कोरोना महामारी और लॉकडाउन के असर से बिगड़ रही मानसिक स्वास्थ की स्थिति

जब से कोरोना महामारी शुरू हुई है, तब से कई रिपोर्टों से यह संकेत मिला है कि अलग-अलग आयु वर्ग के व्यक्तियों के बीच मानसिक स्वास्थ्य संबंधी स्थिति बिगड़ रही है। इस पोस्ट में, मिशेल मैरी बर्नडाइन ने भारत में मानसिक स्वास्थ्य की परिस्थितियों को दर्शाया है, जैसे अर्थव्यवस्था के लिए मानसिक स्वास्थ्य संकट की लागत कितनी है और इस संकट का समाधान करने के लिए कानून और राज्य की मौजूदा क्षमता किस हद तक समर्थ हैं।

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कोरोना महामारी और लॉकडाउन के असर से बिगड़ रही मानसिक स्वास्थ की स्थिति

कई रिपोर्ट से पता चलता है कि यह वायरस और इससे जुड़े हुए लॉकडाउन जनसंख्या पर एक बड़ा प्रभाव डाल रहे हैं, जिनमें युवा वर्ग खास तौर से प्रभावित है। फोटो: पिक्साबे

भारत के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने 2017 में कहा था कि भारत "एक संभावित मानसिक स्वास्थ्य महामारी का सामना कर रहा है"। एक अध्ययन से यह पता चलता कि 2017 वर्ष में ही भारत की 14% आबादी मानसिक स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों से पीड़ित थी, जिसमें 45.7 मिलियन लोग अवसाद संबंधी विकारों से और 49 मिलियन लोग चिंता संबंधी विकारों से पीड़ित थे।

कोविड-19 महामारी ने इस मानसिक स्वास्थ्य संकट को और बढ़ा दिया है। दुनिया-भर की रिपोर्टों से पता चलता है कि यह वायरस और इससे जुड़े हुए लॉकडाउन जनसंख्या पर एक बड़ा प्रभाव डाल रहे हैं, जिनमें युवा वर्ग खास तौर से प्रभावित है।

भारत में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति

भारत राज्य-स्तरीय रोग बोझ पहल 'India State-Level Disease Burden Initiative' द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला है, मानसिक विकारों के चलते साल 1990 से से 2017 के बीच रोगों का बोझ 2.05 फीसदी से बढ़कर 4.7 हो गया। रिपोर्ट के मुताबिक मानसिक विकारों के कारण भारत में रोग का बोझ डैलि1 (DALYs) (विकलांगता-समायोजित जीवन वर्ष) के रूप में 1990 में 2.5% था जो 2017 में बढ़कर 4.7% हो गया है, और वाईएलडी (YLD) (विकलांगता के साथ बिताए गए वर्ष) में इसका योगदान अग्रणी अर्थात देश में सभी YLD का 14.5% था।

कोरोना महामारी और लॉकडाउन के असर से लोगों की मानसिक स्थिति पर प्रभाव पड़ रहा है।

अवसाद और चिंता संबंधी विकार तथा भोजन करने संबंधी विकार महिलाओं में काफी अधिक पाए गए। इतना ही नहीं अवसाद और आत्महत्या करने सबसे ज्यादा केस भी महिलाओं में पाए गए हैं। भारत में, मानसिक स्वास्थ्य विकार होने को कथित तौर पर शंका की नजर से देखा जाता है और जो लोग मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विकारों से पीड़ित हैं, एक तरह से उसे कलंक से जुड़ हुआ तक मान लिया जाता है।

यह भी माना जाता है कि आत्म अनुशासन और इच्छाशक्ति की कमी के परिणामस्वरूप मानसिक विकार पैदा हुए हैं। मानसिक स्वास्थ्य के उपचार में इससे जुड़े कलंक के साथ-साथ पहुंच, आर्थिक सामर्थ्य और जागरूकता की कमी बड़ी बाधा उत्पन्न करते हैं।

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएचएमएस), 2015-16 में यह पाया गया कि मानसिक विकारों से पीड़ित लगभग 80% लोगों का लंबे समय (सालों साल) इलाज नहीं कराया जाता है, या मिल पाता है। इस सर्वेक्षण ने यह भी बताया कि मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में बड़े उपचार अंतराल हैं, जिनकी सीमा अलग-अलग मानसिक विकारों में 28% से 83% तक थी।

मानसिक विकारों का आर्थिक बोझ

मानसिक विकारों से पीड़ित लोगों और उनके परिजनों पर काफी आर्थिक बोझ पड़ता है, एनएमएचएस (2015-16) ने खुलासा किया कि परिवारों द्वारा उपचार और देखभाल तक पहुंचने के लिए की जाने वाली यात्रा पर 1,000-1,500 रुपए प्रति माह खर्च किया गया। सर्वे के उत्तरदाताओं के साथ चर्चा से यह भी पता चला है कि मानसिक विकारों के इलाज पर होने वाले खर्च अक्सर परिवारों को आर्थिक तंगी की ओर धकेल देते हैं।

यह बोझ मध्यम आयु वर्ग के व्यक्तियों, जो मानसिक विकारों से सबसे अधिक प्रभावित भी थे, के मामले में अधिक स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, क्योंकि यह उनकी उत्पादकता को प्रभावित करता है जिससे न केवल व्यक्ति, बल्कि अर्थव्यवस्था पर भी बोझ बढ़ जाता है।


विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने यह अनुमान लगाया है कि मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विकारों के कारण भारत को 1.03 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का आर्थिक नुकसान होगा। एनएचएमएस ने यह भी पाया कि मानसिक स्वास्थ्य विकार कम आय, कम शिक्षा, और कम रोजगार वाले परिवारों को ज्यादा प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं।

इन कमजोर समूहों को उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के कारण वित्तीय समस्याओं का सामना करना पड़ता है और उपचार के लिए संसाधनों की सीमित उपलब्धता इस स्थिति को और बदतर बना देती है। इनके इलाज में आने वाला अधिकांश व्यंय प्रत्य क्ष व्यंय होता है और इस संबंध में राज्य सेवाओं और बीमा कवरेज में कमी पाई जाती है, जिसके परिणामस्वररूप गरीबों और कमजोरों पर आर्थिक दबाव की स्थिति और अधिक बिगड़ जाती है।

कानून और राज्य क्षमता का निर्माण करना

मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 2017 भारत में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार के लिए कई प्रावधान करता है। यह अधिनियम मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 को रद्द करता है, जिसकी इस कारण से आलोचना की गई थी कि यह मानसिक बीमारी से पीड़ित लोगों के अधिकारों और अभिकर्तृत्व (right and instituting) को पहचानने में विफल रहा था। अधिनियम में यह अपेक्षित था कि अधिनियम के पारित होने के नौ महीनों में एसएमएचए स्थापित होना चाहिए, 2019 तक, 28 में से केवल 19 राज्यों ने एसएमएचए का गठन किया था।

विश्वच स्वास्थ्य संगठन की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए 1982 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (एनएमएचपी)2 को आरंभ किया गया था, ताकि सामान्य स्वास्थ्य प्रणाली के अंतर्गत मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान की जा सकें। यद्यपि यह कार्यक्रम सामुदायिक स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य देखभाल पहुंच में सुधार करने में सफल रहा है लेकिन संसाधनों की कमी और अपर्याप्त बुनियादी ढांचे ने इसके प्रभाव को सीमित कर दिया है।

वर्ष 2021 तक, केवल कुछ राज्यों ने अपने बजट में मानसिक स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे के लिए एक अलग मद को शामिल किया था। 3 एनएमएचपी के लिए 2017-18 का बजट अनुमान 35 लाख रुपये था जिसे वर्ष 2017 में अधिनियम पारित होने के बाद, 2018-19 में बढ़ा कर 50 लाख रुपए किया गया। हालांकि, यह आंकड़ा 2019-20 में घटकर रुपए 40 लाख रह गया और बाद के वर्षों में यहां तक कि 2021-22 में भी इसका यही स्तकर बना रहा जबकि कई रिपोर्टों ने कोविड-19 महामारी के दौरान मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के बिगड़ने का संकेत दिए हैं।


भारतीय मनोरोग चिकित्सा सोसायटी के एक सर्वेक्षण ने संकेत दिया कि कोविड-19 महामारी की शुरुआत के बाद से 20% अधिक लोग खराब मानसिक स्वास्थ्य से पीड़ित थे। साक्ष्यों से यह भी उभर कर सामने आ रहा है कि कोविड-19 महामारी के दौरान शहरी गरीब लोगों के बीच महिलाओं के मनोवैज्ञानिक तनाव का स्तर अपेक्षाकृत अधिक है और ग्रामीण क्षेत्रों में लॉकडाउन प्रतिबंधों से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले परिवारों में बिना प्रवासी श्रमिकों वाले परिवारों की तुलना में प्रवासी श्रमिकों वाले परिवारों में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों की अधिक घटनाएं देखी गईं ।

लॉकडाउन ने छात्रों को भी गंभीर रूप से प्रभावित किया था क्योंकि इस दौरान शिक्षण के नए माध्यम और परिवेश से तालमेल स्थाभपित करने के साथ-साथ भविष्य की संभावनाओं के बारे में उनकी चिंता बढ़ गई थी। महामारी के दौरान छात्रों को मनोसामाजिक सहायता प्रदान करने के लिए, सरकार ने 'मनोदर्पण' नामक एक ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म शुरू किया जिसमें एक चर्चात्मक ऑनलाइन चैट विकल्प, मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की एक निर्देशिका और एक हेल्पलाइन नंबर शामिल है।

विकसित देश अपने वार्षिक स्वास्थ्य बजट का 5-18% भाग मानसिक स्वास्थ्य पर आवंटित करते हैं, जबकि भारत लगभग 0.05% आवंटित करता है (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन, 2014)। 2018 और 2019 में, वार्षिक बजट में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य पुनर्वास संस्थान पर खर्च को भी शामिल किया गया था।

इस संस्थान को मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में मानव संसाधनों और अनुसंधान के संदर्भ में क्षमता-निर्माण के उद्देश्य से वर्ष 2018 में मंजूरी दी गई थी। इसके अतिरिक्त, सरकार स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलोई क्षेत्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थावन तथा निमहांस को प्रतिवर्ष धन आवंटित करती है। हालाँकि निमहांस सभी जरूरतमंद लोगों को सस्ती और सुलभ मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने की शपथलेता है, ये प्रयास क्षेत्रीय रूप से अलग-थलग हैं क्योंकि निमहांस एक ही शहर (बेंगलुरु) से ही संचालित होता है।

निमहांस सेंटर फॉर वेल बीइंग जैसी पहल, जो प्रशिक्षित पेशेवरों से किफायती परामर्श सत्र प्रदान करते हैं,यदि देश भर में अधिक क्षेत्रों में विस्तारित हो जाएं तो एक बड़ा वरदान सिद्ध होगा, लेकिन फिलहाल इसका प्रभाव एक मेट्रो शहर तक ही सीमित है।

अधिनियम के लागू होने के बाद भारत के आर्थिक सर्वेक्षण द्वारा मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे को अभी भी काफी हद तक हल किया जाना बाकी है जबकि इस अवधि में मानसिक स्वास्थ्य का एक मात्र उल्लेख कोविड-19 महामारी के दौरान स्वास्थ्य देखभाल में सूचना विषमता और चिकित्साए संबंधी दृष्टिकोण में परिवर्तन के संदर्भ में सतही तौर पर किया गया है।

राष्ट्रपति द्वारा 2017 में की गई घोषणा के विपरीत, सरकार भारत में मानसिक स्वास्थ्य विकारों की भयावहता को स्वीकार नहीं करती जोकि लगभग एक "महामारी" का रूप ले रही है। जहां तक विशेष जनसांख्यिकीय समूहों (उदाहरण के लिए, बुजुर्गों) के लिए मानसिक स्वास्थ्य में सुधार के प्रयासों के बारे में संसद में पूछे गए प्रश्नोंल का सवाल है तो इस संबंध में एक ही मानक उत्तमर प्राप्तस होता है जिसमें सामान्य मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने के लिए निमहांस द्वारा की गई पहलें और एनएमएचपी / डीएमएचपी का उल्ले्ख किया जाता है जबकि इस दिशा में किसी लक्षित कार्यक्रम अथवा योजना का कोई उल्लेमख नहीं है।

इस मुद्दे की गंभीरता को स्वीकार करना देश में मानसिक स्वास्थ्य संकट को दूर करने की दिशा में पहला कदम होगा। संकट से सर्वाधिक प्रभावित सामाजिक आर्थिक समूहों को देखते हुए अगले और सबसे महत्वपूर्ण कदम यह होंगे कि कमजोर समूहों के लिए लक्षित योजनाओं के साथ, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल को और अधिक सुलभ बनाने की दिशा में पहल की जाए।

(लेखक परिचय: मिशेल मैरी बर्नडाइन आइडियास फॉर इंडिया के संपादकीय टीम में कॉपी एडिटर हैं। ये लेख मूल रुप से 6 अप्रैल को Ideas For India में प्रकाशित हुआ था)

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