहार किसी भी स्तर पर स्वीकार करने योग्य नहीं है।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भारतीय न्यायपालिका समाधान ढूंढ़ सकती है? भारतीय न्यायपालिका को इस विषय को लेकर एक स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करना चाहिए था। लेकिन उसकी तरफ से निर्णयों ने एक भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दी है। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायाधीश तथ्यों एवं संवेदनाओं के आधार पर कम अपनी वैयक्तिक पसंद अथवा वैयक्तिक सोच के आधार पर जजमेंट देते हैं।

उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायालय के डब्ल्यूपी (सिविल) संख्या 881 वर्ष 2014 गौरी मौलखी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य मामले में शीर्ष न्यायालय ने नेपाल में आयोजित गधिमी महोत्सव के लिए भारत से पशुओं की हो रही तस्करी को रोकने के लिए दिशानिर्देश तैयार करने के लिए 13 जुलाई, 2015 को आदेश पारित किया था। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने 12 जुलाई, 2016 को माननीय उच्चतम न्यायालय ने अंतिम आदेश के माध्यम से सरकार को पशुओं के प्रति क्रूरता रोकथाम अधिनियम 1960 की धारा 38 के अधीन नियम बनाने के निर्देश दिए थे।

लेकिन जब इन्हीं निर्देशों के आधार पर पर्यावरण मंत्रालय ने पशुओं के खिलाफ क्रूरता रोकने के लिए मवेशी बाजार का नियमन करते हुए ‘पशुओं के खिलाफ क्रूरता रोकथाम नियम, 2017′ को अधिसूचित किया तो मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै बेंच ने केंद्र सरकार के फैसले पर चार सप्ताह के लिए रोक लगा दी, साथ ही अपने अंतरिम फैसले में कहा कि खाने को चुनना सबका व्यक्तिगत अधिकार है और किसी को भी उसे तय करने का अधिकार नहीं है।

इसके विपरीत 31 मई को केरल हाईकोर्ट ने उस जनहित याचिका को रद्द कर दिया, जिसमें केंद्र सरकार के मवेशी बाजार को नियंत्रित करने के फैसले को चुनौती दी गई थी और उसे खारिज किए जाने की मांग की गई थी। जबकि राजस्थान हाईकोर्ट के जस्टिस महेश शर्मा ने अपने फैसले में ‘गोहत्या के लिए आजीवन कारावास का प्रावधान’ किए जाने की भी सिफ़ारिश कर दी। अब सवाल यह उठता है कि देश के लोग इन कानूनी पक्षों को कैसे देखें?

अब एक पक्ष और कि आखिर हमें गाय या अन्य मवेशियों के प्रति इतना संवेदनशील क्यों होना चाहिए। भारत की अर्थव्यवस्था में सेवा और विनिर्माण को चाहे जितना विज्ञापनी ढंग से पेश किया जाए लेकिन आज भी सच यही है कि भारत मुख्य रूप से एक कृषि प्रधान देश है, क्योंकि इसकी लगभग 60 प्रतिशत या इससे भी अधिक आबादी अपनी जीविका कृषि से चलाती है। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि भारत के लगभग 80 प्रतिशत किसान, सीमांतता की श्रेणी में आते हैं जो आज तकनीक की बजाय लेबर इन्सेंटिव कृषि पर ही निर्भर हैं।

स्लाटर हाउसेज की तरफ से बढ़ती पशुओं की मांग ने पशुओं के मूल्यों में इतनी वृद्धि कर दी है कि अब उनके लिए पशुपालन करना बेहद मुश्किल हो रहा है जबकि अन्य विकल्प उनके सामने मौजूद नहीं हैं। ऐसे में कृषि के लिए मवेशियों का संरक्षण जरूरी है अन्यथा सरकारें चाहे जितने कर्ज माफ कर दें, चाहे जितनी वित्तीय सहायताएं प्रदान कर दें, वे कृषकों को ऋणजाल (डेट ट्रैप) से नहीं निकाल पाएंगी। पशु श्रम तभी वृद्धिशील एवं सम्पन्न हो सकता है जब गाय और भैंस सहित सभी मवेशियों (जिन्हें 2017 के निमय में मवेशी घोषित किया गया है) को सुरक्षा एवं संरक्षण दिया जाएगा।

हमें यह ध्यान रखना होगा कि लोगों के खाने के अधिकार (जिसे विशेषकर उच्चवर्ग प्रस्तुत करता है) से कहीं अधिक प्रभावशाली एवं संवेदनशील अधिकार जीवन का अधिकार है और इसका सबसे विशाल एवं आवश्यक आधार जल, जंगल, जमीन के साथ-साथ पशुधन ही है। इसलिए जरूरी यह है कि हम पशुओं को संरक्षण देकर न केवल पारिस्थितिकी तंत्र को बचाए रखें बल्कि उत्पादन अर्थव्यवस्था में ‘लेबर इन्सेंटिव’ की महत्ता को भी समझने की कोशिश करें।

(लेखक अंतराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं यह उनके निजी विचार हैं।)

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