गाँव में बने फुटबॉल खेलते हैं शहर के खिलाड़ी

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गाँव में बने फुटबॉल खेलते हैं शहर के खिलाड़ी

मेरठ। फुटबॉल तो सभी ने देखा होगा लेकिन ये नहीं जानते होंगे इन्हें बनाने के लिए कितनी मेहनत लगती है और कौन इन्हें बनाता है।

जिला मुख्यालय से लगभग 35 किमी उत्तर दिशा में जानी ब्लॉक के सिसोला गाँव के हर घर में आपको फुटबॉल बनाते दिख जाएंगे।

साढ़े चार हज़ार की जनसंख्या वाले सिसोला गाँव में सभी घरों में ये काम होता है। हबीबा (45 वर्ष) और उनकी बेटी शाजमा (20 वर्ष) घर का सारा काम निपटाने के बाद फुटबॉल बनाने लगती हैं। एक दिन में दोनों मिलकर दस-बारह फुटबॉल बना लेती हैं।

अपने घर के आँगन में चारपाई पर बैठी फुटबॉल सिलते हुए हबीबा कहती हैं, ''घर बैठे काम मिल जाता है, हम औरतें भी घर बैठे ही खर्च निकाल ही लेती हैं। पच्चीस साल हो गए यही काम करते करते, अब तो एक दिन में पांच-छह बन ही जाते हैं।" मेरठ जिले में एक लाख से भी ज्यादा लोग खेल उद्योग से जुड़े हैं, जिनमें से ज्यादातर लोग गाँव के ही हैं। खेल उद्योग की सालाना कारोबार 1200 से 1500 करोड़ है। देश बड़ी-बड़ी कंपनियां मेरठ के गाँव के इन कारीगरों पर ही निर्भर हैं। 

देश में भर में जितने भी फुटबॉल और दूसरे खेल के सामान बिकते हैं, उनमें से 90 फीसदी मेरठ में ही बने होते हैं। फुटबॉल पर लेबल चाहे जिस कंपनी का हो बनाते मेरठ के गाँव के ही लोग हैं। गाँव के मुकेश कुमार ने फुटबॉल कारखाना लगा रखा है, उन्हीं के फुटबॉल की कटिंग होती है और उसके बाद घर-घर जाकर कच्चा माल दे जाते हैं। हबीबा को एक फुटबॉल बनाने में एक घंटे लगते हैं और एक दिन में पांच-छह फुटबॉल बना लेती हैं, एक फुटबॉल के 14 रुपये मिलते हैं। गाँव के बड़ों के साथ ही बच्चे भी पढ़ाई के साथ फुटबॉल बनाते हैं। दस वर्ष की हिना दूसरी कक्षा में पढ़ती हैं, और स्कूल से लौटने के बाद दो-तीन फुटबाल बना ही लेती हैं।

अर्शी (12 वर्ष) के घर में पांच भाई बहनों में सबसे बड़ी हैं। अर्शी बताती हैं, ''स्कूल से लौटने के बाद एक साथ बैठ कर हम लोग बनाते हैं।" गाँव के शरीफ  अली कहते हैं, ''घर के आदमी बाहर कमाने जाते हैं और औरतों को घर बैठे ही काम मिल जाता है, बाहर से लोग हमारा काम देखने आते हैं।"

 

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