नीलेश मिसरा की मंडली की सदस्य शबनम खान की कहानी पढ़िए- एक और हादसा...

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नीलेश मिसरा की मंडली की सदस्य शबनम खान की कहानी पढ़िए- एक और हादसा...शबनम खान की कहानी- एक और हादसा

वो कहानियां तो आज तक आप किस्सागो नीलेश मिसरा की आवाज़ में रेडियो और ऐप पर सुनते थे अब गांव कनेक्शन में पढ़ भी सकेंगे। #कहानीकापन्ना में इस बार पढ़िए नीलेश मिसरा की मंडली की सदस्या और पत्रकार शबनम खान की कहानी 'एक और हादसा'

प्रिया.. प्रिया.. (कुछ लोगों के चिल्लाने की आवाज़)

धड़ धड़ धड़ धड़..(दरवाजे की आवाज़)

चौंक कर उठ बैठी मैं, बहुत गहरी नींद में सो गई थी..

सुमित और शान लगातार चिल्ला रहे थे, दरवाज़ा खटखटा रहे थे। वैशाली भी साथ आई थी।

मैंने सेकैंड्स में खुद को समेटा, ऐसे बिखरी-बिखरी कैसे जाती उन सबके सामने। लड़खड़ाते हुए दरवाज़ा खोला और..

मैं खिड़की के अधखुल किवाड़ से आ रही हल्की किसी अनजान पक्षी की आवाज़ सुनने लगी और पास में रखा 'सिली' मेरा टैडी, उसे बाहों में ऐसे जकड़ लिया जैसे बस वही मुझे समझ सकता हो।

"ये क्या बात होती है? कहां हो कल से? फोन क्यों नहीं उठा रही थी? तबियत खराब है क्या? चेहरे पर बारह क्यों बजे हैं?" धायं धायं धायं..

कईं गोलियों से सवाल मुझे भेदने लगे..

मैंने इस बीच फोन उठाकर देखा तो 28 मिस्ड कॉल्स..जिसमें से 13 इन लोगों की थी। अब एक सवाल मेरा ख़ुद से, "मैं वाकई, मर गई थी क्या?"

वापस आकर बिस्तर पर खिड़की की तरफ जाकर पड़ गई, और वो लोग भी धम्म से आकर बैठ गए।

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शान ने बड़बड़ बोलना शुरू कर दिया, "यार प्रिया बड़ी ख़राब है तू, मेरा कैमरा भी देखने नहीं आई.. ये देख, कितनी मस्त तस्वीरें क्लिक की हैं, ये देख, अरे देख न"

वो मुझे शांत देख फिर कुछ देर में बोला, "यार रूम तो तेरा चमचमा रहा है, लेकिन तू क्यों बुझी हुई है?"

"वो मैं, वो... दरअसल बुखार है"

शान ने कैमरा एक तरफ रखा फिर माथे पर हाथ रखा और कहा, "अरे, एकदम ठंडा है, कहां है बुखार"

मैंने जवाब दिया, "वो.. वो चला गया!"

इस बीच वैशाली आंगन में लगे झूले पर जा बैठी, शान भी पीछे पीछे चला गया और फिर सुमित भी।

मैं खिड़की के अधखुल किवाड़ से आ रही हल्की किसी अनजान पक्षी की आवाज़ सुनने लगी और पास में रखा 'सिली' मेरा टैडी, उसे बाहों में ऐसे जकड़ लिया जैसे बस वही मुझे समझ सकता हो।

दोस्ती को प्यार, प्यार को दोस्ती में कैसे चुटकियों में बदल लिया था मैंने और हेमंत ने। बदलना ही पड़ा। हालात ऐसे बने कि पहले दोस्ती सिर्फ दोस्ती न रह सकी, और प्यार में बदल गई। और जब प्यार हुआ तो वो भी टिक नहीं सका। हुआ यूं कि उसकी नौकरी लखनऊ में लगी और उसके सामानों असबाब के साथ कोने में कहीं पैक किया हुआ हमारा प्यार भी चला गया।

फोन पर नज़र गई, तीन मैसेज भी थे, एक कॉलर ट्यून का, एक विकी का, कुछ शायरी जैसा और एक... हेमंत का।

दिल्ली में हेमंत के साथ जोड़ी कुछ यादें मेरे ज़हन में उतर आई, मैसेज में लिखा था, " कहां हो भई, मोहतरमा तुमसे बात करना चाह रही थी, और तुम हो कि फोन नहीं उठा रही, बिगड़ रही है वो मुझपर। यही थी दोस्ती?"

दोस्ती? मैं खुद पर ही हंस पड़ी। दोस्ती को प्यार, प्यार को दोस्ती में कैसे चुटकियों में बदल लिया था मैंने और हेमंत ने। बदलना ही पड़ा। हालात ऐसे बने कि पहले दोस्ती सिर्फ दोस्ती न रह सकी, और प्यार में बदल गई। और जब प्यार हुआ तो वो भी टिक नहीं सका। हुआ यूं कि उसकी नौकरी लखनऊ में लगी और उसके सामानों असबाब के साथ कोने में कहीं पैक किया हुआ हमारा प्यार भी चला गया।

उसके दूसरे शहर जाते वक्त जो हमने फ्यूचर प्लान्स बनाए थे वो फुर्र हो गए। दूरियां बढ़ी तो रिश्ते में तल्ख़ियां आ गई और फिर हेमंत को अपने ही ऑफिस में रहने वाली सुरभि पसंद आ गई।

चार दिन उसने शर्मिंदगी के आसूं बहाए आठ दिन मैंने जुदाई तन्हाई के गीत सुने, फिर क्या करते अपनी जगह वो सेट और.. मेरे पास तो कोई दूसरा रास्ता था ही नहीं। अभी चार महीने पहले ही उसने शादी कर ली। मुझे बुलाया तो था, लेकिन नौकरी का बहाना भी क्या खूब रहा, बच गई !

हेमंत, मेरी ज़िंदगी का पहला हादसा।

खिड़की पर एक पक्षी आकर बैठ गया, शायद यही था.. जिसकी आवाज़ आ रही थी।

इसी बीच सुमित ने मेरे लिए कॉफी बनाई, और बोला, "अब उठोगी महारानी? चलो कॉफी पियो, सर हल्का लगेगा।

अब इन्हें क्या बताती, कल रात को फोन पर कुछ ऐसी बातें सुन ली हैं, मेरा सर ही क्या, रूह भारी लगने लगी है।

कितना भी बीमारी का बहाना बना लो, आंखें सुजा लो, मुंह बना लो लेकिन ये दोस्त नाम के प्राणी दया नहीं दिखाते, सुमित ने कहा 15 मिनट में रेडी हो जा, आज संडे का दिन है बाहर चलकर तफरीह करते हैं और कितना गिड़गिड़ाती, ज़िद्दी वो भी कम नहीं। मैं तैयार होने लगी।

आईने पर नज़र गई तो अपनी बुझी मुस्कुराहट से खुद को देखने लगी, बिल्कुल ऐसा ही चेहरा बना रहता था मेरा उन दिनों जब हेमंत मुझे याद शहर में अकेला छोड़कर चला गया था। हमारे ब्रेकअप के बाद मुझे नई नौकरी मिली थी लेकिन मुझ जैसी बातूनी लड़की अब जैसे मुंह में टेप लगाकर बाहर निकला करती थी।

एक दिन काम करते करते ज़रा देर हो गई थी, ऑफिस में दो चार लोग ही बचे थे, और लड़कियों में बस मैं थी।

आंखें दर्द हो गई थी स्क्रीन पर गढ़ाए हुए और तभी, साइड से किसी ने मेरे डेस्क पर एक कॉफी मग लाकर रख दिया, मुड़कर देखा..

मेरा ही एक कलीग हैरी था। हैरी उर्फ हरमीत सिंह। हैरी मेरे सामने वाले डेस्क पर ही बैठता था। मेरी उससे कभी सीधी बात नहीं हुई थी, हां एक दो बार मेरी टीएल को कहता हुआ उसे सुना था, "मैम, नई लड़की आई है तो ज़ुल्म किए जाओगी, छोड़ भी दो उसे। कितना काम करवाती हो" इसपर मेरी टीएल बिदक कर बोलती, "तुम अपने काम से काम रखो न?"

मैं नखरे करते हुए मुंह घुमाए दूसरी तरफ देख रही थी। सेल्सबॉय मुस्कुराता हुआ आया, हैरी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, "सर मैं हूँ यहाँ। कोई मदद चाहिए हों तो मुझे भी बता देना" थोड़ा झेंप गया हैरी,और मैं उसकी तरफ देखकर आंख मारकर जोर से हंसी।

हैरी ने मुझसे कहा, "तुम क्यों ज्यादा काम करती हो? वो तुम्हारे साथ जो बैठती है कशिश, वो क्यों नहीं रुकी?" मैंने कहा, "कशिश को लेट जाने में डर लगता है।" हैरी ने तंज से कहा, "और तुम ठहरी झांसी की रानी।"

कुछ देर में जब मैं काम निपटा कर घर के लिए निकली तो देखा ऑफिस के सामने वाली सड़क पर हैरी खड़ा है। मैं अनदेखा कर जाने लगी तो उसने आवाज़ देकर कहा वो ड्रॉप करेगा, मैंने कहा "मैं जा सकती हूं"

"अरे हां सरकार, तुम सब कर सकती हो। वो तो मुझे अकेले में जाने में डर लग रहा है। सोचा तुम तो झांसी की रानी हो, कुछ हुआ तो तलवार लेकर कूद पड़ोगी मेरी रक्षा के लिए" मुझे हंसी आ गई, मैं बैठ गई और फिर ये रोज़ का सिलसिला हो गया।

शुरू- शुरू में सीधा घर जाते थे, फिर थोड़ा घूमने फिरने लगे। जब हेमंत था, वो लगभग रोज कुछ नया दिखाने ले जाया करता था। उसके जाने के बाद सब शौक़ जैसे दफ्न हो गए थे।

लेकिन अब धीरे- धीरे हैरी के साथ मैं उन शौक़ों को, खोद खोद कर निकालने लगी थी और उसपर लगी मिट्टी-धूल झाड़ रही थी।

मैं नया- नया महसूस करने लगी थी। जो नखरे कभी हेमंत को नहीं दिखाए वो हैरी को दिखाया करती थी। मुझे अजीब सा मज़ा आता था उससे फिज़ूल की ज़िद पूरी करवाकर। जैसे मेरे अंदर जो अधूरा सा था, उसे भर रही थी मैं, किसी तरह। और वो, मुझमें अपनी ज़िंदगी तलाशने लगा था।

मुझे उसकी आदत लगती गई। दिन बीते, हफ्ते बीते और फिर महीने। हम घूमते फिरते, मेरी हल्की सी उदासी पर उसका हाथ मेरे सर पर होता। वो मेरे चारों ओर फैल गया था। सुरक्षा कवच की तरह।

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सुमित, शान और वैशाली के साथ मुझे बाहर निकलना ही पड़ा। बैंगलोर की हर शाम गुलाबी होती है, हल्की ठंडी। लेकिन फिर भी यहां कुछ रोमेंटिक नहीं लग पा रहा। रोमेंस तो इन्सानों में होता है। किसी शहर से कैसे रोमेंस हो भला?

घूमते टहलते हम पास के मॉल में गए। वैशाली यहां आकर कुछ ज्यादा ही खुश दिख रही थी और शान के माथे की सिलवटें बढ़ गई थी। अब शान को कुछ तो दिलाना ही होगा उसे, क्या इंप्रैशन पड़ेगा वरना

सुमित, हमेशा की तरह बड़ी स्क्रीन वाले अपने स्मार्ट फोन पर नई ऐप्लिकेशन्स के साथ जोड़ तोड़ बिठाने में लगा था।

और मैं सबके साथ रहकर, अकेली चल रही थी।

वैशाली और शान किसी शूज़ के शोरूम में मुझे अंदर आने का इशारा करके चले गए लेकिन मैं बाहर ही शोरूम के सामने लगे बेंच पर बैठ गई।

शान वैशाली को खुद फुटवेयर पहना पहना कर पसंद करवा रहा था।

मुझे वो शाम याद आ गई, जब हैरी मेरे पीछे पड़ा हुआ था कि मैं शूज़ ले लूं। ठंड कुछ ज्यादा पड़ती थी न दिल्ली में लेकिन जूते-चप्पलों के मामले में मैं बहुत आलसी थी। फ्लोटर पहने ही पूरा साल गुज़ार देती थी।

उस दिन हम कॉफी हाउस में बैठे गर्मागर्म कॉफी से हाथ और ज़ुबान गर्म कर रहे थे। मुझे बहुत ठंड लग रही थी। हैरी बहुत दिनों से कह रहा था कि मैं सर्दियों में तो कम से कम शूज़ पहन लिया करूं। उस दिन उसने फिर कहा, मैंने बात को टालने के लिए सबसे आसान बहाना बना दिया "मेरे पास नहीं है शूज़"

मेरा कहना था और उसने मेरा हाथ पकड़ा और चल दिया और फिर सीधा जाकर बड़े से फुटवेयर शोरूम पर ही हम रुके। हैरी एक-एक करके डिस्प्ले पर लगे शूज़ रैक से उतारकर मेरे पास लाने लगा।

"ये पर्पल वाला देखो, ये ग्रीन वाला। हे प्रिया, ये ब्राउन वाला तुम्हारे पैरों पर बहुत अच्छा लग रहा है"

मैं नखरे करते हुए मुंह घुमाए दूसरी तरफ देख रही थी। सेल्सबॉय मुस्कुराता हुआ आया, हैरी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, "सर मैं हूँ यहाँ। कोई मदद चाहिए हों तो मुझे भी बता देना" थोड़ा झेंप गया हैरी,और मैं उसकी तरफ देखकर आंख मारकर जोर से हंसी।

आख़िरकार, एक शूज़ पसंद कर ही लिया था मैंने। अपने फ्लोटर्स को भावभीनी विदाई देकर उसे वही नए शूज़ पहन लिए। उसे पहनकर चलते हुए बार -बार हैरी से लड़ रही थी, ये क्या अजीब से शूज़ दिला दिए मुझे और वो मुस्कुराता हुआ चलता रहा।

आज यहां शान और वैशाली को जूते खरीदते देख वो दिन फिर से आखों के सामने तैरने लगा। तकरीबन आधा घंटा गुज़रने के बाद ये दोनों बिना कुछ लिए उस शोरूम से बाहर निकल आए। वैशाली ज़रा नाराज़ दिख रही थी और शान चिढ़ा हुआ। हम फिर चल पड़े।

चलते-चलते महसूस कर रही थी, हैरी भी यहीं, मेरे आसपास चल रहा है। उसकी उंगलिया मेरी उंगलियों को छू रही थी, हमारे कंधे टकरा रहे थे। कहीं मैं उसे मिस तो नहीं कर रही? नहीं। मैं भी जाने क्या सोच रही हूं। शायद शान और वैशाली में अपने बीते कल का अक़्स दिख रहा है लेकिन नहीं।

हैरी तो जा चुका है। हादसा बीत गया है।

बहुत देर से फोन छूने की हिम्मत नहीं हो रही थी। मेरे हैंडबैग की पीछे वाली छोटी जेब में कहीं पड़ा लगातार वाइब्रेट कर रहा था। डर लग रहा था फोन पर कल रात जो फैसला होते-होते रुक गया था, फोन उठाने पर वो हो न जाए

"चलो यार आज आइसक्रीम हो जाए" शान ने कहा।

ये दोस्त भी न, बाय गॉड कभी-कभी जान लेने पर तुल जाते हैं। कोई चैन से उदास भी नहीं होने देता।

मुझे एक टूटीफ्रूटी, मैंने अपना फ्लेवर बताया और खुद हैरान हो गयी। हैरी एक बार मेरे लिए टूटीफ्रूटी फ्लेवर आइसक्रीम ले आया था तो बहुत नाराज़ हुई थी कि किसी अच्छे नाम की आइसक्रीम क्यूं नहीं लाया। और आज खुद ही। उफ़ ये यादें। एक ये याद और एक वो..

जब मैंने शहर छोड़ने का फैसला लिया था। मैंने हैरी से को बताया कि मुझे दूसरे शहर से जॉब ऑफर आया है। उसने मुस्कुराकर कहा अच्छा है, चली जाओ। वैसे भी ये शहर तुम्हें कहां अच्छा लगता है। हैरी मुझे चाहता था, लेकिन वो समझता था मैं उसे चाहने की कोशिश कर रही हूँ। चाह नहीं पा रही लेकिन वो लगातार कोशिश करता रहता था और उसकी कोशिशें मुझे अब परेशान करने लगी थी। मैंने हेमन्त की यादों से दूर जाने के लिए हैरी को अपने नज़दीक आने तो दिया, लेकिन अब मुझे ये सब ठीक नहीं लग रहा था। अपने, और उसके साथ भी। हैरी से प्यार करना मुझे हेमंत की यादों को बिगाड़ना लगता था।

मैंने इस्तीफ़ा दे दिया। ऑफिस के आखिरी दिन खत्म होने पर हमेशा की तरह मैं और हैरी सड़कों पर घूमने लगे। हम रोज़ से ज़्यादा बातें कर रहे थे, लेकिन एक बार भी मेरे जाने पर बात नहीं की। जब मेरे घर जाने का वक्त हुआ, हैरी ने मेरा हाथ पकड़कर कहा, मैं आऊंगा नए शहर, तुमसे मिलने। और मैंने हां तक नहीं कहा।

नए शहर में आकर कुछ दिन तो मैं उससे फोन-इंटरनेट से जुड़ी रही फिर एक दिन जब वो मेरे पास आने का दिन फिक्स कर रहा था, तो उसे कह दिया। हैरी हम सिर्फ दोस्त रहे तो?

हैरी चला गया। मेरी दोस्ती की बात वो बर्दाश्त नहीं कर पाया, चला गया..ज़िंदगी से मेरी, बिना शिक़ायत किए। हैरी के जाने का ग़म था मुझे, लेकिन अनचाही चाहत का बोझ लिए जीना मुश्किल था। हैरी, मेरी ज़िंदगी का दूसरा हादसा, गुज़र गया।

फोन लगातार बज रहा था.. बैग पर वैशाली का हाथ पड़ा तो सबके सामने कहने लगी, फोन क्यों नहीं उठा रही...कब से वाइब्रेट कर रहा है..बेचारा समीर परेशान हो रहा होगा।

मन तो किया मुंह पर ज़ोर का तमाचा लगा दूं और कहूं, अपने शान पर ध्यान लगाओ, समझी। अब तो फोन उठाना ही पड़ा।

"हैल्लो.. समीर.. वो.. मैं...समीर मैं बाद में बात करती हूं... समीर... मैंने कहा न, बाद में बात करती हूं। समीर... लेकिन...। समीर.. समीर...।"

समीर ने फोन काट दिया। हो सकता है फेंका हो, गुस्सा ऐसा ही है उसका।

अपना फोन बैग में रखने के बाद ध्यान दिया, बाकी सब मुझे देख रहे थे।

मैंने कहा 'गाइज़, आइसक्रीम खाओ, मेरा दिमाग मत खाना।'

मैं नए शहर में नई नौकरी की वजह से नहीं, बल्कि पिछली ज़िंदगी से पीछा छुड़ाने आई थी। पहली बार अकेले रहने की मुश्किलों के बीच मैं हेमंत और हैरी को भूलने लगी थी। हालांकि नए शहर की अनजान ख़ामोश रातों में ये हादसे मुझे बेहद तंग करते थे। उन दिनों इंटरनेट मेरा सहारा बन गया था। फेसबुक, जीटॉक और ब्लॉगिंग वगैरह से मैं अपने पुराने दोस्तों से जुड़ी रहती थी और किसी तरह दिन गुज़ार देती थी।

उन्हीं दिनों, जाने कितने दोस्तों की भीड़ में एक दोस्त सबसे आगे आ गया।

समीर मेरे दिल्ली से ही था लेकिन हम कभी आमने सामने मिले नहीं थे, वो मेरा इंटरनेट फ्रेंड था। बीच में अपने शहर जाना हुआ, घर वालों से मिलने। तभी समीर से पहली मुलाक़ात हुई।

समीर मुझे नेक लगा। लगता था वो भी मेरी तरह ज़िंदगी की बेहद गहराइयों में उतरा हुआ उदास इंसान है।

कुछ वक़्त बाद मुझे लगने लगा समीर मुझे पसंद करता है। अच्छा मुझे भी लगता था वो। अब दो साल अकेले रहने के बाद मुझे किसी के प्यार की ज़रूरत महसूस होने लगी थी। एक दिन हमने ऐसे ही अचानक से एक-दूसरे को बता दिया कि हम एक-दूसरे में इंट्रस्टेड हैं। हम दोनों ही शादी करना चाहते हैं। हाँ, मैं अब शादी करना चाहती थी, मैं एक ठहरा हुआ रिश्ता चाहती थी।

समीर और मेरे रिश्ते में किसी को दिक्कत नहीं होनी थी, हम जानते थे। मेरे मां-पापा को ऐसा ही लड़का चाहिए था। शायद, इसलिए मैं उसकी तरफ मुड़ी थी। मैंने आसान फैसला किया था। उसने भी। मैं जानती थी हम दोनों एक दूसरे से प्यार नहीं करते लेकिन तन्हा रहते रहते उक्ता चुके हैं और एक साथी की तलाश में हैं और हमने अपना प्यार फिक्स कर लिया।

अब ऐसा लगने लगा था बस, अब सब ठीक हो जाएगा। समीर और मैं एक अच्छी ज़िंदगी बिताएंगे।

वैशाली ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और वापस इस दुनिया में ले आई। आइसक्रीम का मीठा और ठंडकभरा दौर ख़त्म हो चुका था। जैसे मेरे नए रिश्ते का।

हम सभी घर की तरफ चल पड़े थे। चलते- चलते अचानक महसूस हुआ मैं अकेली हूं सड़क पर। ये जो लोग मेरे आसपास हंसते बोलते चल रहे हैं, उन सब के बीच.. अकेली हूं। इन लोगों के साथ क्या, मैं तो अब अपने ही साथ नहीं हूं। कुछ.. कुछ हैं जो अंदर दबा हुआ है..। कुछ है, जो मुझे आवाज़ दे रहा है। कुछ है, जो मुझे कह रहा है अपने मन की करो..। जैसा तुम किया करती थी। चलते चलते मैं वाकई अकेली हो गई..। अपने दाएं बाएं देखा.. दोस्त लोग जाने कहां गए..। फिर अपना ही नाम हवा में तैरता हुआ कानों को छूने लगा.. कोई पुकार रहा है मुझे? ओह..

पीछे मुड़ी तो बाकी सब वहीं खड़े थे। मेरा घर पीछे ही छूट गया था।

सबसे अलविदा लेकर मैं घर पर आ गई, आदतन अंदर आते ही बेड पर गिरते ही फोन निकाला.. समीर का मैसेज था.. "मुझे नहीं लगता, अब कुछ ठीक हो पाएगा प्रिया.."

पिछले एक साल में मैं 2-3 बार दिल्ली के चक्कर भी लगा चुकी थी तब मैं और समीर मिल लिया करते थे।

वक्त तेज़ी से बढ़ रहा था और मैंने महसूस किया कि अब समीर मुझे अपनी पत्नी के रूप में ही देखने लगा है। मेरे तौर तरीकों पर उसकी ख़ास नज़र होती थी। शुरू शुरू में मुझे ये सब बहुत अच्छा लगता था लेकिन आजकल बहुत ज़्यादा हो चुका था।

जिस समीर को मैं दोस्त समझती थी वो मेरा मालिक बनने की कोशिश करने लगा था। मैं उसकी बातें सुनती, और सिर्फ उसे अच्छा लगाने के लिए वैसा करने लगी। मैं डरती थी एक और अधूरा–टूटा रिश्ता नहीं देख सकती थी।

एक साल बाद हम शादी करने वाले थे और अब, अब मुझे उसके साथ घुटन हो रही थी।

समीर को अब मैं कुछ हद तक चाहने भी लगी थी और मुझे यकीन था, समीर मुझे बहुत चाहता है। अब मैं एक ठहरी हुई सुकून ज़िंदगी जीना चाहती थी जिसमें एक ऐसा पार्टनर साथ हो जो मुझे समझता हो।

समीर में सब कुछ था बस, वो मुझे समझने से ज्यादा मुझे समझाने लगा था।

लगभग हर तीसरे चौथे दिन उसे मेरी किसी बात से नाराज़गी हो जाती। जो समीर मुझे ख़्वाबों के आसमान पर वॉक कराने ले जाया करता था आज वो मुझसे कहने लगा था कि अपने क़दम ज़मीन पर रखो, बचपना बहुत है तुममे।

अभी दो तीन दिन पहले मैं सुमित के फ्लैट पर थी। उसकी तबियत ठीक नहीं थी तो उसका ख्याल रख रही थी। घर लौटते वक्त देर रात हो गई। समीर को पता चला तो उसने बहुत डांटा औऱ कहा कि उसे ये सब पसंद नहीं। उसे पसंद नहीं कि मैं देर रात गए अपने दोस्तों के साथ मस्ती करूं। मस्ती?

समीर के ये शब्द चुभ गए मुझे।

समीर को समझाने की कोशिश की लेकिन समीर चाहता था कि मैं आइंदा ऐसा न करूं, औऱ मैं इसे ग़लती नहीं मानती थी।

कल देर रात उसने देर रात फोन पर कहा, "प्रिया, अगर तुमने अपनी ग़लती नहीं मानी तो मुझे फिर से सोचना होगा"

फिर से सोचना होगा? क्या मतलब? कल रात भर रोती रही, ये तो दोपहर मेरे दोस्त आके मुझे बाहर ले गए वर्ना क्या जाने अभी तक वैसे ही हाल में होती पर फिर, हाल अब भी हाल ठीक कहां हैं, अन्दर तो तूफ़ान तबाही मचा ही रहा था।

मैं लेट गई टूटे बिखरे सपनों के तालाब में तैरने की कोशिश में..

और फोन आया, समीर का उसने फिर वही बातें शुरू कर दी और लगभग धमकी दी कि वो मुझे इन हरकतों के लिए छोड़ सकता है। मैंने उसे बीच में रोकते हुए कहा, समीर, इट्स ओवर। मैं तुमसे शादी नहीं कर सकती।

हाँ, मैंने कह दिया

दोनों तरफ ख़ामोशी...

फिर वहां से आवाज़े आने लगी, प्रिया, प्रिया, बेबी। हम बात करते हैं। सुनो न.. हम...

मैंने फोन काट दिया।

रिश्ते किस्मत से बनते हैं, और मैं इस मामले में किस्मत से लड़ रही थी.. लेकिन बस, आज मैंने सोच लिया, अब खुद पर ज़बरदस्ती नहीं। अब प्यार अरेंज नहीं करूंगी।

समीर की क़ैद से छूटकर एक गहरी सांस ली। 'सिली' को बाहों में लिया और सो गई।

अगले दिन ऑफिस में शान ने पूछा, प्रिया, वो समीर.. तुम्हारी लड़ाई। सब ठीक है न? कल मुझे लगा...

मैंने हल्के से कहा, 'एक और हादसा सही।

         

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