0

जलवायु परिवर्तन की नई मार: जब पराग एलर्जी और वायु प्रदूषण बन गए स्वास्थ्य का सबसे बड़ा खतरा

Gaon Connection | Dec 27, 2025, 18:12 IST
Share
जलवायु परिवर्तन, वायु प्रदूषण और पराग एलर्जी मिलकर एक ऐसा स्वास्थ्य संकट बना रहे हैं, जिसका असर बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक हर किसी पर पड़ रहा है। बढ़ता तापमान, लंबा पराग मौसम और जहरीली हवा सांस की बीमारियों को गंभीर बना रही है।
जलवायु परिवर्तन, वायु प्रदूषण और पराग एलर्जी मिलकर एक ऐसा स्वास्थ्य संकट बना रहे हैं, जिसका असर बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक हर किसी पर पड़ रहा है।
सुबह की हवा कभी ताज़गी का एहसास कराती थी। खिड़की खोलते ही ठंडक, पेड़ों की खुशबू और खुली साँसें, यह अनुभव अब धीरे-धीरे याद बनता जा रहा है। आज हवा सिर्फ़ ऑक्सीजन नहीं, बल्कि ऐसे सूक्ष्म कण भी लेकर आती है, जो हमारी आँखों, नाक और फेफड़ों में चुपचाप ज़हर घोल देते हैं। छींक, बहती नाक, जलती आँखें और साँस लेने में तकलीफ़, ये अब केवल “मौसमी परेशानी” नहीं, बल्कि एक गहराता सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट बन चुके हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, दुनिया की लगभग 99% आबादी ऐसी हवा में साँस ले रही है जो WHO के सुरक्षित मानकों से अधिक प्रदूषित है। यह आंकड़ा सिर्फ़ पर्यावरणीय चिंता नहीं, बल्कि करोड़ों परिवारों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़ा सच है। हर साल लगभग 6.7 से 7 मिलियन लोगों की अकाल मृत्यु वायु प्रदूषण से जुड़ी बीमारियों के कारण होती है। इनमें सबसे ज़्यादा असर बच्चों, बुज़ुर्गों और पहले से श्वसन रोगों से जूझ रहे लोगों पर पड़ता है।

पराग एलर्जी: छोटी परेशानी नहीं, बढ़ता खतरा

पराग एलर्जी को अक्सर हल्के में लिया जाता है, “थोड़ा सा जुकाम”, “मौसम बदलने का असर” कहकर टाल दिया जाता है। लेकिन हालिया वैज्ञानिक शोध, खासकर की समीक्षा बताती है कि पराग एलर्जी अब जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण के साथ मिलकर एक तीन-स्तरीय संकट (Climate Change + Air Pollution + Allergens) बन चुकी है।

पराग यानी पौधों के प्रजनन कण, जो हवा के ज़रिए फैलते हैं।
पराग यानी पौधों के प्रजनन कण, जो हवा के ज़रिए फैलते हैं।


पराग यानी पौधों के प्रजनन कण, जो हवा के ज़रिए फैलते हैं। जब ये हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं, तो कई लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली इन्हें खतरे के रूप में पहचान लेती है। नतीजा, एलर्जिक राइनाइटिस, अस्थमा, आँखों में जलन और कई मामलों में गंभीर श्वसन संकट।

यूरोप और उत्तरी अमेरिका में हुए अध्ययनों से पता चलता है कि:

पिछले 30 वर्षों में पौधों का विकास काल औसतन 10-11 दिन बढ़ गया है।

बढ़ता तापमान और वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) की अधिकता पौधों को ज़्यादा पराग पैदा करने के लिए प्रेरित करती है।

इतना ही नहीं, पराग की एलर्जेनिसिटी यानी एलर्जी पैदा करने की क्षमता भी पहले से अधिक हो गई है।

WHO और अन्य वैश्विक अध्ययनों के अनुसार, दुनिया में 10–40% आबादी किसी न किसी प्रकार की एलर्जी से प्रभावित है, और यदि मौजूदा रुझान जारी रहे, तो 2050 तक लगभग 4 अरब लोग एलर्जिक बीमारियों से प्रभावित हो सकते हैं।

वायु प्रदूषण: पराग का खतरनाक साथी

पराग अपने आप में परेशानी है, लेकिन जब वह प्रदूषित हवा से मिलता है, तो खतरा कई गुना बढ़ जाता है। Augustin et al. (2025) के अनुसार, वायु प्रदूषक पराग कणों की सतह को इस तरह बदल देते हैं कि वे शरीर में और गहराई तक पहुँचते हैं।

WHO जिन प्रमुख प्रदूषकों को सबसे खतरनाक मानता है, उनमें शामिल हैं:

PM2.5 (सूक्ष्म कण)

ये कण इतने छोटे होते हैं कि फेफड़ों की गहराई तक पहुँचकर रक्तप्रवाह में मिल सकते हैं।

2019 में अकेले PM2.5 प्रदूषण ने 4.14 मिलियन मौतों में योगदान दिया।

ये कण हृदय रोग, स्ट्रोक, फेफड़ों के कैंसर और अस्थमा को गंभीर बनाते हैं।

ओज़ोन (O₃)

ज़मीन की सतह पर ओज़ोन का बढ़ता स्तर साँस की तकलीफ़, सीने में जकड़न और घरघराहट (wheezing) को 35–47% तक बढ़ा सकता है।

नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (NO₂)

वाहनों और उद्योगों से निकलने वाली यह गैस बच्चों में अस्थमा और श्वसन संक्रमण से सीधे जुड़ी है।

जब ये प्रदूषक पराग के साथ मिलते हैं, तो एलर्जी के लक्षण पहले से ज़्यादा गंभीर और लंबे समय तक बने रहते हैं।

घर के भीतर भी सुरक्षित नहीं हैं हम

वायु प्रदूषण का खतरा सिर्फ़ बाहर नहीं, हमारे घरों के अंदर भी छिपा है। WHO के अनुसार:

दुनिया के लगभग 2.1 बिलियन लोग आज भी खाना पकाने के लिए लकड़ी, कोयला, गोबर और अन्य प्रदूषित ईंधन का इस्तेमाल करते हैं।

घरेलू वायु प्रदूषण हर साल करीब 2.9 मिलियन मौतों के लिए ज़िम्मेदार है।

भारत जैसे देशों में इसका सीधा असर महिलाओं और बच्चों पर पड़ता है, जो ज़्यादा समय घर के अंदर बिताते हैं। ग्रामीण इलाकों में रसोई का धुआँ बच्चों के फेफड़ों पर स्थायी असर छोड़ सकता है, जिससे एलर्जी और अस्थमा का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।

बढ़ता तापमान, बदलते मौसम चक्र और वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा पौधों के व्यवहार को बदल रही है।
बढ़ता तापमान, बदलते मौसम चक्र और वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा पौधों के व्यवहार को बदल रही है।


चरम मौसम और ‘थंडरस्टॉर्म अस्थमा’

जलवायु परिवर्तन केवल तापमान नहीं बढ़ा रहा, बल्कि चरम मौसम घटनाओं को भी बढ़ा रहा है। WHO और Augustin et al. (2025) दोनों चेतावनी देते हैं कि:

तूफान और बिजली के दौरान पराग कण टूटकर बेहद सूक्ष्म कणों में बदल जाते हैं।

ये कण फेफड़ों में गहराई तक पहुँचते हैं और अचानक अस्थमा अटैक को ट्रिगर कर सकते हैं।

ऑस्ट्रेलिया और यूरोप में ‘थंडरस्टॉर्म अस्थमा’ के कई मामले दर्ज किए जा चुके हैं, जहाँ कुछ ही घंटों में अस्पतालों में अस्थमा के मरीज़ों की संख्या कई गुना बढ़ गई।

शहरी बनाम ग्रामीण: अलग चुनौतियाँ

Augustin et al. (2025) के अनुसार, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में एलर्जी के कारण अलग-अलग हैं:

क्षेत्र

प्रमुख जोखिम

शहरीवाहन और उद्योगों से प्रदूषण, Urban Heat Island प्रभाव, सड़कों के किनारे एलर्जी पैदा करने वाले पेड़
ग्रामीणकृषि गतिविधियाँ, जंगलों की आग, मिट्टी के कण, पराग की अधिक सघनता
इस अंतर को समझना ज़रूरी है, क्योंकि एक जैसी नीति हर जगह कारगर नहीं हो सकती।

WHO और विशेषज्ञों की सिफ़ारिशें

WHO और Augustin et al. (2025) कुछ स्पष्ट रास्ते सुझाते हैं:

स्वच्छ ऊर्जा का विस्तार: साफ़ ईंधन से घरेलू और बाहरी प्रदूषण दोनों घटेंगे।

शहरी नियोजन: कम एलर्जेनिक पौधों का चयन, हरित क्षेत्रों की बेहतर योजना।

पराग और वायु गुणवत्ता मॉनिटरिंग: रियल-टाइम डेटा से लोगों को पहले से सतर्क किया जा सकता है।

स्वास्थ्य प्रणाली की तैयारी: प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में एलर्जी और अस्थमा की बेहतर पहचान और इलाज।

जन-जागरूकता: लोगों को यह समझाना कि एलर्जी सिर्फ़ “मौसम की बात” नहीं है।

साँसों का भविष्य हमारे हाथ में

जलवायु परिवर्तन, वायु प्रदूषण और पराग एलर्जी- ये तीनों मिलकर इंसानी स्वास्थ्य के सामने एक नई चुनौती खड़ी कर रहे हैं। WHO के आंकड़े साफ़ कहते हैं कि यह संकट आने वाला नहीं, बल्कि वर्तमान का सच है।

अगर आज हम स्वच्छ ऊर्जा, बेहतर नीति, वैज्ञानिक शोध और सामाजिक जागरूकता की दिशा में ठोस कदम उठाते हैं, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए हवा को फिर से जीने लायक बना सकते हैं।

वरना वह दिन दूर नहीं, जब “साफ़ हवा में साँस लेना” भी एक विलासिता बन जाएगा।
Tags:
  • Climate change and health
  • Air pollution and allergies
  • Pollen allergy climate change
  • Climate change air quality impact
  • WHO air pollution health data
  • PM2.5 health effects
  • Pollen season climate change
  • Respiratory diseases air pollution
  • Asthma and air quality
  • Climate change public health

Follow us
Contact
  • Gomti Nagar, Lucknow, Uttar Pradesh 226010
  • neelesh@gaonconnection.com

© 2025 All Rights Reserved.