आँखें खो चुकी बच्चियों को रोशनी देते हैं ये नेत्रहीन टीचर

Ambika Tripathi | Sep 22, 2023, 09:22 IST
कर्नाटक के कलबुर्गी में एक रिटायर प्रोफ़ेसर भले देख पाने में सक्षम न हो, आँखें खो चुकी कई बच्चियों की सारी ज़िम्मेदारी वे खुद उठाते हैं जिससे वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकें।
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66 साल के दत्तू अग्रवाल जब तीन साल के थे तब निमोनिया की बीमारी के कारण उनकी आँखों के रोशनी चली गई, लेकिन आज वे अपनी तरह न देख सकने वाली तमाम बच्चियों की रोशनी हैं।

दत्तू अपनी मेहनत, जज़्बे और सकरात्मक सोच के दम पर कर्नाटक के कलबुर्गी में ऐसी तमाम बच्चियों को नयी राह दिखा रहे हैं, जिनके जीवन में पढ़ाई पहाड़ से कम नहीं थी।

कर्नाटक की राजधानी बंगलुरु से 625 किलोमीटर दूर कलबुर्गी में दत्तू अग्रवाल मातोश्री अंबुबाई रेसिडेंटल स्कूल फॉर ब्लाइंड गर्ल में पढ़ाते हैं। 32 साल तक यूर्निवसिटी में सेवा देकर प्रोफेसर पद से रिटायर होने के बाद उनके जीवन का अब एक ही मकसद है बच्चियों को गोद लेकर उनकी देखभाल करना।

दत्तू अग्रवाल गाँव कनेक्शन को बताते हैं, "हैदराबाद कर्नाटक डेबलेपर वेल्फेयर सोसाइटी जो मेरी पत्नी देखती हैं उसके तहत ही हमारा ये स्कूल चलता है। सोसाइटी का मकसद लोगों की हेल्प करना है, इसलिए 2007 से 4 बच्चियों के साथ जिस स्कूल को हमने शुरु किया था, आज यहाँ 75 बच्चियाँ हैं। स्कूल में क्लास 1 से 10 तक की पढ़ाई होती है।"

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"यहाँ मुफ्त शिक्षा के साथ साथ उनका इलाज और खाना पीना सब हम लोग देखते हैं। कम्प्यूटर, आर्ट, क्राफ्ट, म्यूजिक सभी चीजें यहाँ सिखाते हैं।" दत्तू अग्रवाल ने आगे कहा।

सातवीं क्लास की इजमा की आँखें बचपन से ही कमजोर थी, लेकिन वो जब 7 साल की हुई तो आँखों की बची रोशनी भी चली गई।

इजमा गाँव कनेक्शन को बताती हैं, "मुझे यहाँ पढ़ाई करना बहुत अच्छा लगता है, यहाँ पर बहुत कुछ नया सीखने को मिलता है।"

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इजमा जब एक डॉक्टर के पास अपनी आँखों के इलाज के लिए गई थी तब डॉक्टर ने उन्हें यहाँ के बारे में जानकारी दी थी। फिर वे यहाँ पढ़ाई करने आ गईं।

दत्तू के मुताबिक उनके स्कूल में ज़्यादातर बच्चियाँ आस पास के गाँव से आती हैं। कलबुर्गी के अलावा बेल्लारी, कोप्पल, विजयनगर, यादगीर, रायचूर, बीजापुर जैसे 7 जिलों से बच्चियाँ पढ़ाई करने आती हैं। हॉस्टल में उनकी देख भाल और पढ़ाई के लिए 20 लोगों का स्टाफ है जिनमें दस टीचर हैं ।

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इस स्कूल में दाखिले के लिए ब्लाइंड सर्टिफिकेट होना ज़रूरी है, जिसे डॉक्टर सर्टिफाइट करते हैं।

दत्तू ने कहा, "अभी तक हमारे स्कूल का 7 बैच पढ़ाई करके बाहर जा चुका है, जिनमें 63 लड़कियाँ थीं, वो कॉलेजों से हायर एजुकेशन कर रहीं हैं और हमारे स्कूल का नाम रोशन कर रहीं हैं।"

दत्तू बताते हैं, "मेरी आँखों की रोशनी चले जाने के बाद मैंने लोकल सरकारी ब्लाइन्ड स्कूल में पढ़ाई की उसके बाद नॉर्मल बच्चों के साथ कलबुर्गी यूनिवर्सिटी से एमए की पढ़ाई की। इसके बाद मेरा सलेक्शन 1985 में एक सरकारी यूर्निवसिटी में लेक्चरर पद पर हुआ।" "वहाँ ब्लैक बोर्ड पर नहीं लिखना होता था बस जुबानी ही बच्चों को पढ़ाता था। 2017 में मैं रिटायर हो गया तब से पूरा समय अपने इस स्कूल को देने लगा।" उन्होंने आगे कहा।

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दत्तू अग्रवाल के इस सफर में उनके साथ उनकी पत्नी शोभारानी हमेशा खड़ी रहती हैं। 60 वर्षीय शोभारानी गाँव कनेक्शन को बताती हैं, "शुरुआत में हमें बहुत समस्या हुई बच्चियाँ की सारी चीजें सम्हालना, उनको नहलाना धुलाना उनको खाना खिलाना सारे काम मैं करती थी। बच्चियाँ भी छोटी होती थी तो उन्हें कुछ भी नहीं आता था, लेकिन फिर अब जो बच्चियाँ बड़ी हो गयी हैं वो छोटी बच्चियों को भी सम्भाल लेती हैं।"

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साल 2006 में दत्तू अग्रवाल ने अपनी माँ के निधन के बाद उनके नाम से बच्चियों के लिए अपने घर से ही ये स्कूल शुरू किया। शुरू में टीचर्स को देने के लिए भी पैसे नहीं थे, धीरे-धीरे लोगों की मदद मिलनी शुरू हुई अब सरकार उन्हें पैसे देती है। वे बताते हैं 50 बच्चियों को 1 हज़ार रूपये अलग से मिलते हैं। बाकी 25 बच्चियों की मदद स्कूल करता है।

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दत्तू गाँव कनेक्शन को बताते हैं," स्कूल के खर्चे के लिए पब्लिक डोनेशन आता रहता है, क्राउडफंडिंग भी आती है] बाहर के लोगों को स्कूल के बारे में पता चलता है तो लोग डोनेशन देने आते हैं, अभी स्कूल किराए की बिल्डिंग में है, स्कूल की अपनी बिल्डिंग भी तैयार हो रही है।"

दत्तू गाँव कनेक्शन को बताते हैं, उनकी पत्नी शोभारानी और तीनों बेटियों का भी इस स्कूल को चलाने में पूरा सहयोग मिलता है।

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